शकराल की कहानी - 11 Ibne Safi द्वारा जासूसी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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शकराल की कहानी - 11

(11)

“बहरहाल उजाला फैलने से पहले ही वह गुलतरंग की गुफाओं के निकट पहुँच गये थे ।

"अब तुम आगे चलो हमें उसी गुफा तक पहुँचना है जिसमे से..." राजेन ने बात अधूरी हो छोड़ दी। यह बात उसने बहादुर से कही थी। फिर बहादुर के पथ प्रदर्शन में वह उस गुफा में प्रविष्ट हुये थे जिसके किसी गुप्त मार्ग से गुजर कर वह मीरान घाटी में दाखिल हो सकते थे। अब हम कुछ देर तक यहीं आराम करेंगे।" वहादुर ने कहा ।

"मगर नाश्ते का क्या होगा - ?" राजेश ने पूछा । “सब सामान साथ में है—" बहादुर ने कहा, "यहीं चाय बनायेंगे और रोटी सेकेंगे-

"और अगर किसी ने हमें यह सब करते देख लिया तो फिर डर के मारे बेहोश ही हो जायेगा-" राजेश ने हंस कर कहा ।

इसकी चिन्ता तो करो ही नहीं।" बहादुर ने कहा । "इसलिये कि इधर कोई आता ही नहीं-"

"सब तो ठीक है।" राजेश ने सिर हिला कर कहा ।

सफरी थैलों से सामान निकाले गये-आग जलाई गई। राजेश ने चाय बनाने का जिम्मा लिया और बहादुर तथा खुशहाल रोटी बनाने में जुट गये ।

खुशहाल बिल्कुल मौन था । ऐसा लग रहा था जैसे उसके मुख में जवान ही न हो । राजेश ने उसे छेड़ने के अभिप्राय से कहा । "अब हमें भी आदमी न समझो। हम भी तुम्हारे ही समान वन मानुष हैं। खुलकर बातें करो— तुम्हारा सरदार भी चूंकि वनमानुष हो गया है इस गये लिहाज करने की जरुरत नहीं है—।"

खुशहाल ने लम्बी सांस खींची फिर वोला ।

“काश — जबान भी छिन गई होती — मगर मैं तो आदमियों की तरह सोच भी सकता हूँ।"

"फिर आदमियों की तरह बोलो भी—वैसे क्या मैं एक बात तुम्हें बताऊँ — ?” राजेश ने कहा, "बहुत मार्के की बात है।"

"बताओ।"

"बराज के सारे जानवर यही समझते हैं कि वह आदमी हैं—” राजेश ने कहा ।

खुशहाल हंसने लगा-।

"बिल्कुल ठीक--- अब कुछ बोलो भी।" राजेश ने कहा।

“मैं क्या बोलू’—मेरे पास बोलने के लिये रही क्या गया है-।"

"तन के कपड़ों के अलावा और क्या नहीं है तुम्हारे पास पेट भी मौजूद है।"

इस बार खुशहाल ने जोर से अट्टहास लगाया।

"अरे बाप रे" राजेश कराहा ।

"क्यों—क्या बात है?" खुशहाल ने चौंक कर पूछा। "तुम तो हमारी गर्दने ही कटवाने पर तुल गये हो — " राजेश ने कहा।

"वह कैसे -?"

"हम यहां छिपे बैठे हैं और तुम इतनी जोर से हंस रहे हो अगर हंसी की आवाज सुनकर कोई इधर आ गया तो हमारा क्या होगा ।

"माफ करना सूरमा - हंसी आ गई थी—अब ख्याल रखूंगा ।"

"हंसी पर नहीं बल्कि अट्टहास लगाने पर प्रतिबन्ध है।" राजेश ने कहा फिर बोला, "हां तो हम क्या बातें कर रहे थे--?" "शायद पेट की बात थी" खुशहाल ने कहा।

"हां याद आया तो फिर क्या खयाल है-?'

"ख्याल क्या है-।" खुशहाल ने कहा,"आदमियों की तीन बुनियादी जरूरतें हैं। कपड़ा — रोटी और मकान----मगर चूंकि हम जानवर नुमा आदमी हैं इसलिये अब हमें न कपड़ों की जरुरत रही कपड़ों की ज़रुरत बालों ने पूरी कर दी है— मकान की जरुरत गुफायें है न मकान की जंगल पूरी करेंगे—और हां रोटी की समस्या जरुर रह जाती है—और हमें अब इसी की चिन्ता रहेगी- वैसे।"

खुशहाल बात अधूरी छोड़कर हंसने लगा फिर बोला । “अब अगर कोई हमें घास चरते भी देख लेगा तो अट्टहास नहीं लगा सकेगा इसलिये पेट की फिक्र करना भी बेकार ही है ।"

"शाबाश ।” राजेश चहक कर बोला "बालों के साथ तुम्हारी अक्ल भी बढ़ी है-"

खुशहाल हंसने लगा फिर बोला, "अच्छा और बातें तो होती रहेंगी अब यह बताओ कि तुम दोनों इस हाल को कैसे पहुँचे ?"

"न बुखार आया, न शरीर में ऐंठन हुई और न हाथ में दर्द हुआ---" राजेश बताने लगा “मैं सरदार बहादुर के पास बैठा उसे समझा रहा था कि उसे शादी कर लेनी चाहिये मगर बहादुर बराबर नहीं नहीं किये जा रहा था--उसी बीच हमारे बाल बढ़ने आरम्भ हो गये थे-"

"अरे !" खुशहाल ने विस्मय "क्या यह सच है सरदार ?" के साथ कहा फिर बहादुर से पूछा।

"अगर सूरमा झूठ भी बोल रहा हो तो मैं उसे सच्चा ही समझूंगा" बहादुर ने कहा।

"आहा..!"

"एक ख्याल बिल्कुल नया ख्याल ---" राजेश उछल पड़ा । बहादुर और खुशहाल दोनों ही चौंक कर उसकी ओर देखने लगे। राजेश ने खुशहाल की ओर उठकर कहा ।

“अच्छी तरह याद करके बताओ कि जब तुम मीरान घाटी में बेहोश हुये थे तो उससे पहले किसी औरत के बारे में तो नहीं सोच रहे थे ?"

"क्यों—यह तुम क्यों पूछ रहे हो?" खुशहाल ने सवाल किया ।

"पहले मेरे सवाल का जवाब दो—फिर मैं बताऊंगा।"

"हां मैं उसी औरत के बारे में सोच रहा था जिसकी तलाश थी।"

"ओह तो यह बात थी।" राजेश ने कहा ।

"क्या बात थी?"

"आज कल कुछ ऐसी हवा चल रही है कि औरत का ख्याल आते ही आदमी जानवर बन जाता है।"

"आस्मान वाला ही जाने--" खुशहाल ने ठण्डी सांस लेकर कहा ।

"जानते हो अब शकराल में क्या होगा?" राजेश ने पूछा ।

"दही-क्या होगा-?"

"अब यह होगा कि लोग जानवर बन बन कर मीरान घाटी की ओर दौड़ लगाते रहेंगे।"

"तुम ऐसी बेकार बातें क्यों कर रहे हो सूरमा--" इस बार बहादुर बोला।

“खुद जानवर बन जाने के बाद मुझे आदमियों से क्या हमदर्दी हो सकती है-" राजेश ने कहा।

बहादुर कुछ नहीं बोला। इतनी देर में चाय और रोटियां तैयार हो गई थीं। रोशनी के लिये बहादुर ने कुछ और लकड़ियां अलाव में डाल दी और फिर तीनों चाय में डुबो डुबो कर रोटियां खाने लगे । अलाब के गिर्द बैठे हुये यह तीनों लाखों वर्ष पूर्व के गुफाओं में रहने वाले 'दो पायों' से भिन्न नहीं लग रहे थे।

"हम कैसे लग रहे हैं--?" अचानक खुशहाल बोला और हंसने लगा। 'देखो ! बाहर निकलने से यह फायदा हुआ है कि तुम अपनी प्राकृतिक खुश मिजाजी की ओर लौट आये हो।” राजेश ने कहा।

"कोठरी में कितने चिड़चिड़े हो गये थे।"

"सूरमा...."

"सुन रहा हूँ।" राजेश बीच में बोल उठा।

“अब क्या कहना चाहते हो— ?"

“मैं देख रहा हूँ कि तुम्हें अपने जानवर हो जाने पर जरा सा भी दुख नहीं है-'"

“अपने आदमी होने पर कब खुश था कि जानवर बन जाने पर दुख होगा" राजेश ने कहा ।

"तुम सचमुच अजीब हो -"

**********

मीरान घाटी पहुँच कर उन्होंने अपनी समझ में एक सुरक्षित स्थान 'पर डेरा डाल दिया था। रातें डेरे पर व्यतीत करते थे और सवेरे नाश्ता करने के बाद घाटी की सैर को निकल जाते थे । राजेश उन्हें अपने साथ ही रखता था और हर वक्त चौकन्ना रहता था । एक दिन वह घूमते घूमते उस स्थान पर भी पहुँचे थे जहां खुशहाल

बेहोश हुआ था मगर कोई नयी घटना नहीं हुई। ऐसा लगता था जैसे वहां पहले कभी कुछ हुआ ही न हो । राजेश घोड़े की पीठ पर बैठा बैठा उन अनदेखे हाथों को ललकारता रहा था जो आदमियों को जानवर बनाने के जिम्मेदार थे किन्तु उसकी ललकार का कोई फल नहीं निकला था। घाटी में भटकते हुये आज तीसरा दिन था— बहादुर तंग आ चुका था। उसने राजेश को संकेत किया कि वह अपना घोड़ा पीछे कर ले अर्थात उसकी चाल कुछ कम कर दे। साथ उसने खुद अपने घोड़े की चाल कम कर दी । इस प्रकार खुशहाल उनसे कुछ आगे हो गया। "क्या कुछ कहना है--?" राजेश ने धीरे से कहा। दोनों के घोड़े बराबर में चल रहे थे ।

"हां" बहादुर ने कहा ।

"कहो— "

"मेरे ख्याल से तुम गलती पर हो―"

“नहीं- में गलती पर नहीं हूँ-'

"तो फिर हम बेहोश क्यों नहीं हुये –?"

"अगर हम आदमी होते तो हमें बेहोश करने की कोशिश जरूर की गई होती।"

"यह क्यों भूल जाते हो कि हम दोनों तो आदमी ही हैं-" बहादुर कहा।

"खुशहाल भी तो आदमी ही है-बालदार आदमी ।" "हा--- मगर वह जानवर बना दिया गया है—"

"केवल बालों की हद तक — वर्ना वह भी आदमियों की तरह सोचता समझता है और आदमियों ही की तरह बोलता भी है—बस असर इतना कि उसे इन्जेक्शन देकर जानवर बनाया गया है और हम खुद से बाल-दार खालों का कपड़ा पहन कर जानवर बने हुये हैं—मगर...."

अचानक राजेश मौन हो गया और बहादुर ने टोका। “क्यों-चुप क्यों हो गये -?"

"मैं यह करना चाहता था कि हम दोनों बेहोश नहीं हुये । इसी से बात साबित होती है कि यह न तो कोई बीमारी है न कोई आस्मानी बला—बल्कि यह इन्सानों की हरकत हैं और वह यही समझ रहे हैं कि हम उन्हीं ग्यारह आदमियों में से हैं जो रजवान में कोठरी बन्द हो गये है—और जानवरों को फिर से वह जानवर क्यों बनायें- "

"तुम्हारी यह बात मानने को दिल नहीं चाहता"

"अच्छी बात -आज रात तुम अपनी यह खाल उतार दो — थैले से कपड़े निकाल कर पहनो और चुपचाप डेरे से निकल जाओ।" राजेश ने कहा ।

"तो क्या होगा?"

"फिर अगर बिना बुखार चढ़ाये वापस आ जाओगे तो मैं तुमसे-सहमत हो जाऊंगा-यह मान लूँगा कि यह कोई आस्मानी बला है-"

"मैं यही करूंगा।" बहादुर ने कहा । .

"फिर मैं एक बड़ा सा अस्तुरा बनवाऊंगा-" राजेश ने आंखें निकाल कर कहा, "और फिर हर दिन नीचे से ऊपर तक तुम्हारा शेव करके रख दिया करूंगा ।"

बहादुर कुछ नहीं बोला । उसने सख्ती से अपने होंठ भींच लिये थे। क्रोध पी जाने के सिलसिले में उसकी यही दशा होती थी ।

वह डेरे पर पहुँचे थे और धनुष बाण से शिकार किये पक्षियों -भोजन तैयार करने में लीन हो गये थे। शिकार पर कारतूस नष्ट करना चाहते थे इसलिये शिकार के लिये तीर और कमान ही के प्रयोग को उचित समझा गया था ।

"क्यों न अब हम वहीं ठहर कर जिन्दगी गुजारें— अचानक- खुशहाल बोल पड़ा ।

"ऐसा क्यों कर रहे हो?" बहादुर ने पूछा ।

"इसलिये कि बस्तियों में तो किसी को मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहे---- " खुशहाल ने गर्दन गोड़ कर बोला, "तुम्हारा क्या ख्याल है सुरमा ?"

"ठीक कह रहे हो वह औरत भी नही चाहती है-" राजेश ने कहा।

"मैं नहीं समझा-"

"रजबान के ग्यारह आदमी कोठरियों में बन्द हो गये थे -" राजेश बताने लगा, "कोई नहीं जानता था कि उन पर क्या बीती । वह औरत रजवानी सरदार लाहुल की नकली बीबी बन कर बड़े उपासक के यहां पहुँच गई—उसने उन ग्यारह आदमियों के बारे में बड़े उपासक को बताया और इस तरह पूरा शकराल उन ग्यारह आदमियों के बारे में जान गया।"

"मगर बात तो सच्ची ही थी- खुशहाल बीच ही में बोल उठा ।

"पहले पूरी बात तो सुन लो।" राजेश ने भल्ला कर कहा ।

"सुनाओ!"

"उस औरत ने बड़े उपासक को इसलिये यह बात बताई थी कि उन ज्यारह आदमियों को कोठरियों से निकलने पर विवश किया जाये। अगर औरत का दाव चल गया होता तो जानते हो क्या होता?"

“नहीं- तुम ही बताओ?"

“तुम्हारे ही ख्याल के अनुसार वह बस्तियों में तो किसी को मुह दिखाने के काबिल न रहते इसलिये सीधे यहीं अर्थात मीरान घाटी ही में आते-"

"यह किस तरह कह सकते हो?"

"इस तरह कि पेट तो साथ ही रहता और उसे किसी न किसी तरह भरना पड़ता अगर वह बाहर निकलने पर अपने आप को गुफाओं में छीपाते तो भूखे मरना पड़ता और देख लिये जाने का भी डर लगा रहता मगर यहां तो भूखों मरने का सवाल होता देख लिये जाने का भग लगा रहता—छिपने के लिये जंगल हैं और पेट भरने लिये शिकार और कुदरती शिकार के तौर पर उगे हुये फलों के पेड़ - हैं-"

"हां - यह तो है"-

" खुशहाल ने सिर हिला कर कहा।

"इसलिये अगर उन ग्यारहों को कभी उनकी कोठरियों से बाहर निकालने की कोशिश की गई या वह खुद ही घबड़ा कर बाहर निकले तो फिर सीधे यहीं आयेंगे —तुम देख लेना ।”

"ठीक कहते हो।" खुशहाल ने कहा, "तुम्हारी बात दिल को लगती है- "

"मगर मेरे दिल को नहीं लगती- बहादुर ने भन्ना कर कहा। "अरने अपने दिल और समझ की बात है- खुशहाल ने मुहबना कर कहा, "वैसे सूरमा का ख्याल सही है--"

फिर खामोशी छा गई थी।

तन में सोने से पहले राजेश ने बहादुर को अलग ले जा कर कहा।

“सुनो बहादुर ! वह अकलमन्दी न कर बैठना जो तुम्हारे मन में है-"

"क्या मतलब?" बहादुर ने पूछा। "निकल न जाना बन सत्तमुच वनमानुष ही बन कर वापस आओगे

'अच्छा.....'अच्छा—'' बहादुर ने कहा।

मगर वह अपनी बात ही परअटल रहा था। पूरीतरह समझाने के बाद भी उसने राजेश की बात को सच नहीं माना था । लेटने के बाद एकदम से सोता बन गया था। राजेश और खुशहाल बातें करते रहे थे । खुशहाल कह रहा था।