एक योगी की आत्मकथा - 26 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 26

{ क्रियायोग विज्ञान }

इस पुस्तक में बार-बार जिस क्रियायोग विज्ञान का उल्लेख हुआ है, उसका आधुनिक भारत में दूर-दूर तक प्रसार मेरे गुरु के गुरु लाहिड़ी महाशय के माध्यम से हुआ । क्रिया शब्द संस्कृत कृ धातु से बना है, जिसका अर्थ है करना, कर्म और प्रतिकर्म करना; इसी धातु से कर्म शब्द भी बना है, जिसका अर्थ है कार्य-कारण का नैसर्गिक नियम। अतः क्रियायोग का अर्थ होता है “एक विशिष्ट कर्म या विधि (क्रिया) द्वारा अनंत परमतत्त्व के साथ मिलन (योग)।” इस विधि का निष्ठापूर्वक अभ्यास करने वाला योगी धीरे-धीरे कर्म बंधन से या कार्य-कारण संतुलन की नियमबद्ध श्रृंखला से मुक्त हो जाता है।

कुछ प्राचीन यौगिक विधि-निषेधों के कारण सर्वसामान्य के लिये लिखी जाने वाली इस पुस्तक में मैं क्रिया योग का पूर्ण विवरण नहीं दे सकता। इसकी वास्तविक प्रविधि योगदा सत्संग सोसाइटी / सेल्फ़रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के किसी अधिकृत क्रियावान (क्रियायोगी) से सीखनी चाहिये।¹ यहाँ केवल स्थूल वर्णन पर ही संतुष्टि करनी होगी ।

क्रिया योग एक सरल मनः कायिक प्रणाली है जिसके द्वारा मानवरक्त कार्बन रहित होकर आक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है। इस अतिरिक्त आक्सीजन के अणु प्राण-धारा में रूपान्तरित हो जाते हैं, जो मस्तिष्क और मेरुदण्ड के चक्रों में नवशक्ति का संचार कर देती है। शिराओं में बहने वाले अशुद्ध रक्त (Venous Blood) का संचय रूक जाने से योगी ऊतकों (Tissues) में होने वाले ह्रास को रोक सकता है या कम कर सकता है। उन्नत योगी अपनी कोशिकाओं (Cells) को प्राणशक्ति में रूपान्तरित कर देता है। एलाइजा, ईसा मसीह, कबीर और अन्य महानुभाव क्रिया योग या उसी के समान किसी प्रविधि के प्रयोग में अवश्य निष्णात थे, जिसके द्वारा वे अपने शरीर को अपनी इच्छानुसार प्रकट या अन्तर्धान कर सकते थे।

क्रिया योग एक प्राचीन विज्ञान है। लाहिड़ी महाशय को यह उनके महान गुरु बाबाजी (महावतार बाबा) से प्राप्त हुआ था, जिन्होंने अंधकार युगों में इसके लुप्त हो जाने के बाद फिर से उसे प्रकट कर परिष्कृत किया। बाबाजी ने इसे क्रिया योग का सीधा सादा नाम दिया।

बाबाजी ने लाहिड़ी महाशय से कहा था: “इस 19वी शताब्दी में जो क्रिया योग मैं विश्व को तुम्हारे माध्यम से दे रहा हूँ, यह उसी विज्ञान का पुनरुत्थान है जो श्रीकृष्ण ने सहस्राब्दियों पहले अर्जुन को दिया था और जो बाद में पतंजलि, ईसामसीह, सेंट जॉन, सेंट पॉल और ईसामसीह के अन्य शिष्यों को प्राप्त हुआ।”

भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने क्रिया योग की चर्चा दो बार की है। एक श्लोक में वे कहते हैं: “अपान वायु में प्राणवायु के हवन द्वारा और प्राणवायु में अपान वायु के हवन द्वारा योगी प्राण और अपान, दोनों की गति को रुद्ध कर देता है और इस प्रकार वह प्राण को हृदय से मुक्त कर लेता है और प्राणशक्ति पर नियंत्रण प्राप्त कर लेता है।” ² तात्पर्य यह है कि “योगी फेफड़ों और हृदय की कार्यशीलता को शान्त कर प्राणशक्ति की उस अतिरिक्त आपूर्ति की सहायता से शरीर में होने वाले ह्रास को रोक देता है; और अपान को नियंत्रण में कर वह शरीर में वृद्धत्व लाने वाले परिवर्तनों को भी रोक देता है। इस प्रकार ह्रास और वृद्धि, दोनों को रोककर योगी प्राण नियंत्रण सीख लेता है।”

गीता के अन्य कुछ श्लोको में कहा गया है: “वह ध्यान-पारंगत (मोक्षपरायण) मुनि सदा के लिये मुक्त हो जाता है, जो ‘चरम लक्ष्य’ की प्राप्ति के लिये अपनी दृष्टि को भ्रूमध्य में स्थित करके नासिका तथा फेफड़ों में विचरने वाले प्राण और अपान का निराकरण (सम) करते हुए बाहरी विषय-भोगों से अपने ध्यान को हटाने में और इच्छा, भय तथा क्रोध को निकाल बाहर करने में समर्थ है और जिसने अपने इन्द्रियग्राही मन एवं बुद्धि को जीत लिया है।” ³

भगवान् कृष्ण यह भी कहते हैं।⁴ “मैंने ही (अपने एक पूर्व अवतार में) यह अविनाशी योग एक प्राचीन ज्ञानी विवस्वत (सूर्य) को दिया था, विवस्वत ने इसे अपने पुत्र महान् स्मृतिकार मनु ⁵ को और मनु ने सूर्यवंश के संस्थापक इक्ष्वाकु को दिया। इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस राजयोग को राजर्षियों ने जाना; किन्तु, हे परंतप अर्जुन! उसके बाद यह योग बहुत काल से इस पृथ्वीलोक में लुप्तप्राय हो गया।” एक से दूसरे के पास इस प्रकार पहुँचते हुए राजयोग की ऋषियों ने भौतिकवादी युगों के शुरू होने तक रक्षा की। ⁶ फिर पुरोहितों की गोपन-प्रवृत्ति और मनुष्यों की उदासीनता के कारण यह पवित्र विद्या धीरे-धीरे अप्राप्य हो गयी।

योग के श्रेष्ठतम शास्त्रकार प्राचीन ऋषि पतंजलि ने क्रिया योग का दो बार उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है: “शारीरिक तप, मनोनिग्रह तथा ओम् का ध्यान मिलकर क्रिया योग बनता है।”⁷ ध्यान में सुस्पष्ट सुनायी देने वाले ओम् के ब्रह्मनाद को पतंजलि ईश्वर कहते हैं।⁸ ओम् सृष्टिकर्ता शब्दब्रह्म है, वह स्पन्दनशील सृष्टियन्त्र का गुंजन है, और ईश्वर के अस्तित्व का साक्षी है।⁹ योग का नया साधक भी शीघ्र ही ओम् की अद्भुत ध्वनि को सुन सकता है। इस परमानन्दमय आध्यात्मिक प्रोत्साहन से उसे पूर्ण विश्वास हो जाता है कि सूक्ष्म लोकों से उसका सम्पर्क हो रहा है।

पतंजलि दूसरी बार फिर से क्रिया-प्रविधि की या प्राणायाम की चर्चा इस प्रकार करते हैं: “उस प्राणायाम द्वारा मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, जो श्वास और प्रश्वास के गतिविच्छेद से निष्पन्न होता है।” ¹⁰

सेंट पॉल को क्रियायोग या वैसी ही किसी प्रविधि का ज्ञान था, जिसके द्वारा वे प्राणशक्ति को इंद्रियों में प्रवाहित कर सकते थे और उसे इंद्रियों से वापस भी खींच सकते थे। इसीलिये वे कह सके: “मुझे ईसा में जो परम आनन्द प्राप्त होता है, उस आनन्द की शपथ खाकर मैं कहता हूँ कि मैं रोज़ मरता हूँ।” ¹¹ शरीर की सम्पूर्ण प्राणशक्ति (जो साधारणतयः इन्द्रिय जगत् की ओर बहिर्मुखी होती है, और इस कारण इसे सत्य का भास प्रदान करती है) को अन्तर में केन्द्रित करने की एक विधि द्वारा सेंट पॉल हर रोज़ कूटस्थ चैतन्य के परमानन्द के साथ वास्तविक योग (तादात्म्य) का अनुभव करते थे। उस परमानन्दमय अवस्था में वे इन्द्रियभ्रम या माया-जगत् के प्रति "मर" जाने या उससे मुक्त होने के प्रति सचेत रहते थे।

ईश-तादात्म्य की आरम्भिक अवस्थाओं (सविकल्प समाधि) में साधक की चेतना परमतत्त्व में विलीन हो जाती है; उसकी प्राणशक्ति शरीर से खिंच जाती है, और शरीर निश्चल और कड़ा या "मृत" प्रतीत होता है। योगी को यह पूर्ण भान रहता है कि उसके शरीर में चलने वाली सारी जीवनक्रियाएँ उस अवस्था में रुकी हुई होती हैं। परन्तु जैसे-जैसे वह उन्नति कर उच्चतर आध्यात्मिक अवस्थाओं (निर्विकल्प समाधि) में पहुँचता है, वैसे-वैसे वह शरीर की निश्चेष्टता के बिना ही परमतत्त्व के साथ तादात्म्य कर लेता है; यहाँ तक कि साधारण चेतना में भी जब वह जाग रहा होता है, और संसार में अपने कर्त्तव्यों को निभाते समय भी वह ईश्वर के साथ एकात्म रहता है। ¹²

श्रीयुक्तेश्वरजी अपने शिष्यों को बताते थे: “क्रियायोग एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा मानवी क्रमविकास की गति बढ़ायी जा सकती है । प्राचीन योगियों ने यह पता लगा लिया था कि ब्रह्मचैतन्य का रहस्य श्वासनियंत्रण के साथ घनिष्ठता से जुड़ा हुआ है। विश्व के ज्ञानकोष में यह भारत का अद्वितीय एवं अमर योगदान है। उच्चतर कार्यों के लिये, हृदयक्रिया को चलाते रहने में समान्यतः खर्च हो जाने वाली प्राणशक्ति को किसी ऐसी प्रविधि की सहायता से श्वास की अनवरत आवश्यकता से मुक्त करना आवश्यक है, जो श्वास को शान्त और निःस्तब्ध कर सके।”

क्रियायोगी मन से अपनी प्राणशक्ति को मेरुदण्ड के छह चक्रों ( आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान तथा मूलाधार) में ऊपरनीचे घुमाता है। ये छह चक्र विराट् पुरुष के प्रतीक स्वरूप राशिचक्र की बारह राशियों के समान हैं। मनुष्य के सूक्ष्मग्राही मेरुदण्ड में आधे मिनट के प्राणशक्ति के ऊपर-नीचे प्रवहन से उसके क्रमविकास में सूक्ष्म प्रगति होती है। आधे मिनट की यह क्रिया एक वर्ष की स्वाभाविक तौर पर होने वाली आध्यात्मिक उन्नति के बराबर होती है।

मानव के सूक्ष्म देह में सर्वदर्शी आध्यात्मिक नेत्र रूपी सूर्य की परिक्रमा करने वाली छह (ध्रुवता की गणना से बारह) चक्ररूपी राशियों के और स्थूल जगत् के सूर्य एवं बारह राशियों के बीच परस्पर संबंध है। इस प्रकार सभी मनुष्य एक आंतरिक और एक बाह्य विश्व से प्रभावित होते हैं। प्राचीन ऋषियों ने यह ढूँढ निकाला कि मानव की सांसारिक और आकाशीय परिस्थितियाँ उसे बारह वर्ष के कालचक्र के क्रम में स्वाभाविक उन्नति के उसके मार्ग पर आगे सरकाती हैं। शास्त्र दृढ़तापूर्वक कहते हैं कि मनुष्य को अपने मानवीय मस्तिष्क को पूर्ण विकसित कर ब्रह्मचैतन्य प्राप्त करने के लिये दस लाख वर्षों की स्वाभाविक, आधि-व्याधिरहित विकास की आवश्यकता होती है।

साढ़े आठ घंटे में की गयी एक हज़ार क्रियाएँ योगी में एक दिन में एक हज़ार वर्ष का नैसर्गिक विकास लाती हैं: एक वर्ष में 3 लाख 65 हजार वर्षों का विकास। इस प्रकार क्रियायोगी तीन वर्षों में ही अपने जागरुक आत्म-प्रयास के द्वारा वह परिणाम प्राप्त कर लेता है जिसे करने में प्रकृति दस लाख वर्ष लगाती। कहने की आवश्यकता नहीं कि क्रिया का जल्दी पहुँचा देने वाला यह छोटा मार्ग अत्यंत उन्नत योगियों द्वारा ही अपनाया जा सकता है। गुरु के मार्गदर्शन में ऐसे योगियों ने उग्र अभ्यास से उत्पन्न शक्ति को सहन करने के लिये अपने शरीर एवं मस्तिष्क को सावधानीपूर्वक तैयार किया होता है।

क्रिया योग का नया साधक दिन में दो बार केवल चौदह या चौबीस क्रिया करने के साथ अपनी साधना शुरू करता है। अनेक योगी छह या बारह या चौबीस या अड़तालीस वर्षों में मुक्ति के अपने लक्ष्य को पा लेते हैं। जो योगी कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति से पहले ही दिवंगत हो जाता है, उसके साथ क्रिया प्रयास के अच्छे कर्म संलग्न रहते हैं; अपने नये जन्म में वह अपने चरम लक्ष्य की ओर स्वाभाविक रूप से प्रेरित होता है।

सामान्य मनुष्य का शरीर 50 वाट के विद्युत् बल्ब के समान होता है, जो क्रिया के अत्यधिक अभ्यास से उत्पन्न करोड़ों वाट की विद्युत् शक्ति को सहन नहीं कर सकता। क्रिया की पद्धतियाँ ऐसी हैं कि ये अभ्यास करने में आसान हैं और निश्चित रूप से फल देने वाली हैं और इनसे किसी प्रकार की हानि की कोई गुंजाइश नहीं है। इनके अभ्यास को धीरे-धीरे बढ़ाते जाने से मनुष्य के शरीर में दिन-प्रतिदिन सूक्ष्म परिवर्तन होते जाते हैं और शरीर अन्ततः उस महाप्राणशक्ति की अनंत संभावनाओं को व्यक्त करने के योग्य हो जाता है, जो सृष्टि में परमतत्त्व की प्रथम सक्रिय अभिव्यक्ति है।

अनेक मार्गभ्रष्ट उत्साहोन्मत्त व्यक्तियों द्वारा सिखाये जा रहे विज्ञानविरुद्ध श्वास व्यायामों में और क्रिया योग में कहीं भी कोई साम्य नहीं है। फेफड़ों में बलपूर्वक श्वास को रोककर रखने का प्रयास करना अनैसर्गिक है और निश्चित रूप से कष्टकर भी। इसके विपरीत, क्रिया अभ्यास में शुरू से ही शान्ति और मेरुदण्ड में हो रहे पुनरुज्जीवनी प्रभाव के प्रशमनकारी संवेदन अनुभव होते हैं।

यह प्राचीन यौगिक प्रविधि श्वास को मनःसत्त्व में परिवर्तित कर देती है। जैसे-जैसे आध्यात्मिक उन्नति होती है, वैसे-वैसे साधक श्वास को केवल एक मनोधारणा के रूप में जानने लगता है, मन का एक कार्य मात्र: स्वप्न श्वास।

मनुष्य की श्वास-गति और उसकी चेतना की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के बीच गणितीय निश्चितता के साथ स्थित संबंधों के अनेकानेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। किसी व्यक्ति का चित्त पूरी तरह मग्न हो, जैसे किसी गहन बौद्धिक वादविवाद में या किसी असाधारण नाजुक या कठिन शारीरिक करतब करने में होता है, तो उसका श्वास अपने आप बहुत धीरे चलता है। चित्त की मग्नता श्वास को धीमी गति पर निर्भर करती है; भय, काम, क्रोध आदि हानिकारक भावावेगों की अवस्थाओं में श्वास अनिवार्य रूप से तेज़ या असमान गति से चलता है। एक मिनट में 18 बार श्वास लेने की मनुष्य की गति की तुलना में चंचल बंदर 32 बार श्वास लेता है। अपनी दीर्घायुता के लिये प्रसिद्ध हाथी, कछुआ, साँप तथा अन्य जीवों की श्वासगति मनुष्य से कम होती है। उदाहरण के लिये, विशालकाय समुद्री कछुआ जो तीन सौ साल तक जीवित रहता है एक मिनट में केवल चार बार श्वास लेता है।

निद्रा से जो नवस्फूर्त्ति प्राप्त होती है, उसका कारण है निद्रा के दौरान मनुष्य का शरीर एवं श्वास के प्रति अचेत होना। निद्राधीन मनुष्य योगी बन जाता है; हर रात वह अचेतन रूप से देहात्म बोध से मुक्त होने एवं प्राणशक्ति को मस्तिष्क के मुख्य भाग तथा मेरुदण्ड के छह चक्रों के शक्तिकेन्द्रों में बहती स्वास्थ्यकारी धाराओं में विलीन करने की यौगिक क्रिया को सम्पन्न करता है। इस प्रकार, मनुष्य निद्राधीन होकर उस महाप्राणशक्ति से पुनरावेशित हो जाता है, जो समस्त जीव-जगत् का प्राणाधार है।

योगाभ्यास करने वाला योगी एक सरल प्राकृतिक प्रक्रिया को सोने वाले व्यक्ति की तरह अचेत रूप से और मंद गति से नहीं, बल्कि सचेत रूप से करता है। क्रिया योगी अपनी प्रविधि को अपने शरीर की समस्त कोशिकाओं को अक्षय प्रकाश से सराबोर करने के लिये और इस प्रकार उन्हें आध्यात्मिक चुंबकत्व की अवस्था में बनाये रखने के लिये प्रयुक्त करता है। वह वैज्ञानिक रूप से श्वास को अनावश्यक बना देता है और (अपने अभ्यास के दौरान) कभी निद्रा, अचेतनता अथवा मृत्यु की अधोमुखी अवस्थाओं में नहीं जाता।

माया के अधीन या प्रकृति के नियम के अधीन जीने वाले मनुष्यों में प्राणशक्ति का प्रवाह बाह्य जगत् की ओर होता है और इन्द्रियों में व्यय हो जाता है तथा उसका दुरुपयोग होता है। क्रियायोग का अभ्यास इस प्रवाह को वापस मोड़ देता है; प्राणशक्ति को मन के द्वारा अंतर्जगत् में ले जाता है, जहाँ प्राणशक्ति मेरुदण्ड की सूक्ष्म शक्तियों के साथ पुनः एक हो जाती है। प्राणशक्ति को इस प्रकार पुनः बल मिलने से योगी के शरीर एवं मस्तिष्क की कोशिकाओं को एक आध्यात्मिक अमृत से नवशक्ति प्राप्त होती है।

जो लोग केवल प्रकृति और उसकी दैवी योजना के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वे उचित आहार, सूर्यप्रकाश तथा सामंजस्यपूर्ण विचारों के द्वारा दस लाख वर्षों में आत्मज्ञान प्राप्त कर लेंगे। मस्तिष्क रचना में किंचित्-सा परिष्कार ला पाने में भी सामान्य स्वस्थ जीवन के बारह वर्षों तक बहुरूपियों की तरह अलग-अलग रूप धारण कर इस जगत् में आते रहना पड़ेगा।

इसलिये जो लोग दस लाख वर्षों की अवधि को विद्रोहपूर्ण दृष्टि से देखते हैं, उनके लिये शरीर और मन से अपने आप को अलग कर आत्मा के साथ जुड़ जाने की और इस प्रकार उस बृहद् अवधि को नगण्य लगने वाली अल्पावधि में बदल देने की योगियों की पद्धतियाँ ही श्रेयस्कर हैं। उन साधारण लोगों के लिये तो अवधि की यह संख्यात्मक परिधि और भी बृहद् हो जाती है, जो अपनी आत्मा के साथ तो क्या, प्रकृति के साथ भी सामंजस्य में नहीं जीते; और इस के विपरीत निसर्गविरुद्ध जटिलताओं में उलझते हुए शरीर और मन में प्रकृति द्वारा प्रदत्त मधुर स्वस्थताओं को आघात पहुँचाते जाते हैं। ऐसे लोगों के लिये दस लाख वर्षों की दुगुनी अवधि भी मुक्ति के लिये अपर्याप्त है।

देहासक्त मनुष्य कदाचित् ही या कभी नहीं समझ पाता कि उसकी देह एक साम्राज्य है, जिस पर मस्तिष्क के सिंहासन पर विराजमान सम्राट् आत्मा का शासन चलता है और इस शासन कार्य में मेरुदण्ड के छह चक्रों या चैतन्य केन्द्रों में स्थित सहायक राज-प्रतिनिधि उसकी सहायता करते हैं। इस ईशतंत्र के राज्य में आज्ञाकारी प्रजा का विशाल जनसमुदाय है: सत्ताईस पद्म कोशिकाएँ (जो स्वयंचालित प्रतीत होती हैं, परन्तु उनमें निश्चित प्रतिभा या ज्ञान है जिसके द्वारा वे शरीर के विकास कार्यों, रूपान्तरों एवं विलय के अपने समस्त कर्त्तव्यों का निर्वाह करती हैं), पाँच कोटि आधारभूत विचार, भावनाएँ तथा साठ वर्ष के औसत जीवन में मनुष्य की चेतना में निरन्तर उतार-चढ़ाव की अवस्थाएँ।

मानव शरीर या मन में रोग या अविवेक के रूप में प्रकट होने वाला स्पष्टतः ही सम्राट् आत्मा के विरुद्ध किया गया राजद्रोह विनम्र प्रजा की राजभक्तिहीनता का परिणाम नहीं, बल्कि मनुष्य द्वारा अतीत या वर्तमान में अपने व्यक्तित्व या स्वतन्त्र इच्छा–जो उसे आत्मा के साथ ही प्रदान की गयी है और कभी वापस नहीं ली जा सकती के दुरुपयोग का परिणाम है।

ओछे अहंकार के साथ तादात्म्य होकर मनुष्य यह मान लेता है कि स्वयं वही सोचता है, इच्छा करता है, अनुभव करता है, अन्न का पाचन करता है और अपने आप को जीवित रखता है। कभी मनन कर (केवल थोड़ा-सा भी काफी होगा) यह नहीं देखता, न ही स्वीकार करता है कि अपने साधारण जीवन में वह अपने कर्मों और प्रकृति या परिवेश के हाथों एक कठपुतली से अधिक कुछ भी नहीं है। प्रत्येक मनुष्य की बौद्धिक प्रतिक्रियाएँ, भावनाएँ, मनोभाव एवं आदतें केवल गत कर्मों के विपाक हैं, चाहे वे कर्म इस जन्म के हों या पिछले किसी जन्म के पर बाकी चाहे जो भी हो, उसकी सम्राट् आत्मा इन सब प्रभावों से ऊपर होती है। नश्वर सच्चाइयों और स्वतन्त्रताओं को ठुकराकर क्रिया योगी मायाजाल के सभी भ्रम विभ्रमों से परे अपने निरंकुश, मुक्त आत्मस्वरूप में चला जाता है। संसार के सभी शास्त्र घोषणा करते हैं कि मनुष्य नश्वर शरीर नहीं बल्कि जीवंत आत्मा है। क्रियायोग के रूप में मनुष्य को वह पद्धति मिलती है जिससे वह शास्त्रों की घोषणा को सिद्ध कर सके।

“बाह्य कर्मकाण्ड अज्ञान का विनाश नहीं कर सकता क्योंकि ये दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं,” शंकराचार्य ने अपने सुप्रसिद्ध आत्मबोध में लिखा है। अपरोक्षानुभूति में वे लिखते हैं: “केवल अनुभूत ज्ञान ही अज्ञान को नष्ट करता है... प्रश्न विचार के अतिरिक्त किसी और उपाय से ज्ञान नहीं मिलता। ‘मैं कौन हूँ? यह सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई? इसका स्रष्टा कौन है ? इसका भौतिक कारण क्या है ?’ इस प्रकार के प्रश्नों के विचार से यहाँ तात्पर्य है।” बुद्धि के पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है, इसीलिये ऋषियों ने ऐसे आध्यात्मिक प्रश्न विचार के लिये योग को विकसित किया।

सच्चा योगी अपने विचारों, संकल्पों और भावनाओं को शरीर की इच्छा-आकांक्षा-वासनाओं के साथ जुड़ने से दूर रखता है और अपने मन का मेरुदण्ड के तीर्थों में स्थित पराचेतन शक्तियों के साथ तादात्म्य करते हुए इस जगत् में ईश्वर की योजना के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है। वह न तो गत कर्मों की प्रेरणाओं से प्रवृत्त होता है और न ही मानवीय मूर्खता के नये बहकावों से अपनी सर्वोच्च आकांक्षा की पूर्ति को पाकर वह अक्षय आनन्दमय ब्रह्म के परम आश्रय में सुरक्षित रहता है।

योग की अमोघ और क्रमबद्ध फलोत्पादकता की ओर संकेत करते हुए भगवान श्रीकृष्ण विधिवत् योगाभ्यास करने वाले योगी की प्रशंसा इन शब्दों में करते हैं:

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन॥ - भगवदगीता 6:46

“योगी शारीरिक तप करने वाले तपस्वियों से श्रेष्ठ है, ज्ञानयोगियों से भी श्रेष्ठ है, अथवा कर्मयोगियों से भी श्रेष्ठ है! इसलिये मेरे शिष्य अर्जुन ! तू योगी बन।” ¹³

भगवद्गीता में बार-बार जिस यज्ञ की महिमा का वर्णन किया गया है, वह यज्ञ क्रिया योग ही है। एकमेव अद्वितीय ईश्वर को समर्पित अद्वैत के हवन में योगी अपनी समस्त मानवीय इच्छा-वासनाओं की आहुति डाल देता है। यही वस्तुतः सच्चा यज्ञ है, जिसमें ईश-प्रेम की ज्वाला में सारी गत वर्तमान इच्छा वासनाएँ जल कर राख हो जाती हैं। “परम ज्वाला” सभी मानवीय पागलपनों की आहुति स्वीकार कर लेती है और मनुष्य मलरहित होकर शुद्ध हो जाता है। लाक्षणिक तौर पर कहा जाय तो उसकी अस्थियों से वासनाओं का सारा मांस अलग हो जाता है, उसके कर्मों का अस्थिपंजर ज्ञानसूर्य की निर्जीवाणुकारी किरणों में सूखकर साफ हो जाता है और अंततः पूर्ण शुद्ध स्वच्छ बनकर वह मानव एवं भगवान की दृष्टि में निरापद बन जाता है।





¹ श्री श्री परमहंस योगानन्द ने उनके बाद जो भी उनकी संस्था (योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया / सेल्फ-रियलाइजेशन फ़ेलोशिप) के अध्यक्ष और आध्यात्मिक प्रमुख होंगे, उन्हें योग्य साधकों को क्रिया योग की दीक्षा देने या योगदा सत्संग सोसाइटी के किसी स्वामी को इसके लिये नियुक्त करने का अधिकार दिया है। उन्होंने अपने योगदा सत्संग पाठों के जरिये क्रियायोग विज्ञान को कायम बनाये रखने की भी व्यवस्था कर दी। ये पाठ योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया से उपलब्ध हैं।

² भगवद्गीता ४ः २९

³ भगवद्गीता ५ : २७-२८; श्वास के विज्ञान पर अधिक स्पष्टीकरणों के लिये प्रकरण ४९ देखें।” भगवद्गीता

⁴ ४:१-२

⁵ 'मानव धर्मशास्त्र' अथवा 'मनुस्मृति' के प्रागैतिहासिक कालीन रचयिता। इन ग्रन्थों में दिये गये विधान आज भी भारत में प्रचलित हैं।

⁶ हिन्दू शास्त्रों की संगणना के अनुसार भौतिकवादी युग का आरम्भ ईसापूर्व ३१०२ में हुआ। यह वर्ष महाविषुव चक्र (Equinoctial Cycle) के अवरोही अंतिम द्वापर युग के आरम्भ का वर्ष था और विशाल ब्रह्माण्डीय कालचक्र (Universal Cycle) के कलियुग के आरम्भ का वर्ष भी था (प्रकरण १६ दृष्टव्य )। मानव-विज्ञान के अधिकांश तत्त्ववेत्ता इस विश्वास के कारण कि दस हज़ार वर्ष पूर्व मानव जाति असभ्य पाषाण युग में रह रही थी, लेमुरिया, अटलान्टिस, भारत, चीन, जापान, मिश्र, मेक्सिको तथा अन्य अनेक देशों की अति प्राचीन सभ्यताओं की सुप्रचलित परम्पराओं की दन्तकथा बताकर अमान्य कर देते हैं।

⁷ “तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः” – योगसूत्र २: १। 'क्रियायोग' शब्द का प्रयोग करते समय पतंजलि या तो उस प्रविधि का उल्लेख कर रहे थे जो बाद में बाबाजी ने सिखायी या फिर उससे बिलकुल मिलती-जुलती किसी प्रविधि का योगसूत्र २:४९ ( इसी प्रकरण में आगे वर्णित) से यह सिद्ध हो जाता है कि पतंजलि प्राणशक्ति नियंत्रण की एक निश्चित प्रविधि का उल्लेख कर रहे थे।

⁸ “तस्य वाचकः प्रणवः।” योगसूत्र १ : २७

⁹ “ये बातें आमेन ने कही हैं जो विश्वसनीय और सच्चा साक्षी है, और ईश्वर की सृष्टि का आदि है।” प्रकाशितवाक्य ३:१४ (बाइबिल)। “आदि में यह 'शब्द' था और 'शब्द' ईश्वर के साथ था और 'शब्द' ही ईश्वर था।... सब वस्तुओं का उस ('शब्द' या 'ॐ') के द्वारा सृजन हुआ, और बिना उसके किसी भी वस्तु का सृजन नहीं हुआ।” – यूहन्ना १:१-३ ( बाइबिल) । वेदों का ओम् तिब्बतियों का पवित्र मंत्र 'हुँ', मुसलमानों का 'आमीन' और मिश्रवासियों, यूनानियों, यहुदियों तथा ईसाइयों का 'आमेन' बन गया। हिब्रू भाषा में इसका अर्थ है निश्चित, विश्वासयोग्य।

¹⁰ तस्मिन्सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः - योगसूत्र २:४९

¹¹ कुरिन्थियों १५:३१ ( बाइबिल)।

¹² संस्कृत शब्द विकल्प का अर्थ है: “भेद, भिन्नता।” सविकल्प "भेदयुक्त" समाधि की अवस्था है और निर्विकल्प "भेदरहित" समाधि की अवस्था है। अर्थात्, सविकल्प समाधि में साधक में ईश्वर से पृथकता की किंचित् भावना बनी रहती है; निर्विकल्प समाधि में वह ब्रह्मचैतन्य या परमचैतन्य के साथ पूर्ण एक हो जाता है।”

¹³ आधुनिक विज्ञान को अब श्वासरहित अवस्था के शरीर एवं मन पर पड़ने वाले रोगहर एवं नवशक्तिदायक प्रभावों का पता चलने लगा है। न्यू यॉर्क के कॉलेज ऑफ़ फ़िजिशियन्स एण्ड सर्जन्स के डा. आलवन एल. बराच ने केवल फेफड़ों को ही विश्रांति देने की एक चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया है, जिससे अनेक क्षयरोग के रोगी ठीक हो रहे हैं। इसमें रोगी को एक ऐसे कमरे में ले जाया जाता है, जिसमें हवा के दाब को नियंत्रित कर (equalising pressure chamber) इतना रखा जाता है रोगी को श्वास लेने की आवश्यकता नहीं रहती। १ फरवरी १९४७ के द न्यू यॉर्क टाईम्स ने डा. बराच के कथन को इस प्रकार उद्धरित किया था: “श्वास के रुकने का केन्द्रीय तन्त्र प्रणाली (central nervous system) पर पड़ने वाला प्रभाव काफी दिलचस्प है। हाथ-पैरों की स्वतःप्रवृत्त मांसपेशियों में क्रियाकलापों की प्रवृत्ति अत्यंत कम हो जाती है। इस कमरे में रोगी बिना हाथ-पाँव हिलाये या करवट बदले घंटों पड़ा रह सकता है। जब स्वतः प्रेरित श्वसन थम जाता है, तो धूम्रपान की इच्छा नहीं रहती, यहाँ तक कि उन लोगों में भी यह इच्छा नहीं जागती जो रोज दो-दो पैकेट सिगरेट पीते हैं। अनेक लोगों में यह विश्रांति इस प्रकार की होती है कि उन्हें किसी मनोरंजन की आवश्यकता नहीं रहती।” १९५१ में डा. बराच ने सार्वजनिक रूप से इस उपचार पद्धति के महत्त्व की पुष्टि की और कहा कि “इससे न केवल फेफड़ों को, बल्कि सारे शरीर की विश्रांति मिलती है और ऐसा प्रतीत होता है कि मन को भी मिलती है। उदाहरणार्थ, हृदय का काम एक तिहाई कम हो जाता है। हमारे रोगी चिंता करना छोड़ देते हैं। किसी की भी उकताहट नहीं लगती।"

इन तथ्यों से यह बात समझ में आने लगती है कि मानसिक या शारीरिक चंचलता की किसी प्रकार की प्रवृत्ति मन में उठे बिना योगी दीर्घकाल तक कैसे निश्चल बैठे रहते हैं। केवल इस प्रकार की निस्तब्धता द्वारा ही मनुष्य को ईश्वर की ओर वापस जाने का मार्ग मिल सकता है। सामान्य मनुष्यों को श्वासरहित अवस्था के लाभ प्राप्त करने के लिये सम दाब कक्ष (equalising pressure chamber) में ही रहना होगा, परन्तु योगी को शरीर एवं मन में तथा आत्मा के बोध के भी, लाभ प्राप्त करने के लिये क्रिया योग से अधिक किसी चीज़ को आवश्यकता नहीं।