शकराल की कहानी - 12 Ibne Safi द्वारा जासूसी कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

शकराल की कहानी - 12

(12)

"क्यों सूरमा ! क्या अब जिन्दगी में हम फिर कभी आदमी न बन सकेंगे-?"

"आदमी बनने की जरूरत ही क्या है?" राजेश ने पूछा । "आखिर किसी जरूरत हीं के लिये तो आस्मान वाले ने आदमी पैदा किये हैं-"

"हाँ- मगर हम कुछ लोगों के जानवर बन जाने से आदमियों की कौन सी कमी आ जायेगी।"

"यह भी ठीक है मगर यह तो सोचा सूरमा कि इस तरह हम लोग एकदम से अपने बेगानों से अलग हो गये हैं-अपनी बस्तियों और घरों से..."

"बस खुशहाल--'" राजेश ने कहा "अब सो जाओ ! इन बातों को याद करते रहोगे तो तकलीफ के अलावा कुछ हाथ न लगेगा - यह क्या कम खुशी की बात है कि हम आदमी न सही मगर आदमियों ही की तरह हंस बोल सकते हैं। खा पी सकते हैं अगर यह योग्यतायें भी हम से छिन गई होतीं तो हम क्या करते।"

"तब तो मजे ही मजे उड़ते- खुशहाल ने हंस कर कहा, "हमें यह बाद ही न रहता कि हम भी कभी आदमी भी थे या आदमी हैं।"

"अच्छा अब सो जाओ," राजेश ने कहा और करवट बदल ली।

बहादुर जाग ही रहा था और दोनों की बातें सुनता रहा था। बस उसकी आंखें बन्द थीं ।

जब उसे इसका विश्वास हो गया कि सूरमा और खुशहाल गहरी नींद सो गये हैं तो वह धीरे धीरे रेंगता हुआ उन से दूर चला गया था । रूक कर देखा था कि उन दोनों में से कोई जागा तो नहीं था और फिर इसी तरह वह उस स्थान तक जा पहुँचा था जहां घोड़े बंधे हुये थे। उसने अपने निजी सामान वाला थैला सन्ध्या होते ही छिपा दिया था। अपने घोड़े की सुनों पर गद्दी दार जुर्रावें चढ़ाई—पीठ पर जीन कसी और लगाम-थामे दूर तक पैदल ही घोड़े को ले गया।

आधे घन्टे तक वैसे ही अन्दाजों से किसी मार्ग पर चलता रहा फिर एक जगह रुक कर शरीर से लम्बे बालों वाली खालों से बनाया गया चमड़ा उतारा और थैले से लिबास निकाल कर पहनने लगा उसकी इन क्रियाओं से साबित हो रहा था कि उसने पहले से ही उस स्थान का निर्धारण कर लिया था जहां उसे रात का शेष भाग व्यतीत करना था । शीघ्र ही निर्धारित स्थान पर पहुँच कर उसने घोड़े को एक ओर बांध दिया । जीन के नीचे से कम्बल निकाल कर जीन दुबारा कस दी।

शायद घोड़े को लैस ही रखना चाहता या फिर उसने कम्बल जनीन पर बिछाया—बेला सिर के नीचे रखा और वे फिक्री से लेट गया । फिर उसी समय जागा था जब सूरज की किरनें चेहरे पर पड़ रही थीं। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा ।

पक्षियों के कलरव से जंगल गूंज रहा था । एक बार वह उस आस्मानी बला से डर कर भाग चुका था जिस के लिये उसे धार्मिन्दगी थी और कदाचित उसी शर्मिन्दगी को मिटाने के लिये वह उसके विरुद्ध बल प्रयोग के लिये तत्पर हो गया था-फिर वह शकराली हो कैसा जो अपनी बात के आगे किसी और की बात ठहरने दे -1

राजेश ने उसे ऐसा करने से रोका था। समझाया था मगर उसने अपनी जिद के आगे उसकी तमाम बातों को गलत समझा था ।

उसने जल्दी जल्दी नित्य क्रिया से अवकाश प्राप्त किया था और वहां से रवाना हो गया था वह शायदे जान बूझ कर उस आस्मानी बली का शिकार होना चाहता था। हर सुगन्ध या दुर्गन्ध पर इस प्रकार नाक सिकोड़ने लगता था जैसे थोड़ी ही देर में वह सुगन्ध या दुर्गन्ध वैसी ही मीठी मीठी सी गन्ध लगने लगेगी जैसी खुशहाल ने बताई थी ।

पूरा दिन गुजर गया मगर वह किसी दुर्घटना का शिकार नहीं हुआ उसके होंठों पर बड़ी उपहासजनक मुस्कान बिरक उठी और वह मन ही मन कहने लगा ।

"अब मैं सुरमा को बताऊंगा कि 'कौन सच्चा है और कौन झूठा' सन्ध्या को फिर उसने रात व्यतीत करने के लिये एक स्थान चुना और घोड़े से उत्तर पड़ा। चारों ओर देखा फिर घोड़े की पीठ पर से जीन उतारने लगा ।

थैले से कुछ निकालते समय उसकी नजर खालों के वस्त्र पर पड़ी जो उसने पिछले दिन तक अपने शरीर पर मढ़ रखा था। उसके होंठ घृणा से सिकुड़ गये । उसकी समझ से वह उसकी खुली हुई कायरता थी। उसे सूरमा के कहने में नहीं आना चाहिये था।

वह सोचता रहा और फिर उस खालों वाले वस्त्र से पीछा छुड़ाने तुल गया। जल्दी जल्दी एक गड्ढा खोदा और उसी में उस वस्त्र को ख कर ऊपर से गढ़ा पाट कर जमीन बराबर कर दिया। अभी सूर्य नहीं हुआ था । इतना उजाला था कि दूर दूर तक देख सकता था । स्थान भी ऐसा चुना था जहां जंगल अधिक घना नहीं था । वह वहां से चारों ओर नजर रख सकता था । उसने सूखी लकड़ियां एकत्र की और आग जलाने लगा। चाय की तलब उसे परेशान किये हुये थी। अगर चाय की तलव न होती तो वह आग भी न जलाता।

मगर जब थैले से पानी वाली बोतल निकाला तो सन्न रह गया । बोतल का पानी पहले ही खत्म हो चुका था और शायद यह बात उसे याद नहीं रह गई थी। 'अब क्या होगा' वह चिन्तित भाव में बड़बड़ाया।

फिर एकदम से हंस पड़ा शायद उसे यह याद आ गया था कि मीरान घाटी में पानी की कमी नहीं— जगह जगह झरनों का पानी पतली पतली नालियों में बहता फिरता था। वह बोतल लेकर उठा और आस पास पानी तलाश करने लगा--

अगर केवल चाय का  मामिला रहा होता तो शायद इस थकावट के बाद वह यह कष्ट न मोल लेता मगर रात व्यतीत करनी थी और रात में किसी भी समय प्यास भी लग सकती थी ।

अब वह इतना पानी प्राप्त कर लेना चाहता था कि सबेरा होने तक काम चल सकता। वह हाथ में बोतल लिये आगे बढ़ता रहा और फिर एक ढलान में उतरने लगा।

पूरी घाटी बसेरा लेने वाले पक्षियों के शोर से गूंज रही थी और अस्त होते हुये सूर्य की नारंगी किरने ऊंचे ऊंचे वृक्षों की चेटियों को छू रही थीं-1

अन्त में एक जगह जल के लक्षण नजर आये। यह हरियाली की एक लम्बी सी लकीर थी— पानी की नाली के दोनों किनारों की हरी घासें। वह तेजी से कदम उठाता हुआ उसी ओर बढ़ने लगा। अचानक किसी वस्तु से पैर उलझा और वह गिर पड़ा—जब उस उलझावे से पैर निकालने की कोशिश की तो दूसरा पैर भी उलझ गया और वह अकस्मात चीख पड़ा।

"अरे ! यह क्या हुआ?"

उसने लाख कोशिश की मगर पैर उलझावे से निकल न सके बल्कि और उलझते चले गये—ऐसा लग रहा था जैसे बारीक बारीक तारों के किसी ढेर ने पैरों को जकड़ लिया हो—उसके बाद उसे ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे चारों ओर से उस पर महीन महीन रेशे (तन्तु) उस पर टूट पड़े हो 'यह क्या मुसीबत आ गई?' वह बड़बड़ाया और अब उसे कुछ डर भी लगने लगा था मगर उस आस्मानी बला का यह डर नहीं था। जिसने आदमियों को वनमानुष बना दिया था क्योंकि यह उस स्थिति से भिन्न स्थिति थी जिसमें ग्रस्त होकर खुशहाल आदमी से वनमानुष बना था। और रजबान के ग्यारह आदमियों के बारे में तो अभी तक यह मालूम ही न हो सका था कि उन पर क्या बोती थी और किस प्रकार बीती थी।

उसने साहस बटोर कर कुहनियों के बल उठने की कोशिश की मगर अपने स्थान से हिल भी न सका । न जाने वह लम्बे लम्बे रेशे कहां कहां आ आकर उसके गिर्द इस प्रकार लिपटते जा रहे थे जैसे उसके पूरे शरीर पर अपना बनाया हुआ खोल चढ़ा देना चाहते हों । फिर उसका दम घुटने लगा मगर इस अवस्था में भी उसके मन में यह ख्यात उत्पन्न नहीं हुआ कि उसने सूरमा की बात मान कर गलती की थी।

उसके बाद उसका जेहन धीरे धीरे अन्धकार में डूबता चला गया । रेशों का आक्रमण अब भी जारी था और उसके ऊपर उनका ढेर 'लगता जा रहा था।

*******

दूसरे दिन सवेरे राजेश से पहले खुशहाल की नींद खुली थी। उसने हरदार बहादुर का स्थान खाली देखा था मगर इस पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया था। उठ कर बैठ गया था और राजेश के जागने की प्रतीक्षा करने लगा था । लगभग दस ही मिनिट बाद राजेश ने भी अंगड़ाई लेते हुये आंखें खोल दी और खुशहाल को बैठा देख कर खुद भी उठ बैठा—फिर उसकी नजर भी वहां पड़ी जहां सरदार बहादुर सोया हुआ था--स्थान देख कर उसने खुशहाल से पूछा।

'बहादुर कहां गया?”

"मैं नहीं जानता--" खुशहाल ने लापरवाही से कहा “पाखाना पेशाब करने गया होगा ।"

"हूँ...." राजेश ने कहा फिर कुछ सोचता हुआ बोला "तुम कब जागे थे?"

"बस दस बारह मिनिट पहले।"

"तब बहादुर था--?"

"नहीं।" खुशहाल ने कहा। "मगर तुम यह बार बार बहादुर को सों पूछ रहे हो कहीं गया होगा आ जायेगा—"

राजेश ने कुछ कहा तो नहीं मगर उसके चेहरे पर चिन्ता के लक्षण छा गये थे। वह उठ खड़ा हुआ। "कहां चलें--?" खुशहाल ने पूछा ।

"जरा मैदान हो आऊं--- फिर तुम जाना---"

"क्यों न साथ चलें-साथ ही के कारण तो मैं नहीं गया था। तुम्हारे जागने का इन्तज़ार कर रहा था"

"नहीं खुशहाल --- एक आदमी का यहाँ रहना आवश्यक है"

"अच्छा जाओ" खुरहान ने कहा और फिर लेट गया।

राजेश वहां से चला गया और खुशहाल फिर से सोचने लगा कि क्या अब वह फिर से आदमी नहीं बन सकता।

राजेश की वापसी शीघ्र ही हुई थी मगर अब उसके चेहरे पर चिन्ता की छाप इतनी गहरी हो गई थी कि वह खुशहाल के नेत्रों से छिपी न रह सकी थी । उसने पूछा ।

"क्या बात है सूरमा —तुम कुछ चिन्तित नजर आ रहे हो ?"

"कोई बात नहीं जाओ।"

खुशहाल चला गया और राजेश किसी सोच में गर्क हो गया। थोड़ी ही देर बाद खुशहाल वापस आ गया और बोला ।

"सरदार बहादुर का घोड़ा भी नहीं है-"

"हां- मैंने भी देखा था - " राजेश ने कहा ।

"इसका क्या मतलब हो सकता है?"

"उसे वापस आने दो- फिर उसी से मतलब पूछ लेना।" राजेन ने टालने के अभिप्राय से कहा।

खुशहाल कुछ बोला नहीं । उसने बहादुर और सूरमा को वह बाते तो सुनी नहीं थी जो उनके मध्य हुई थीं इसलिये उसे किसी ऐसे बात का संशय भी नहीं था जो बहादुर से सम्बद्ध हो और फिर बहादुर की ओर से उसका दिल भी साफ नहीं था कि उसे बहादुर की चिन्ता होती—उसके मन में अब भी यही बात जमी हुई थी कि स्थिति चाहे जो भी थी बहादुर को उसे छोड़ कर भागना नहीं चाहिये था। वह सरदार ही क्या जो अपने किसी लड़के को मुसीबत में देख कर भाग खड़ा हो ।

जब खामोशी छाये हुये कुछ देर हो गई तो खुशहाल ने कहा। "अब क्या इरादा है-?"

“कुछ देर तक और उसका इन्तार कर लिया जाये—फिर सोचूंगा कि क्या करना चाहिये ।"

"तो क्या जब तक वह नहीं आयेगा तब तक हम नाश्ता भी नहीं करेंगे?" खुशहाल ने चुभते हुये स्वर में कहा।

"ओह ! यह तो में भूल ही गया था।" राजेश ने कहा फिर मुस्कुरा कर बोला, "पेट के मामले में आदमी और जानवर में कोई अन्तर नहीं। दोनों को भूख लगती है और दोनों को ही अपने पेट भरने की चिन्ता रहती है-"

खुशहाल हंस पड़ा फिर थैलों से सामान निकाले गये और दोनों नाश्ता करने लगे ।

"अगर बुरा न मानो तो एक बात कहूँ?" खुशहाल ने कहा ।

"कहो-"

"नहीं- पहले वादा करो कि बुरा नहीं मानोगे?"

"अगर जानवर न होता तो लिख देता कि मैं बुरा नहीं मानूंगा ।"

"चाय की तलब सता रही है-" खुशहाल ने कहा, "बस यही कहना था?"

"हाँ।"

"तो फिर इतनी सी बात के लिये इतनी बड़ी भूमिका की क्या जरूरत थी?"

"तुम इसे इतनी सी बात कह रहे हो और यह हालत है कि चाय के बिना दुनिया अंधेरी लग रही है--।"

"दुनिया नहीं यह जंगल कहो ।”

"ठीक कहते हो।" खुशहाल ने ठन्डी सांस लेकर कहा, "अब हमारी दुनिया तो यही जंगल ही है मगर उस हसीन दुनिया का ख्याल तो जाते ही जाते जायेगा और फिर यह जरुरी भी नहीं है कि हम उस दुनिया को भूल जायें-- -।"

राजेश कुछ नहीं बोला।

"हां तो चाय--" खुशहाल ने कहा ।

"जानवर चाय नहीं पीते--" राजेश बोला ।

"टालने की कोशिश न करो सूरमा -।”

“तुम्हारे ही समान मुझे भी चाय की तलब है दोस्त।”

"तो फिर जलाऊं आग–?" खुशहाल ने चहक कर कहा।

"नहीं खशहाल - दिन में आग जलाना उचित न होगा।"

"मगर क्यों ?"

"बहत न करो—मेरी बात मान लो -" राजेश ने कहा। खुशहाल खामोश हो गया। राजेश भी मौन ही रहा ।