Dhanika - Madhu Chaturvedi books and stories free download online pdf in Hindi

धनिका - मधु चतुर्वेदी

आज भी हमारे समाज में आम मान्यता के तहत लड़कियों की बनिस्बत लड़कों को इसलिए तरजीह दी जाती है कि लड़कियों ने तो मोटा दहेज ले शादी के बाद दूसरे घर चले जाना है जबकि लड़कों ने परिवार के साथ आर्थिक एवं सामाजिक स्तर पर साथ खड़े रह उनकी वंशबेल को और अधिक विस्तृत एवं व्यापक कर आगे बढ़ाना है। लड़की की शादी में मोटा दहेज देने जैसी कुप्रथा से तंग आ कर बहुत से परिवारों में लड़की के जन्मते ही या फिर उसके भ्रूण रूप में ही उसे खत्म कर देने का चलन चल निकला।

दोस्तों..आज इस सामाजिक मुद्दे से जुड़ी बातें इसलिए कि आज मैं इसी विषय से जुड़े एक ऐसे उपन्यास की यहाँ बात करने जा रहा हूँ जिसे 'धनिका' के नाम से लिखा है मधु चतुर्वेदी ने।

इस उपन्यास के मूल में एक तरफ़ कहानी है एक ऐसी माँ की जिसे अपनी पूरी ज़िन्दगी इस बात का मलाल रहा कि उसका पूरा जीवन बच्चे पैदा करने और उनके लालन-पोषण में ही गुज़र गया। दूसरी तरफ इस उपन्यास में कहानी है घर के कामकाज में निपुण उस धनिका की जो अपने तमाम गुणों के बावजूद महज़ इस वजह से अपनी दादी की तारीफ़ को तरसती रही कि उसकी माँ ने बेटियाँ क्यों जनी हैं।

मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि की इर्दगिर्द बने गए इस उपन्यास में कहीं कोई अपनी पत्नी के जीवित होने के बावजूद उसी घर में उसी की छोटी बहन को उसकी सौतन के रूप में ब्याह के ले आता है कि बड़ी बहन बच्चे पैदा करने में सक्षम नहीं। तो कहीं कोई नौकरीपेशा मध्यमवर्गीय जीव वाजिब दामों पर मौसमी फल व सब्ज़ियाँ पा कर अथवा किसी सरकारी काम के बिना रिश्वत दिए ही पूरे हो जाने पर या बॉस के मुँह से तारीफ़ के दो बोल सुन लेने पर ही परम संतोष अनुभव करता दिखाई देता है।

इसी उपन्यास में कहीं कोई अपनी सास से इस वजह से नफ़रत करती दिखाई देती है कि उसने कोई बेटी नहीं बल्कि सब बेटे ही जने हैं। इसी उपन्यास में कहीं कोई किसी की बेवफ़ाई से आहत हो कर भी हर समय उसकी वापसी की बाट जोहता दिखाई देता है।

इसी उपन्यास में कहीं चार-चार बेटियों का ग़रीब पिता अपनी बेटियों के ब्याह के लिए होने वाले समधियों के आगे गिड़गिड़ाता..चिरौरी करता नज़र आता है। तो कहीं कोई दहेज लोलुप पिता अपने पढ़े-लिखे इंजीनियर बेटे को ऊँचे दामों में बेचने का प्रयास करता दिखाई देता है। इस उपन्यास में कहीं कॉलेज लाइफ को ले कर कोई लड़की रोमानी ख्वाबों में इस हद तक डूबी दिखाई देती है कि असलियत से रु-ब-रु ही नहीं होना चाहती। तो कहीं बेटियों की शिक्षा एवं स्वायत्ता की बात होती दिखाई देती है कि उनके लिए शिक्षित हो कर आत्मनिर्भर बनना कितना जरूरी है।

इसी किताब में कहीं शादी-ब्याह की तैयारियों और रीति-रिवाज़ों के बारीक चित्रण से पाठक दो चार होता नज़र आता है तो कहीं शादी में बारातियों और घरातियों के खाने में फ़र्क होता दिखाई देता है।

इसी उपन्यास में कहीं बारात के खाने में बफ़े की आइटम्स में मौजूद पनीर और आइसक्रीम को ज़्यादा से ज़्यादा हड़पने का दृश्य व्यंग्यात्मक हो मज़ेदार बनता नज़र आता है। तो कहीं शादी के दौरान होने वाली अफरातफरी का सजीव चित्रण पढ़ने को मिलता है। कहीं बचपन में देखे गए मेलों का सजीव वर्णन पढ़ने को मिलता है। तो कहीं होली की रंग-गुलाल भरी मस्ती और धमाचौकड़ी में बचपन पुनः मूर्त रूप लेता दिखाई देता है।

धाराप्रवाह शैली में लिखे गए इस दमदार उपन्यास में एक प्रेमपत्र की भाषा को चमत्कृत बनाने के चक्कर में भाषा का प्रवाह मुझे टूटता हुआ प्रतीत हुआ। साथ ही कॉलेज की पिकनिक के एक दृश्य में ठठा कर हँसने का मौका मिला। कुछ एक जगहों पर प्रूफरीडिंग की कमियों के दिखाई देने के अतिरिक्त तथ्यात्मक ग़लती के रूप में इस उपन्यास में पेज नंबर 88 की अंतिम पंक्ति में लिखा दिखाई दिया कि..

'बाबा को लिफ़ाफ़े में रसीदी टिकट चिपकाता देख श्रद्धा भगवान से मनाती है कि कहीं भी शादी तय हो जाए।'

यहाँ ग़ौर करने वाली बात यह है कि रसीदी टिकट का इस्तेमाल विशेष तौर से लेनदेन के लिए किया जाता है। ये एक प्रकार से शासन को भुगतान किया जाने वाला टैक्स (राजस्व) है जबकि साधारण डाक को भेजने के लिए डाक टिकट का इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए सही वाक्य इस प्रकार होगा कि..

'बाबा को लिफ़ाफ़े में डाक टिकट चिपकाता देख श्रद्धा भगवान से मनाती है कि कहीं भी शादी तय हो जाए।'

संग्रहणीय क्वालिटी के 159 पृष्ठीय इस दमदार उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है हिन्दयुग्म प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 150/- रुपए जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट की दृष्टि से बिल्कुल जायज़ है। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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