मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 12 राज कुमार कांदु द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 12

लघुकथा क्रमांक 32

जनता के सेवक
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"माननीय नेताजी ! क्या कहूँ उस सिरफिरे पत्रकार से ? किसी भी तरह से टलने का नाम ही नहीं ले रहा। कह रहा है आप हमारे प्रतिनिधि हैं तो आपको हमारे सवालों का जवाब देना ही होगा।" नेताजी के मुख्य सचिव ने कहा।

"हूँ... एक काम करो। उसे अंदर भेज दो। आज उसे इंटरव्यू दे ही देते हैं।"

"जी ठीक है..लेकिन वह बड़ा शातिर पत्रकार है, ध्यान रखिएगा।"

कुछ देर बाद पत्रकार अपनी टीम के साथ नेताजी के कक्ष में पहुँचा। कैमेरा व माइक वगैरह की उचित सेटिंग के मध्य ही नेताजी कुनमुनाये, " पत्रकार महोदय ! जो करना है जल्दी कीजिए। अधिक समय नहीं है हमारे पास.. हम....!"

"ओह, अच्छा !.. शायद इसी व्यस्तता की वजह से आपको नौ महीनों से धरना प्रदर्शन कर रहे किसानों से सीधे बात करने की फुर्सत नहीं मिली...?" नेताजी की बात बीच में ही काटकर पत्रकार ने व्यंग्य बाण चलाए।

"आप गलत बोल रहे हैं पत्रकार महोदय ! हम और हमारी सरकार रात दिन किसानों के हित के लिए काम कर रही है। हम उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए कृतसंकल्प हैं।" नेताजी हल्का सा रोष प्रकट करते हुए बोले। कुछ पल रुककर वह अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोले, "और आप जिन किसानों की बात कर रहे हैं, वह क्या सच में किसान हैं ?"

"जी महोदय ! सही कहा आपने, ..सच में इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वह सभी किसान ही हैं, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि आप वाकई जनता के सेवक हैं ?"

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लघुकथा क्रमांक 33

कोरोना की मंजिल
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कोरोना का कहर चरम पर था। बाजार, स्कूल, कॉलेज, दफ्तर, कल- कारखाने सब अनिश्चित समय के लिए बंद कर दिए गए थे। यहाँ तक कि इंसानों ने भी स्वयं को घरों में कैद कर लिया था। पहले लॉक डाउन के अनुभवों के बाद इंसान घरों में कैद रहकर भी सामान्य बने हुए थे व सुरक्षा का पर्याप्त ध्यान रखने का हरसंभव प्रयास कर रहे थे।
नए नए शिकार करने का शौकीन कोरोना वायरस देश भर की गलियों की खाक छान कर हताश और निराश हो गया था। आज नए शिकार के नाम पर उसे नाम मात्र के लापरवाह इंसान ही मिले थे जिनकी संख्या उसके लिए संतोषजनक नहीं थी। यह संख्या उसके लिए वैसी ही थी जैसे 'ऊँट के मुँह में जीरा।'
तभी लाउडस्पीकर पर गूँजती किसी नेता के भाषण की आवाज सुनकर उसकी बाँछें खिल गईं। उसने आवाज की तरफ रुख किया। नेताजी एक बड़े से मैदान में लाखों की जमा इंसानी भीड़ को संबोधित करते हुए अपनी चुनावी रैली को काफी सफल बताते हुए गदगद हुए जा रहे थे।
कोरोना के भटकाव को मंजिल मिल गई थी।

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लघुकथा क्रमांक 34
चोरी
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जब से नई बहू घर में आई थी, गाहेबगाहे अलमारी से पैसे गायब होने लगे थे। रमा को अपनी नई बहू पर शक तो था लेकिन बिना सबूत के वह उसपर आक्षेप भी कैसे लगाए ? वह चाहकर भी अपनी बहू से कुछ कह नहीं पा रही थी।
टीवी पर नेताजी जोश में भाषण दे रहे थे ' पिछले कई सालों से हमारे राज में एक भी दंगा नहीं हुआ जबकि विरोधियों की सरकारों में दंगों का लंबा इतिहास रहा है।'
समाचार देखते हुए रमा के होठों की मुस्कान गहरी हो गई। बहू को आवाज लगाते हुए उन्होंने कहा, " बहू ! ये लो अलमारी की चाबियाँ ! अब आज से तुम ही संभालो इन्हें !"
अब अलमारी से पैसों की चोरी रुक गई थी।