हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 32 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 32


आर्थिक व्यवस्था

बहुत लोगों के मनमें एक जिज्ञासा बनी हुई है कि भाईजी का खर्च कैसे चलता था। व्यापार तो उन्होंने ३५ वर्षों की उम्र में छोड़ दिया था, बड़ी पूँजी उनके पास थी नहीं, फिर खर्च की क्या व्यवस्था थी। कई लोगों को तो यह भ्रम था कि भाईजी अपना खर्च कल्याण से चलाते हैं। एक दिन भाईजी के एक परिचित सज्जन आये और बातें करते हुए पूछने लगे कि 'कल्याण' से कितने रुपये बच जाते हैं। भाईजी ने उन्हें समझाया कि कल्याण में प्रायः नुकसान ही रहता है या बराबर-सा हो जाता है। उन्होंने कहा कि यह सब तो ठीक है मैं तो घर की बात पूछ रहा हूँ। उनके यह समझमें नहीं आ रहा था कि बिना मुनाफे के इतना परिश्रम कोई क्यों करेगा ? भाईजी ने फिर समझाया कि मैं 'कल्याण' से एक भी पैसा नहीं लेता हूँ और 'कल्याण' पैसा कमाने की दृष्टि से नहीं निकाला जाता है। उनके यह बात समझमें आयी या नहीं, परन्तु भाईजी का 'कल्याण' से या गीताप्रेस से किञ्चित भी अर्थोपार्जन का सम्बन्ध नहीं था, यह बात निर्विवाद है। यहाँ तक कि जिस वाटिकामें वे गोरखपुरमें रहते थे, वह सेठजी और उनके एक सम्बन्धी ने खरीदी थी, बादमें उसे उन्होंने उस ट्रस्ट को दे दिया जो गीताप्रेस का संचालन करता था। ट्रस्टमें देने के बाद भाईजी अपने रहने के हिस्से का किराया तक गीताप्रेस को देने लग गये थे। जब भाईजी बम्बई छोड़कर गोरखपुर आये थे, उस समय एक स्नेही सज्जन ने इनकी माता और पत्नी के नामसे बीस हजार रुपये जमा कर दिये थे, उसी के ब्याज से परिवार का खर्च चलता था। मितव्ययता भाईजी के जीवनमें बचपन से ही थी। अपने शरीर पर अन्त तक उन्होंने अनावश्यक खर्च नहीं होने दिया। परिवारके नये सदस्योंपर परिवर्तित समयकी झलक थी भाईजी ने अपने वसीयतनामे में इस सम्बन्धमें लिखा है–

“..पर भगवान्‌ की कृपासे किसी भी मित्र से कभी आर्थिक सम्पर्क नहीं आया। आर्थिक सम्पर्क केवल एक उस परिवार और सहज व्यक्ति से रहा जो अपनेमें तथा मुझमें स्व-पर का भेद सहज ही नहीं मानता। वरन् ऐसी कल्पना से भी जिसे दुःख होता है।”

श्रीभगवन्नाम प्रचार-की तृतीय योजना

भगवान्‌के आदेशानुसार भाईजी जहाँ भी अधिक दिन रहते श्रीभगवन्नामके प्रचारके आयोजन प्रारम्भ कर देते। दादरीसे आनेके बाद इस बार रतनगढमें कुछ दिन रहनेका मन था, अतः यहाँ भी अपने प्रिय कार्य में लग गये। सर्वप्रथम मार्गशीर्ष शुक्ल 15 सं० 1996 (26 दिसम्बर, 1939) से सात दिनोंका अखण्ड-संकीर्तन एंव कथाका आयोजन बड़ी उमंगसे प्रारम्भ किया बाहरसे बहुत से लोग आये, कई संत भी पधारे। दोपहरमें कथाका आयोजन होता एवं रात्रिमें भाईजी सत्संग कराते थे। रतनगढ़में इसी तरह अखण्ड-संकीर्तनके और आयोजन भी भाद्र कृष्ण 10 सं० 1997 (28 अगस्त 1940) कार्तिक शुक्ल 10 सं० 1997 (9 नवम्बर, 1940) एवं फाल्गुन कृष्ण 5 सं० 1997 (16 फरवरी, 1941) से आरम्भ हुए थे। विस्तार भयसे सबका विस्तृत वर्णन यहाँ सम्भव नहीं है। फाल्गुन कृष्ण 14 सं० 1967 (25 फरवरी, 1941) शिवरात्रिके दिनसे भाईजीके निवास स्थानपर सत्रह दिनोंके लिये अखण्ड-संकीर्तन प्रारम्भ

हुआ। चैतन्य जयन्तीतक यह आयोजन चलनेकी बात थी, परन्तु भगवानकी विशेष कृपासे यह अखण्ड-संकीर्तन दो वर्षसे अधिक समयतक दिन-रात चलता रहा। फिर बैसाख सं० 2000 (अप्रैल 1943) से श्रावण सं० 2001 (जुलाई 1944) तक प्रातः छः बजेसे रात्रिके ग्यारह बजेतक सत्रह घंटे चलता रहा। इसी बीच फाल्गुन कृष्ण पक्ष सं० 1999 (फरवरी-मार्च 1943) में श्रीप्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी एवं श्रीहरिबाबा रतनगढ़ पधारे। भाईजीका उत्साह और बढ़ गया एवं सत्रह दिनोंका विशाल महासंकीर्तन एवं सन्त-समारोह आयोजन करनेका निश्चित हुआ। उस समय दूसरे महायुद्धके कारण बंगाल एवं आसाममें बहुत मारवाड़ी अपने-अपने घर रतनगढ़ आये हुए थे। ऐसा अवसर भगवन्नाम-प्रचारके लिये विशेष उपयुक्त था। इसका थोड़ा-सा वर्णन श्रीप्रभुदत्तजी ब्रह्मचारीके शब्दोंमें पढ़ें:

“मैं भाईजी से मिलने उनके पैतृक स्थान रतनगढ़ गया था। मुझसे बोले: कुछ दिन रतनगढ़ रहिये। मैंने कहा: क्या रहें। तुम्हारे यहाँ इतने सेठ लोग हैं, कोई उत्सव नहीं कराते। वे बड़े ही उत्साह के साथ धीरे-धीरे गम्भीर भावसे बोले: जब चाहें, जैसा चाहें, उत्सव कराइये। मैंने कहा: इस वर्ष नव-संवत्सर उत्सव तो हमें मुजफ्फरनगरमें करना है, फिर कभी देखा जायगा। वे बोले: शुभस्य शीघ्रम् । नव संवत्सर उत्सव यहीं कीजिये। या पन्द्रह दिन यहाँ, पन्द्रह दिन मुजफ्फरनगरमें तुरंत निश्चय हुआ और उनके सकल्प से रतनगढ़ का उत्सव इतना भारी सफल हुआ कि मारवाड़ के सभी लोग कहते थे कि ऐसा उत्सव 'न भूतो न भविष्यति।' बड़े-बड़े धनिकों के बच्चे, जिनमें कई करोड़पति भी थे, दर्शकों के जूते उठाने से लेकर झाडू देना, पंखा झलना आदि छोटी-से-छोटी सेवा करने को सर्वथा प्रस्तुत रहते थे। धनिक समाज पर कितना भारी उनका प्रभाव था, यह दृश्य मैंने पन्द्रह दिन रतनगढ़ रहकर ही देखा। उन दिनों द्वितीय महायुद्ध के कारण अधिकांश मारवाड़ी सेठ कलकत्ता छोड़कर अपने प्रान्तों में आ गये थे। वे भाईजी को प्राणोंसे अधिक प्यार करते और भाईजी उन सुकुमार किशोर बच्चों के कंधों पर हाथ रखकर जैसे अत्यन्त स्नेहशील पिता अपने प्यारे पुत्रों से बात करता है वैसे उन्हें छोटी-से-छोटी, नीची-से-नीची सेवा के लिये आज्ञा देते और वे करोड़पति-लखपतियों के सुकुमार बड़े उल्लास के साथ उन आज्ञाओं का पालन करते। भाईजी जिसे आज्ञा दे दें, वह उसमें अपना बड़ा सौभाग्य समझता।

हँसमुख इतने थे कि बात-बात पर हँसते रहते। मेरी जिस बात को देखते उसी पर ठहाका मारकर हँस पड़ते। रतनगढ़में शोभा-यात्रा निकली। मरुभूमि होने से ऊँट बहुत है। मैं ऊँटपर उल्टा बैठकर नगर कीर्तन में निकला। मेरा मुख ऊँट के पूँछ की ओर था। मार्गभर मुझे देखकर खिलखिलाकर हँसते ही गये........।”

श्रीब्रह्मचारीजी ऊँटपर उल्टा इसलिये बैठे थे कि जिससे वे शोभा-यात्राकी भव्यता और विशालताको देख सकें। उनका ऊँट स्टेशनसे चलकर रेलवे पुलतक आ गया, परन्तु वे जुलूस का दूसरा किनारा नहीं देख षके। जुलूसमें कई कीर्तन मण्डलियाँ, भगवान् राम की झाँकियाँ, श्रीकृष्णलीला की झाँकियाँ, बाजे आदि थे। स्थान-स्थान से महान् सन्त, भक्त पधारे, भागवत तथा मानस के श्रेष्ठ कथाकार भी पधारे। भाईजी की हवेली के पीछे वाले नोहरेमें ही सन्त-सम्मेलन की व्यवस्था की गयी थी। दैनिक कार्यक्रम इस प्रकार रहता–
प्रातः – 5 बजे से 6 बजे तक – पू० श्रीहरिबाबाका सामूहिक संकीर्तन

दिनमें – 6 बजे से 6 बजे तक – श्रीरामचरितमानस का आगे-पीछे बोलकर सामूहिक परायण

6 बजे से 11 बजे तक – वृन्दावन से आयी हुई रासमण्डली द्वारा श्रीकृष्णलीला का आयोजन

11 बजे से 12 बजे तक – पूज्य श्रीहरिबाबा का सामूहिक संकीर्तन

2 बजे से 6 बजेतक – कथा प्रवचन आदि

साय – 7 बजे से 8 बजे तक – पूज्य श्रीहरिबाबा का सामूहिक संकीर्तन

रात्रि – 8 बजे से 11 बजे तक – वृन्दावन से आयी हुई रास-मण्डली द्वारा श्रीचैतन्यलीला का आयोजन

इस सन्त सम्मेलन के दर्शन के लिये सैकड़ों मील दूर से लोग आये। बहुत से लोग पूरे समय तक रहे। श्रीरामानुजसम्प्रदाय के श्रीरघुनाथदास जी, जो वृन्दावन के श्रीरंगजी के मन्दिर के प्रधान थे अपने भावावेश की स्थितिमें श्रीजयदेव विरचित श्रीदशावतार स्तोत्रम्‌का गायन करते। वे स्वयं तो भाव-सागरमें डूबते ही रहते, भक्त समुदायको भी डुबा देते। समारोह की समाप्तिपर भाईजीने सभी संतों-महात्माओं को भाव-भीनी विदाई दी। सभी अपने हृदय पर इस आयोजन की अमिट छाप लेकर लौटे। चैत्र शुक्ल 5 सं० 2000 (6 अप्रैल, 1943) मासमें बृहद् विष्णु-यज्ञ आयोजित हुआ। इसमें भी बाहर से कई लोग पधारे।