हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 48 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 48

श्रीगिरिराज की परिक्रमा
तीर्थ यात्रा के बाद भाई जी अस्वस्थ हो गये थे। स्वास्थ्य लाभ के लिये भाईजी मार्गशीर्ष कृष्ण 5 सं० 2013 (22 नवम्बर, 1956) को गोरखपुर से रवाना होकर रतनगढ़ गये। वहाँ अधिक समय एकान्तमें कमरा बन्द किये रहते थे। वही से माघ शुक्ल 10 एवं 11 सं० 2014 (10-11 फरवरी 1957) को श्रीगिरिराज की परिक्रमा करने गये। साथमें परिवार के सदस्यों के अतिरिक्त प्रेमीजन भी गये। दो दिनमें श्रीगिरिराज की परिक्रमा सानन्द उत्साह पूर्वक सम्पन्न हुई। वहाँ से श्रीराधाजीके दर्शन करने बरसाना भी गये। बैशाख कृष्ण 10 सं० 2015 (13 अप्रैल, 1958) को रतनगढ़ लौट आये।

श्रीघनश्यामदासजी जालान का देहावसान
यद्यपि भाईजी पूर्ण स्वस्थ नहीं हुए थे परन्तु श्रीघनश्यामदासजी जालानके अधिक रुग्ण हो जानेसे श्रीसेठजीके अत्यधिक आग्रहके कारण ज्येष्ठ शुक्ल 2 सं० 2015 (20 मई 1958) को गोरखपुरसे रवाना होकर स्वर्गाश्रम गये। इन्होंने गीताप्रेस के उत्थानके लिये आजीवन अथक परिश्रम किया एवं जीवनपर्यन्त गीताप्रेस के मुद्रक एवं प्रकाशक बने रहे। ज्येष्ठ शुक्ल 6 सं० 2015 (24 मई 1958) को स्वर्गाश्रममें गीताभवनके गंगाघाटपर श्रीसेठजी एवं भाईजीके सन्निध्यमें संकीर्तन के मध्य इन्होंने अपना देह त्याग किया। इनके बाद मुद्रक एवं प्रकाशककी जिम्मेवारी भी भाईजी को सौंपी गयी।

आध्यात्मिक स्थिति के संकेत
किसी भी संत के आध्यात्मिक जीवन के बारेमें कुछ भी लिखना अनाधिकार चेष्टा करना है। प्रथम तो आध्यात्मिक स्थिति स्वसंवेद्य होती है, दूसरा कोई उसे जान भी नहीं सकता। ये बातें तभी हृदयंगम हो सकती हैं जब भगवान् की कृपासे उस साधनावस्थामें कोई पहुँच सके। फिर भाईजीके बारेमें कुछ शब्दबद्ध करना और भी कठिन है, क्योंकि उनके माध्यमसे भगवान्ने जो लीला प्रस्तुत की, वह एक उच्चकोटि के आचार्य, सन्त और व्रजभाव के सर्वोच्च सन्तका एक अद्भुत समन्वय था, जो प्रायः देखनेमें नहीं आता। भाईजी ने कभी-कभी कतिपय एकनिष्ठ प्रेमीजनोंके समक्ष कुछ संकेत किये थे, उन्हीं को शब्दबद्ध करनेकी यह अनाधिकार चेष्टा मात्र है।

भाईजीकी प्रारम्भिक साधना श्रीसेठजी से अधिक प्रभावित थी। श्रीसेठजी अधिकांश श्रीविष्णुभगवान् के ध्यान या निर्गुण-निराकारके स्वरूपका वर्णन करते थे। उसी अनुसार शिमलापालमें भाईजीने साधना प्रारम्भ की तो रवि वर्माके चित्रके आधारपर श्रीविष्णुभगवान्‌का ध्यान करने लगे और लगभग छः महीनेमें ही चलते-फिरते, उठते-बैठते श्रीविष्णुभगवान् का विग्रह सामने रहने लगा। इसे भाईजी कोई सिद्धि नहीं मानते थे, अभ्यास की प्रगाढ़ता मानते थे। फिर बम्बईमें जब साधना प्रारम्भ हुई तो निर्गुण-निराकार की उच्च स्थिति प्राप्त की और बीचमें श्रीराम के दर्शन हुए। फिर सं० 1984 (सन् 1927) में 'भगवन्नामांक' निकलनेके एक दो महीने पहले अपने आप अव्यक्त के स्थान पर श्रीविष्णुभगवान्‌ का ध्यान होने लगा। उनकी मान्यता थी जो अव्यक्त है, वही व्यक्त है; जो निर्गुण-निराकार है, वही सगुण साकार है। इसके पश्चात् भगवान्‌ के दर्शनोंकी तीव्र उत्कण्ठा होनेपर आश्विन सं० 1984 (सितम्बर 1927) में जसीडीहमें भगवान् विष्णु के साक्षात् दर्शन बहुत व्यक्तियोंके सामने हुए, यह एक आध्यात्मिक जगत् की सुदुर्लभ घटना थी जो किसी भी तरह गुप्त नहीं रखी जा सकती थी। ये दर्शन त्रिदेवों (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में सर्वोच्च एक देव के दर्शन थे, अवतारी महाविष्णु के नहीं थे। कुछ समय बाद अवतारी महाविष्णु के दर्शन हुए। इसका रहस्य श्रीकृष्ण ने बादमें खोला, तब पता लगा सं० 1988 ( सन् 1931) में 'श्रीकृष्णांक' निकालनेकी तैयारी के समय श्रीकृष्ण की लीलाओं का गम्भीर चिन्तन, अनुशीलन हुआ गौड़ीय सम्प्रदाय के कुछ भक्तिपरक ग्रन्थों का भी अध्ययन हुआ। फलस्वरूप भगवान् की लीला देखने की लालसा का प्रादुर्भाव हुआ। संस्कार तो बम्बई में श्रीमद्भागवत के स्वाध्याय के समयसे ही थे। इन्हें ऐसा भान हुआ कि भगवान् कह रहे हैं 'मेरे विष्णुरूपमें तो दो ही प्रकारकी लीला होती है—अवतार लीला या वैकुण्ठकी नित्य लीला। लीला सर्वोच्च रूपमें और पूर्णरूपमें हुई है––श्रीकृष्ण स्वरूपमें। तुमको श्रीकृष्ण स्वरूपका अनुभव होने लगेगा।' उस रातको भाईजीके मनमें बड़ा आनन्द रहा और स्वप्नमें श्रीकृष्ण के दर्शन हुए। पहले गीतावक्ता के दर्शन हुए पीछे वृन्दावन विहारी श्रीकृष्ण के। उसी समय ऐसा भान हुआ कि वे कह रहे हैं-- 'जो गीतावक्त हैं, वे ही वृन्दावन विहारी हैं। इनकी तुमपर बड़ी कृपा है। इन्होंने तुम्हें अपना लिया है। इनकी लीला अब तुम्हें देखने को मिलेगी।' दूसरे दिन भगवान् विष्णु के ध्यान के समय अपने आप वृन्दावन विहारी श्रीकृष्ण का ध्यान होने लगा। ध्यान होते-होते वृन्दावन की लीलाओं के दर्शन भी होने लगे। एक बार भाईजी ने बताया था कि ‘बाहरसे जीवनको साधारण रखनेकी प्रेरणा तो जसीडीह के बादसे ही हो गई थी किन्तु स्पष्ट आदेश तो श्रीकृष्ण ने ही दिया। इसीलिये आप याद करके देखेंगे तो सं० 1984 से सं० 1988 ( सन् 1927-31) के मध्य जीवनमें गम्भीरता अधिक थी। लीलाओंके दर्शन होते-होते लीलामें प्रवेश भी होने लग गया। इस सम्बन्धमें उन्होंने बताया-- 'लीलामें प्रवेश होता है इसमें मेरी इच्छा की प्रधानतासे नहीं होता। जब वे चाहते हैं, तब सहसा लीलामें मुझे खींचकर सम्मिलित कर लेते हैं। मेरे चाहनेसे न तो मैं ही जा सकता हूँ, न किसी दूसरेको ले जा सकता हूँ। वहाँ इस शरीरसे नहीं जा सकता। चार-चार पाँच-पाँच घण्टे वहाँ की लीलाओं को देखने का सुअवसर मिलता है। यह बात लगभग सं० 1994 (सन् 1937) की है। 'कल्याण के सम्पादन और अन्य सेवा कार्यों में अत्यन्त व्यस्त रहते हुए भी उस दिव्य लीला-राज्यमें रहते थे। फिर दादरी एकान्त सेवन के लिये गये थे, उस समय वे राधा-कृष्णकी मधुर लीलाओंमें प्रवृष्ट रहते थे। लगभग सं० 1937 (सन् 1940) में एक महात्माको मीराबाई के साक्षात् दर्शन हुए। उन्होंने उनसे कई प्रश्न किये और भाईजी की स्थिति के बारेमें प्रश्न किया तो मीराबाई ने उत्तर दिया कि हनुमानप्रसाद का सूक्ष्म शरीर बिलकुल श्रीप्रियाजी का स्वरूप हो गया है। इस बातपर पूरा विश्वास करना या न करना अपने-अपने अन्तःकरण की स्थिति पर निर्भर है। पर भाईजी ने इस स्थिति को बहुत वर्षो तक बाहर के जीवनमें प्रकट नहीं होने दिया। सं० 2018 (सन् 1961) के पश्चात् जब भाईजी न चाहनेपर भी घण्टों तक बाह्य-चेतना शून्य रहने लगे, जिसे 'भाव-समाधि' की संज्ञा दी गयी, तब लोगों को किंचित् आभास होने लगा। इस स्थिति का विवेचन शब्दोंमें संभव नहीं है। नारदजी ने प्रेमका स्वरूप बताया है—'अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम्' 'मूकास्वादनवत्'। इस स्थितिका संकेत करने के लिए 'भाव-समाधि', 'भागवती-स्थिति', 'महाभावमयी-स्थिति, 'स्वरूप-स्थिति', 'दिव्य प्रेम राज्यमें स्थिति आदि किसी भी शब्द का व्यवहार किया जा सकता है। भाईजी को यह स्थिति संभवतः सं० 1998 (सन् 1941) तक प्राप्त हो गयी थी, पर इसके कुछ बाहरी लक्षण सं० 2018 (सन् 1961) के बाद प्रकाशमें आने लगे। यह तो भाईजी के अन्तर्राज्य की बात थी, बाह्यमें तो भगवान् को उनके द्वारा अध्यात्म जगत् की अभूतपूर्व सेवा करानी थी इसलिये सभी प्रधान-प्रधान स्वरूपोंकी, श्रीराम, श्रीशिव, शक्ति आदि की अनुभूति भी करायी। सं० 1990 में रतनगढ़में जब भाईजी 'शिवांक' की तैयारी कर रहे थे, तब भगवान् शंकर दिखायी दिये और देखते-देखते विष्णु हो गये और विष्णु से फिर शिव हो गये तथा हँसते रहे दोनों रूपोंमें। इसी प्रकार जब 'शक्ति–अंक' की तैयारी कर रहे थे उन दिनों भाईजी को शक्ति-तत्त्व की कृपा प्राप्त हुई थी। यही बात अन्य स्वरूपों के सम्बन्धमें है। इस तरह देह तो इस लोकमें कालक्षेप करता रहा और वे स्वयं आराध्य के माधुर्य-रसमें लीन रहे।