क्या तुमने - भाग - ४ Ratna Pandey द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • इंटरनेट वाला लव - 88

    आह में कहा हु. और टाई क्या हो रहा है. हितेश सर आप क्या बोल र...

  • सपनों की राख

    सपनों की राख एक ऐसी मार्मिक कहानी है, जो अंजलि की टूटे सपनों...

  • बदलाव

    ज़िन्दगी एक अनन्य हस्ती है, कभी लोगों के लिए खुशियों का सृजन...

  • तेरी मेरी यारी - 8

             (8)अगले दिन कबीर इंस्पेक्टर आकाश से मिलने पुलिस स्ट...

  • Mayor साब का प्लान

    "इस शहर मे कुत्तों को कौन सी सहूलियत चाहिए कौन सी नही, इस पर...

श्रेणी
शेयर करे

क्या तुमने - भाग - ४

मोहन के मन में शक की चिंगारी ऐसी भड़की कि उसने अपने घर में ही आग लगा दी।

बसंती जब भी गोविंद से बात करती, मोहन को बिल्कुल पसंद नहीं आता। वह धीरे-धीरे उन दोनों के ऊपर शक करने लगा। गोविंद तो बसंती को अपनी छोटी बहन ही समझता था। कभी-कभी हंसी मज़ाक भी कर लेता था। वह सपने में भी ऐसा नहीं सोच सकता था कि उसके भाई की सोच इतनी मैली है। बसंती भी गोविंद को अपने बड़े भाई की तरह ही मानती थी।

उसे पढ़ने का बहुत शौक था, पर वह पढ़ नहीं पाई थी। इसलिए वह कई बार गोविंद से कहती, “भैया मुझे थोड़ा बहुत पढ़ना सिखा दो, थोड़ा हिसाब किताब करना भी सिखा दो। मोहन से कहती हूँ पर वह सुनता ही नहीं। कहता है क्या करेगी अब पढ़ कर।”

गोविंद ने कहा, “ठीक है बसंती यह तो बहुत ही अच्छी बात है। जब मैं दुकान से वापस आता हूँ, तब थोड़ी देर मेरे पास बैठा कर, मैं तुझे पढ़ना ज़रूर सिखाऊंगा।”

“ठीक है भैया।”

इस तरह बसंती रोज़ ही गोविंद के साथ बैठकर पढ़ाई करती। गोविंद हर रोज़ दुकान से पहले घर आ जाता था और मोहन कुछ समय बाद दुकान बंद करके फिर आता था। ऐसा वह पहले से ही करते थे लेकिन अब मोहन जब भी घर आता, बसंती को गोविंद के पास बैठा देख जल जाता, जबकि घर में सब मौजूद रहते थे। धीरे-धीरे मोहन की ईर्ष्या बढ़ती ही जा रही थीं। वह चुपचाप ज़रूर रहता लेकिन उसके अंदर एक तूफान उठा हुआ था। शक का ज़हरीला कीड़ा धीरे-धीरे उसके ऊपर हावी होता ही जा रहा था।

आखिरकार एक दिन दुकान से निकलकर उसने ख़ूब शराब पी ली और फिर घर आकर उसने अपने पूरे परिवार के सामने बसंती जो उस समय गोविंद के साथ बैठकर पढ़ रही थी, उसके बालों को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर ज़ोर से खींचते हुए कहा, “कुलटा है तू, शर्म नहीं आती तुम दोनों को, मेरी आँखों में धूल झोंकते हो। पढ़ाई के बहाने यहाँ क्या-क्या चलता है, क्या मुझे समझता नहीं है। मैं सब जानता हूँ, तुम दोनों क्या गुल खिला रहे हो।”

गोविंद को काटो तो खून नहीं, वह सदमे में आ गया कि मोहन यह क्या बोल रहा है।

जयंती ने भी मोहन के ऊपर नाराज होते हुए कहा, “मोहन भैया ये क्या कह रहे हो, तुम होश में नहीं हो।”

जयंती को भाभी कहकर पुकारने वाला मोहन चिढ़ कर बोला, “हट दूर जा जयंती, मैं होश में ही हूँ। तू काली कलूटी और ये मेरी बीवी खूबसूरती की मूरत, जिस पर तेरे मर्द का दिल आ गया है। तुझे नहीं मालूम, तू बहुत भोली है रे।”

गोविंद के माता-पिता का गुस्सा सातवें आसमान पर था।

तभी गोविंद की माँ माया गुस्से में तिलमिलाती हुई उठीं और उठकर मोहन के गाल पर तीन-चार चांटे लगातार लगाते हुए कहा, “शर्म आनी चाहिए तुझे। कितनी मैली सोच है तेरी। अरे तेरी हैसियत से ज़्यादा अच्छी लड़की मिल गई है तो तुझे वह हजम नहीं हो रहा है। अपनी कमजोरी छिपाने के लिए उस पर हावी हो रहा है।” 

गोविंद ने अपनी माँ को चुप कराते हुए कहा, "माँ रहने दो वह नशे में है इसलिए बिना सोचे समझे कुछ भी बक रहा है।”

गोविंद ने किसी तरह से मामले को शांत कराया। सब अपने-अपने कमरे में चले गए। बसंती बहुत डर रही थी कि कहीं कमरे में जाकर मोहन उसे मारे ना। लेकिन कमरे में पहुँचते-पहुँचते मोहन बड़बड़ करता रहा और फिर पलंग पर गिर कर सो गया।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

स्वरचित और मौलिक

क्रमशः