मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 11 राज कुमार कांदु द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ - 11


लघुकथा क्रमांक 30

जब जागो तभी सवेरा
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विधानसभा चुनाव चल रहे थे। गाँव के चौपाल पर कुछ ग्रामीण जिनमें हर आयु वर्ग के लोग शामिल थे कल होनेवाले मतदान के लिए अपनी अपनी पसंद के उम्मीदवारों के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास कर रहे थे।
कुछ युवाओं की बातें सुनने के बाद बुजुर्ग रामदीन बोले, "तुम लोग कुछ भी कह लो, मेरा वोट तो बाबू लालाराम को ही जाएगा।"

" काहें, ताऊ ? कउनो वजह भी तो हो,उन्हें वोट देने की ?"

"अरे वजह काहें नाहीं है ? लालाराम अपनी बिरादरी के हैं।"

" ताऊ ! इ चुनाव बढ़िया नेता चुनने के वास्ते है जो सुख दुःख में आम जनता के साथ खड़ा रहे, उनका काम करे। कउनो रिश्तेदार चुनने का चुनाव थोड़े न है।"

"तुम नाहीं समझोगे बेटा ! नया खून है न तुम लोगन का ? हमरे बाप दादा कहते आए हैं कि हरदम अपनी बिरादरी और अपने लोगन का मदद करो। इ तो मानत हौ न कि दरांती अपनी तरफ ही काटत है। समय पड़े पर विधायक अपनी बिरादरी का हो तो बिरादरी का हर काम आसान होय जात है।"

"ताऊ ! भूल गए का अभी चंद रोज पहले ही तुम अस्पताल में भर्ती अपना भतीजा की खातिर ऑक्सीजन का सिलेंडर के वास्ते इन्हीं लालाराम के सामने गिड़गिड़ा रहे थे और बाद में इहै लालाराम फोन बंद करके बैठ गए रहे। उ तो भला हो उ बृजकिशोर का जिन्होंने एक फोन से सिलेंडर का जुगाड़ करवा दिया था अउर तुमरे भतीजा की जान बच गई रही। तब उ दरांती अपनी तरफ काहें नाहीं चली रही ताऊ ? तब तो इ लालाराम बिरादरी का कउनो लिहाज नाहीं किये रहे।...ताऊ ! लकीर का फ़क़ीर बने रहने में कउनो समझदारी नाहीं है। जाति, धर्म, रिश्तेदारी, बिरादरी छोड़कर नेता के अंदर काबिलियत खोजो, ऊके मन मां गरीबन के लिए कुछ करने का जज्बा खोजो, ऊके मन मां सेवा का भाव खोजो और जवन उम्मीदवार इ कसौटी पर खरा उतरे उसी को वोट देके जिताओ, फिर वह चाहे कउनो जाति धर्म व बिरादरी का काहें न हो।"

"सही कह रहे हो बेटा ! तुमने हमरी आँखें खोल दी है। सचमुच हम सब अब तक लकीर के फ़क़ीर बने रहे और जाति बिरादरी के नाम पर गलत नेता का चुनाव करके अपना अउर देश का भविष्य खराब करते रहे। लेकिन नाहीं! ...अब अउर नाहीं। अब हम भी बदलते भारत की बदलती तस्वीर बनाने में पूरा सहयोग करेंगे और जाति बिरादरी नहीं अपने लिए काम करने वाले नेता का चुनाव करेंगे।"

" इ हुई न बात ताऊ ! जब जागो तभी सवेरा !"

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लघुकथा क्रमांक 31

राजनीति
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टेलीविजन पर खबरें देखते देखते अमर अचानक उठ खड़ा हुआ और जल्दी जल्दी तैयार होने लगा।

आज अवकाश का दिन था और उसके दफ्तर में छुट्टी थी। उसकी पत्नी रजनी ने उसके साथ बाहर खाने का प्रोग्राम बनाया था और अचानक बिना कुछ कहे अमर को तैयार होते देखकर वह चिंतित सी होते हुए उससे पूछ बैठी," ये टीवी देखते देखते अचानक आपको क्या हो गया ? और कहाँ जाने की तैयारी कर रहे हैं आप ?"

" रजनी ! कुछ नहीं हुआ है मुझे ? बस थोड़ी देर बॉर्डर पर किसानों के साथ बिताकर उन्हें अपना समर्थन देकर आता हूँ। "

" समर्थन ?? उन देशद्रोहियों का समर्थन जो भारत विरोधी गतिविधियों में लिप्त हैं ? खालिस्तानी झंडे लहरा रहे हैं और खालिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं ? पिज़्ज़ा बर्गर खानेवाले , महँगी गाड़ियों में शान से सफर करनेवाले , महँगी जीन्स व आधुनिक कपड़े पहने ये इंसान आपको किसान नजर आ रहे हैं ?" रजनी ने अपने मन की भड़ास निकाल ली।

" शांत रजनी,.. शांत ! डियर ! ये राजनीति हो रही है , सब समझ रहे हैं, लेकिन राजनीति क्या सिर्फ किसान ही कर रहे हैं ? हमारी सरकार राजनीति नहीं कर रही है क्या ? फ़
" शांत रजनी,.. शांत ! डियर ! ये राजनीति हो रही है , सब समझ रहे हैं, लेकिन राजनीति क्या सिर्फ किसान ही कर रहे हैं ? हमारी सरकार राजनीति नहीं कर रही है क्या ? फर्क सिर्फ इतना है कि सरकार जहाँ अपनी हेकड़ी जताने के लिए राजनीति कर रही है, किसानों पर झूठे आरोप लगा रही है, वहीं किसान अपनी आगामी पीढ़ियों के भविष्य के लिए राजनीति कर रहे हैं। मैं भी अपने भविष्य के लिए ही उनका समर्थन करने जा रहा हूँ।"


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