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नमस्कार मित्रों !
"दीदी ! पता है आज क्या हुआ ?" इंद्राणी भागती हुई आई |
"क्या हो गया ऐसा जो तुम इतनी उत्साहित दिखाई दे रही हो ? क्या टॉप कर लिया है क्लास में ?" मणि ने छोटी बहन से पूछा जो बारहवीं में पढ़ रही थी |
मणि कॉलेज के दूसरे वर्ष में थी और उसका शिक्षा का पूरा सफ़र बहुत अच्छा रहा था | न कभी उसे किसी ट्यूशन की ज़रूरत पड़ी, न ही उसने किसी को यह कहने का मौका दिया कि उसे पढ़ना चाहिए या ऐसे करना चाहिए,वैसा करना चाहिए | खैर कुछ बच्चे जन्म से ही ज़हीन होते हैं और माँ वीणापाणि की उन पर विशेष कृया होती है |
इंद्राणी उसी की छोटी बहन है और मणि की शिक्षा की यात्रा जितनी सुगम रही है उससे ठीक विपरीत छोटी बहन जी हैं | ऐसा नहीं है कि उसकी बुद्धि किसी भी प्रकार मणि से कम है, बस एक बात है कि वह अपनी ओर ध्यान देने की जगह दूसरों पर अधिक ध्यान देती है |
उसके कितने ट्यूशन बदलने पड़े लेकिन कोई भी अध्यापक उसे यह नहीं समझा सके कि वह अपनी बुद्धि का प्रयोग बेकार की बातों में न करके अपने काम के लिए करे | दूसरों की ताका-झाँकी करने में उसे बड़ा मज़ा आता | इससे उसका अपना काम बीच में पड़ा रह जाता और वह जितना ऊपर जा सकती थी, उससे कहीं नीचे ही ठिठक जाती |
"देखो इंद्राणी, हमारे पास उतना ही समय है जितना सबके पास होता है यानि दिन के चौबीस घंटे, उनमें तुम या तो दूसरों की बातों में झाँक लो या अपने ऊपर समय लगा लो | तुम्हें अपने सभी काम इन चौबीस घंटों में समेटने होते हैं | तुम ही सोचो हम दिन में उतना ही समय काम कर सकते हैं जितना संभव है | उसी समय में हमें अपने शरीर को आराम भी देना होता है और मस्तिष्क को भी --" मणि छोटी बहन को हमेशा सिखाती, समझाती लेकिन उसके ऊपर कोई प्रभाव ही न पड़ता |
"आप मेरी बात तो सुनो पहले ---" इंद्राणी ने बिलकुल छोटे बच्चे की तरह फिर से कहा |
"चलो, बोलो, ऐसी तो क्या बात हो गई ?" मणि जानती थी कि इंद्राणी जब तक उसे बता न देगी, उसके पेट में दर्द होता रहेगा और वह ठुनक ठुनक करती रहेगी |
"आज कविता को क्लास से बाहर निकाल दिया --"कहकर वह ज़ोर से हँसने लगी |
"तो तुम्हें क्या मिल गया इसमें ?"मणि ने बहन से पूछा |
इंद्राणी अब इतनी छोटी भी नहीं रह गई थी कि ऐसी बातों पर इस प्रकार रिएक्ट करे | उसकी इस वर्ष बारहवीं कक्षा थी और पूरा परिवार उसके लिए चिंतित था जबकि चिंता की ऐसी कोई बात नहीं थी क्योंकि परिवार के सभी बच्चे बड़े बुद्धिमान और अपने काम के प्रति गंभीर रहते थे |
"मुझे समझ में नहीं आता इंद्राणी कि तुम्हारा ध्यान अपने काम की ओर न रहकर दूसरों की ओर ही क्यों रहता है?" मणि उसकी इस बेकार की बात से इतना प्रोत्साहित होने से परेशान थी |
पड़ौस में एक मध्यमवर्गीय महिलाओं का ग्रुप बरामदों में बैठकर कभी स्वेटर बुनता, कभी मटर छीलता, कभी कोई हाथ का काम कढ़ाई आदि बैठकर करता रहता | इस घर की स्त्रियों को कभी भी उस ग्रुप के साथ बैठे हुए देखा नहीं गया था | न जाने इस लड़की को कैसे औरतों की बेकार की बातों में मज़ा आने लगा था | बारहवीं में थी, इतनी छोटी भी नहीं थी कि उसको ज़ोर से कुछ बोला जाता या उस पर हाथ उठाया जाता |
इन लड़कियों की मम्मी बहुत बार उन महिलाओं से कहतीं कि कृपया उनकी इंद्राणी को किसी न किसी बहाने से अपने पास न बैठाया करें लेकिन वे उल्टे उन्हें ही कहतीं कि इंद्राणी को ही शौक है बातें सुनने का, वह आकार बैठ जाती है तो वे उसे अपने पास से उठा तो नहीं सकती न ! जबकि वे उसे जैसे ही देखतीं पुकारने लगतीं | इस मामले में इंद्राणी अभी बच्ची थी, समझ ही नहीं पाती कि वे उसका समय बर्बाद करने के लिए उसे अपने पास बैठाती हैं | धीरे-धीरे इंद्राणी का ध्यान अपनी पढ़ाई में कम और इधर-उधर की बातों में अधिक लगता जा रहा था | जब यहाँ तक हो गया कि इंद्राणी किसी की बात सुनने के लिए तैयार ही नहीं हुई तब उसकी मम्मी-पापा ने उसे मनोवैज्ञानिक के पास ले जाना शुरू किया |
बात कुछ भी नहीं थी और बात बहुत बड़ी थी | बच्ची के पूरे भविष्य का प्रश्न था | इंद्राणी को लगा कि वह मानसिक बीमार तो नहीं है तब फिर उसके माता-पिता उसको मनोवैज्ञानिक के पास क्यों भेजते हैं ? वह अधिक नाराज़ रहने लगी | सौभाग्यवश इंद्राणी की मम्मी की मित्र ही थीं उसकी मनोवैज्ञानिक डॉक्टर | उन्होंने समझाया कि हर उम्र के कुछ टेंटर्म्स होते हैं और यदि कोई ऐसी कंपनी मिल जाए जो इस उम्र के लिए ठीक नहीं है तब वे बड़े होते हुए बच्चे के लिए, उसके व्यक्तित्व के लिए हानिकारक बन जाते हैं | इंद्राणी को भी बहुत से कारणों से बेकार की बातों में मज़ा आने लगा है और अगर उसकी कोई बात न सुने तो उसे गुस्सा भी अधिक आता है |
यह बहुत अच्छा हुआ कि इंद्राणी को यदि घर में किसी की बात समझ में नहीं आई तो अपनी मम्मी की डॉक्टर दोस्त की बात समझ में आने लगी | उसने उनके साथ खुद शेयर किया कि वे टाइम पास करती महिलाएं कभी उससे उसके परिवार के बारे में बातें करतीं, कभी उसके स्कूल में पढ़ने वाले ऐसे बच्चों के बारे में बातें करतीं जिनके परिवारों से वे किसी न किसी बात से चिढ़ती थीं और उन्हें इंद्राणी के रूप में एक मुहरा मिल गया था |
डॉक्टर ने इंद्राणी को समझाया था ;
"विचारों का प्रदूषण मिटाना किसी भी विज्ञान के लिए संभव नही है, उसे स्वयं ही मिटाना पड़ता है। हमारी आदत है कि किसी की बुराई सुनने में या किसी का तमाशा बनते देखने में हमें रस आने लगता है | यह विचारों में प्रदूषण आने का पहला संकेत होता है । बुराई को सुनना, बुराई को चुनने जैसा ही है, क्योंकि जब हम बुराई सुनना पसंद करते हैं तो बुराई का प्रवेश हमारे जीवन में अपनेआप होने लगता है। जो हम रोज सुनते हैं, देखते हैं, धीरे-धीरे हम भी वैसे ही होने लगते हैं। इसलिए उन लोगों से अवश्य सावधान रहने की ज़रूरत है जिन्हें दूसरों की बुराई करने का शौक हो। जैसा होगा संग, वैसा चढ़ेगा रंग।"
डॉक्टर की बात इंद्राणी ने पल्ले में बाँध ली थी और उसने उन स्त्रियों की पुकार पर ध्यान देने बंद कर दिया था | इसका परिणाम यह हुआ कि इंद्राणी का समय जो बेकार की बातों में खराब होता था, उसके अपने ऊपर खर्च होने लगा और उसने अपनी कक्षा में टॉप तो किया ही, परीक्षा देकर मैडिकल में प्रवेश ले लिया |
यूँ तो बच्चों का हर उम्र में ध्यान रखना ज़रूरी है लेकिन एक विशेष उम्र में उन्हें दिशा-निर्देश की बहुत आवश्यकता है | बच्चे हर परिवार में होते हैं, उनके स्वभाव भी अलग अलग होते हैं अत:यह बहुत आवश्यक है कि उन्हें सही समय पर सही दिशा-निर्देश दिया जाए |
आप सबका दिन शुभ एवं मंगलमय हो।
आपकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती