हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 42 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • स्वयंवधू - 31

    विनाशकारी जन्मदिन भाग 4दाहिने हाथ ज़ंजीर ने वो काली तरल महाश...

  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

श्रेणी
शेयर करे

हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 42

श्रीरियाज अहमद अन्सारी को आत्म हत्या करने से बचाया तीसरी घटना तो अति विचित्र है। एक मुसलमान भाई ने परिस्थितिवश आत्म हत्या करने का निर्णय कर लिया। उसने किसी को भी इसका पता नहीं लगने दिया। कैसे श्रीभाईजी को इसका पता लगा यह एक गूढ़ रहस्य ही रह गया। पता नहीं और ऐसी कितनी गुप्त घटनाएँ होगी इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। इस घटना का पता तो तब लगा जब श्रीअन्सारी ने स्वयं इसका रहस्य खोला।

श्रीराम जन्मभूमि-मन्दिर अयोध्या के विषयमें श्रीअन्सारी के विचार समाचार-पत्रमें पढ़कर भाईजी ने इन्हें मिलनेके लिये बुलाया था। उसी समयसे इनका परिचय भाईजी से बढ़ने लगा एवं कई बार भाईजी से मिले। कुछ कारण वश ये अत्यन्त आर्थिक कठिनाई का सामना करने लगे। किन्तु भाईजी के समक्ष इन्होंने अपने कष्ट को कभी नहीं रखा। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि घरमें खाने के लिये कुछ नहीं बचा। इनके घर लगातार तीन दिनों तक भोजन नहीं बना। इनका शरीर कमजोर हो गया और बीमार जैसे प्रतीत होने लगे। घरमें दो बच्चों से छोटी लड़की शहेदा, जिसकी उम्र चार साल की थी, भूख से बहुत रोने लगी। घरका दृश्य देखकर और विशेषतया बच्ची को भूख से रोता देखकर इनकी सहनशक्ति समाप्त हो गयी। बहुत सोच-विचारकर इन्होंने आने वाली रात्रि में आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया और कोई उपाय न देखकर अपने निश्चय के पश्चात् बिस्तरपर लेट गये, दिन के लगभग १० बजे थे। अचानक किसी ने दरवाजा खटखटाया। वे उठकर बाहर आये तो देखा सड़कपर मोटर के निकट भाईजी खड़े हैं। इन्होंने भीतर आनेकी प्रार्थना की और भाईजी भीतर एक कुर्सी पर बैठ गये। भाईजीने मुस्कुराते हुए कहा- “भाई साहब, आप तो बीमारसे लगते हैं.” अब ये क्या उत्तर देते कि बीमारी तो कुछ और है तीन दिनोंसे पानीके अलावा कुछ खाने को नहीं मिला उसीके फलस्वरूप यह हालत हो गयी है। अतः केवल इतना ही बोले- “जी” भाईजी ने तत्काल पूछा “क्या तकलीफ है आपको ? कौन-सी बीमारी है ?” श्रीअन्सारीने कुछ उत्तर नहीं दिया, चुप रहे। उन्हें चुप देखकर भाईजी आश्वासन देते हुए बोले- “भाईसाहब ! यह संसार दुःखालय ही है। यहाँ सभी को दुःख सहने पड़ते हैं और सच्चे लोगोपर तो और भी कष्ट आते हैं, इसलिये कि भगवान उनकी परीक्षा लेते है।” भाईजीकी बातोंका उनपर कोई विशेष असर नहीं हुआ, क्योंकि आनेवाली रातमें वे आत्म-हत्याका निर्णय कर चुके थे और उसके पश्चात् वे सभी दुःखोंसे छूटने की कल्पनामें लीन थे। उन्होंने कोई उत्तर न देकर केवल सिर हिला दिये, मानो भाईजीकी बातोंका समर्थन कर रहे हों। बातें करते हुए भाईजी ने एक लिफाफा उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा- “आपको इसकी जरूरत है, इसे रख लीजिये। अस्वीकार करनेसे मुझे दुःख होगा। शीघ्र ही मैं आपके व्यवसाय के लिये रुपयोंकी व्यवस्था करनेकी चेष्टा करूँगा।” वे बोले- “भाईजी आपके इन एहसानोंका बदला मैं कैसे चुका सकूँगा ?” भाईजीने उत्तर दिया- “कैसा एहसान, कैसा बदला ? मैं यही चाहता हूँ कि आपको आराम हो जाय एक प्रार्थना और है आपने आनेवाली रातमें अपने जीवनके साथ जो करनेका निश्चय किया है, वह ठीक नहीं है। जीवन भगवान् का दिया हुआ है और उसे समाप्त करनेका अधिकार उन्हींको है। आप अपने निश्चयको छोड़ दीजिये।” उन्हें लगा मानो बिजली गिर पड़ी। उन्होंने अपने निश्चयके सम्बन्ध में किसीको भी नहीं कहा था फिर भाईजी को कैसे पता लगा अवश्य ही उनमें कोई दिव्य शक्ति है। वे उठ खड़े हुए और बोले- “भाईजी! आप इन्सान नहीं फरिश्ता हैं। आपको मेरे इरादे का कैसे पता चला ? भाईजीने उत्तर दिया “आपके मनमें जो बात आई, उसकी स्फुरणा मेरे मनमें हो गयी। मुझे आज्ञा दीजिये, फिर मिलेंगे।” भाईजी हँसने लगे।

भाईजीके जानेके बाद उन्होंने लिफाफा खोलकर देखा तो सौ-सौ के बीस नोट। कुछ देर पहले जिसके पास दो रुपये नहीं थे उसके पास दो हजार रुपये आने से कितनी प्रसन्नता हुई होगी इसकी हम लोग कल्पना कर सकते हैं। उस समय वे दो हजार उनके लिये दो करोड़ से भी अधिक थे। लगभग बीस दिनों बाद भाईजी ने आठ हजार रुपये और उन्हें दिये और कहा कि इन्हें लौटाने की जरूरत नहीं है। हैंडलूमसे कपड़े बनवाना उनका पैतृक व्यवसाय था और वे उसमें लगकर आनन्द पूर्वक अपने परिवार का भरण-पोषण करते हुए जीवन व्यतीत करने लगे।

साधन-समिति का पुनर्गठन

अयोध्या से गोरखपुर लौटकर माघ कृष्ण 3 सं० 2006 (7 जनवरी, 1950) को भाईजी ने श्रीशुकदेव जी आदि कई साधकों का विशेष उत्साह देखकर साधन-समिति का पुनः संगठन किया। पालन के लिये नियम बनाये गये जिसे सदस्योंने उत्साहपूर्वक पालन करना स्वीकार किया। भाईजी के लिये तो यह प्रिय कार्य था क्योंकि वे अपने निकट रहनेवालों का जीवन सदा ही साधनमें कटिबद्ध देखना चाहते थे। साधकों के उत्साहवर्धन के लिये रात्रिमें गीताप्रेस जाकर सत्संग कराना स्वीकार किया। रास्तेमें आते-जाते समय 'हरे राम' मन्त्र का कीर्तन उच्च-स्वर से करते रहते। बहुत दिनों तक यह क्रम उत्साहपूर्वक चलता रहा। भाईजी साधकों से नियमोंके पालन के सम्बन्धमें पूछ-ताछ करते और उनका उत्साह बढ़ाते रहते।