एक योगी की आत्मकथा - 25 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 25

{ भाई अनन्त एवं बहन नलिनी }

“अनन्त अब अधिक दिन जीवित नहीं रह सकता; इस जन्म के लिये उसके कर्मों का भोग पूरा हो चुका है।”

एक दिन प्रातःकाल जब मैं गहन ध्यान में बैठा हुआ था, तो मेरी अन्तर्चेतना में ये निष्ठुर शब्द उभर आये। संन्यास लेने के थोड़े ही दिन बाद मैं अपने जन्मस्थान गोरखपुर में अपने बड़े भाई अनन्त के घर गया हुआ था। अचानक अस्वस्थ होकर अनन्त दा ने बिस्तर पकड़ लिया था। मैं आत्मीयता के साथ उनकी सेवा में जुट गया।

अन्तर में उठी इस सत्यनिष्ठ घोषणा से मैं दुःखी हो उठा। मुझे लगा कि अपनी असहाय दृष्टि के सामने अपने भाई को मुझसे छीना जाता देखने के लिये मैं अब गोरखपुर में रहना सहन नहीं कर सकता। अपने सगेसम्बन्धियों की नासमझ टीका-टिप्पणी की कोई परवाह न करते हुए मैं सबसे पहले जो जहाज मिला, उसी पर सवार होकर भारत से बाहर चला गया। जहाज़ म्याँमार (बर्मा) होता हुआ चीनी समुद्र से जापान पहुँचा। जापान में मैं कोबे शहर में जहाज से उतर गया और कुछ ही दिन वहाँ रहा। मेरा मन अत्यन्त दुःखी था, इसी कारण सैर-सपाटा वगैरह करने की कोई इच्छा नहीं थी।

भारत वापिस आते समय जहाज शंघाई में रुका। वहाँ जहाज के चिकित्सक डॉक्टर मिश्र मुझे कलात्मक वस्तुओं की दुकानों में ले गये। मैंने श्रीयुक्तेश्वरजी और अपने परिवारजनों एवं मित्रों के लिये वहाँ से उपहार खरीदे। अनन्त के लिये मैंने अति सुन्दर कारीगरीयुक्त बाँस की एक वस्तु ली। चीनी सेल्समन ने जैसे ही वह वस्तु मेरे हाथ में थमाई, वैसे ही वह मेरे हाथ से छूटकर नीचे गिर गई और साथ ही साथ मेरे मुँहसे निकल पड़ा: “इसे मैंने अपने प्रिय मृत भाई के लिए खरीदा है!”

मुझे स्पष्ट अनुभूति हो गयी थी कि अनन्त दा की आत्मा उसी क्षण शरीर से मुक्त होकर अनन्त की ओर जा रही थी। इसी के प्रतीकस्वरूप वह वस्तु गिरने के कारण टूट गयी थी। सिसकियाँ भरते हुए मैंने बाँस की सतह पर लिखा: “मेरे प्रिय अनन्त दा के लिये, जो अब चले गये हैं!”

मेरे साथ खड़े डॉक्टर मिश्र व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ मुझे देख रहे थे।

“अपने आँसू बचाकर रखिये,” उन्होंने कहा। “जब तक यह निश्चित न हो जाये कि उनकी मृत्यु हो गयी है, इन्हें क्यों बहा दिया जाये ?”

जब हमारा जहाज़ कोलकाता पहुँचा, तब डॉक्टर मिश्र पुनः मेरे साथ ही बाहर निकले। बन्दरगाह पर मेरा सबसे छोटा भाई विष्णु मुझे लेने के लिये आया हुआ था।

“मुझे पता है कि अनन्त दा अब नहीं रहे,” विष्णु को कुछ कहने का समय मिल पाने के पहले ही मैं बोल पड़ा। “मुझे और इन डॉक्टर साहब को केवल इतना बता दो कि अनन्त दा की मृत्यु कब हुई।”

विष्णु ने दिन बता दिया। यह वही दिन था जब मैंने शंघाई में उपहार खरीदे थे।

“अच्छा देखिये !” डॉक्टर मिश्र हठात् बोल पड़े। “इसके बारे में किसी को कानों कान खबर मत होने दीजिये! अन्यथा प्रोफेसर लोग मानसिक दूर-संपर्क (टेलिपैथी) का एक और साल का कोर्स चिकित्सा विज्ञान के पाठ्यक्रम में जोड़ देंगे, जो पहले ही बहुत लम्बा है!”

मैंने जैसे ही अपने घर में प्रवेश किया, पिताजी कसकर मेरे गले मिले। “तुम आ गये,” उन्होंने कातर स्वर में कहा। दो बड़े-बड़े अश्रु उनकी आँखों से टपक पड़े। साधारणतया मनोभावों को प्रकट न करने का उनका स्वभाव था और उनमें प्रेम के ऐसे बाह्य लक्षण मैंने कभी देखे नहीं थे। ऊपर-ऊपर से तो वे एक गम्भीर पिता थे, पर उनके भीतर एक माता का पिघल जाने वाला हृदय था। परिवार के सभी मामलों में वे माता-पिता की यह द्विमुखी भूमिका निभाते थे।

अनन्त के निधन के थोड़े ही दिन बाद मेरी छोटी बहन नलिनी दैवी शक्ति के हस्तक्षेप से मृत्यु के मुख से लौट आयी। इस कहानी को बताने से पहले मैं उस घटना के पहले के हमारे जीवन के स्वरूप का कुछ उल्लेख करना चाहूँगा।

बचपन में नलिनी और मेरे बीच के सम्बन्ध बहुत मधुर नहीं थे। मैं बहुत दुबला पतला था, वह मुझसे भी अधिक दुबली पतली थी। किसी अज्ञात कारण से, जिसका पता लगाने में मानस शास्त्रियों को कोई कठिनाई नहीं होगी, मैं अपनी बहन की दुबली पतली काया को लक्ष्य कर उसे प्रायः चिढ़ाया करता था। वह भी बाल्यावस्था के अनुरूप कठोर स्पष्टवादिता के साथ मुँहतोड़ जवाब देती थी। कभी-कभी तो माँ को हस्तक्षेप करना पड़ता था और बड़ा होने के नाते मुझे ही हलका-सा चाँटा लगाकर वे उतने समय के लिये हमारे बचकाने झगड़े का अंत कर देतीं।

स्कूल की पढ़ाई खत्म हो जाने के बाद नलिनी की सगाई कोलकाता के ही एक अच्छे स्वभाव के युवा चिकित्सक डॉक्ट पंचानन बोस के साथ हो गयी। यथासमय पूर्ण रीति-रिवाज के साथ विवाह सम्पन्न हो गया। विवाह के दिन रात को हमारे कोलकाता के घर की बैठक में बैठकर हँसी-मजाक करते अपने अनेकानेक रिश्तेदारों के बीच मैं भी जाकर बैठ गया। दूल्हे राजा सुनहरी जरी के काम किये एक विशालकाय तकिये की टेक लगाये बैठे थे, उनके एक ओर नलिनी बैठी थी। अफ़सोस! जामुनी रंग की भारी रेशमी साड़ी भी उसकी मृदुलताहीन कृशता को छिपा नहीं पा रही थी। मैं अपने नये बहनोई के तकिये के पीछे जाकर बैठा और उनकी ओर देखकर मैत्रीपूर्ण भाव के साथ मुस्कराने लगा। उन्होंने विवाह के पूर्व नलिनी को कभी देखा नहीं था। विवाह के दिन ही उन्हें पता चल सका कि विवाह की लॉटरी में उन्हें क्या मिल रहा था।

मेरी सहानुभूति को भाँपकर डा. बोस ने संकोचपूर्वक नलिनी की ओर इशारा करके मेरे कान में कहा, “यह क्या है ?”

मैंने कहा: “क्यों डॉक्टर! यह आपकी जाँच-परीक्षण के लिये कंकाल है!”

जैसे-जैसे समय बीतता गया, डॉक्टर बोस हमारे परिवार के प्रिय पात्र बनते गये; जब भी हमारे घर में कोई बीमार होता तो उन्हें ही बुलाया जाता। वे और मैं घनिष्ठ मित्र बन गये। प्रायः हम लोग आपस में खूब हँसी-मजाक करते और इस हँसी-मजाक का विषय अधिकतर नलिनी ही हुआ करती।

एक दिन मेरे बहनोई ने मुझसे कहा: “यह चिकित्सा विज्ञान के लिये एक आश्चर्य है। मैंने आपकी इस अस्थिपंजर बहन पर सब कुछ आजमाकर देख लिया कॉडलिवर ऑईल, मक्खन, माल्ट, शहद, मछली, माँस, अंडे, पौष्टिक दवाइयाँ। फिर भी एक शतांश इंच जितना भी माँस इसके शरीर पर नहीं आया।”

कुछ दिन बाद मैं उनके घर गया। वहाँ मेरा काम कुछ मिनटों में ही खत्म हो गया और मैं यह सोचकर जाने लगा कि नलिनी को मेरे वहाँ आने का पता नहीं चला होगा। जैसे ही सामने के दरवाज़े पर पहुँचा, नलिनी का आत्मीयतापूर्ण परन्तु आदेशात्मक स्वर सुनायी दिया।

“दादा! इधर आइये। इस बार आप मुझे चकमा देकर नहीं जा सकते। मुझे आपसे कुछ बातें करनी हैं।”

मैं सीढ़ी चढ़कर उसके कमरे में पहुँचा देखकर मुझे आश्चर्य हुआ कि वह रो रही थी।

उसने कहा: “दादा! पुरानी बातों को भूल जाओ। मैं देख रही हूँ कि आध्यात्मिक पथ पर अब आपके पाँव दृढ़ता के साथ जमे हुए हैं। मैं हर बात में आपकी तरह बनना चाहती हूँ।” फिर उसने आशाभरे स्वर में कहा: “अब आप अच्छे हट्टेकट्टे हो गये हैं; क्या आप मेरी मदद नहीं करेंगे ? मेरे पति मेरे पास फटकते भी नहीं; और मैं उनसे इतना प्यार करती हूँ! परन्तु मेरी मुख्य इच्छा ईश्वर साक्षात्कार में उन्नति करने की है, भले ही मैं दुबली-पतली और अनाकर्षक ही बनी रहूँ।”

उसके अनुरोध से मेरा हृदय पिघल गया। हमारी यह नई आत्मीयता धीरे-धीरे बढ़ने लगी; एक दिन उसने मेरी शिष्या बनने की इच्छा प्रकट की।

“आपको जैसा ठीक लगे, उसी प्रकार से मुझे शिक्षा दीजिये। पौष्टिक औषधियों के बदले मैं ईश्वर में अधिक विश्वास करती हूँ।” उसने दवाइयों की ढेर सारी बोतलें उठायीं और अपनी खिड़की के बाहर नाली में उड़ेल दी।

उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेने के लिये मैंने उसे मछली, माँस और अंडे खाना छोड़ देने के लिये कहा।

कई महीनों तक जब नलिनी मेरे बताये विभिन्न नियमों का कठोर पालन करती रही और अनेक मुश्किलों के आने पर भी शाकाहारी बनी रही, तब एक दिन मैं उसके घर पहुँच गया।

“बहना! तुमने पूर्ण अन्तःकरण के साथ आध्यात्मिक नियमों का पालन किया है; अब उसका फल मिलने का समय आ गया है।” शरारत भरी मुस्कान के साथ मैंने आगे कहा: “तुम कितनी मोटी बनना चाहती हो? हमारी चाची जितनी, जो वर्षों से अपने पाँव नहीं देख पायी हैं ?”

“नहीं! पर मैं तुम्हारे जितनी ही हट्टीकट्टी बनना चाहती हूँ।”

मैंने गम्भीर होकर कहा: “ईश्वर की कृपा से मैं जैसे हमेशा सत्य ही बोलता आया हूँ, वैसे ही मैं अब भी सत्य ही बोल रहा हूँ।¹ ईश्वरीय कृपा से आज से ही तुम्हारे शरीर में परिवर्तन शुरू हो जायेगा; एक महीने में तुम्हारा वजन मेरे वजन जितना ही हो जायेगा।”

मेरे हृदय से निकले इन शब्दों की पूर्ति हो गयी। तीस दिन में नलिनी का वज़न मेरे वजन जितना ही हो गया। इस नयी गोलमटोलता ने उसे सुन्दरता प्रदान की; उसके पति को उससे गहरा प्रेम हो गया। दुर्दैवजनक रूप से शुरू हुआ उनका वैवाहिक जीवन आदर्शजनक रूप से सुखी हुआ।

जब मैं जापान से लौटकर आया तो मुझे पता चला कि मेरी अनुपस्थिति में नलिनी टायफाइड ज्वर से बीमार हो गयी थी। मैं तुरन्त उसके घर गया और देखकर हैरान रह गया कि वह अत्यंत दुबली हो चुकी है। वह बेहोशी की अवस्था में थी।

मेरे बहनोई ने मुझे बतायाः “रोग की जीर्णता से सन्निपात होने के पहले वह बार-बार कहा करती थी “यदि मुकुन्द दादा यहाँ होते, तो मेरी यह दशा नहीं होती।” उनकी आँखें भर आयी थीं। उन्होंने आगे कहाः “दूसरे डॉक्टर लोगों को और मुझे भी आशा की कोई किरण नज़र नहीं आती। इतने लम्बे समय तक टायफाइड से जूझने के बाद अब उसे आँवरक्त की पेचिश शुरू हो गयी है।”

मैंने अपनी प्रार्थनाओं से आकाश और पाताल तक को हिला दिया। मुझे पूर्ण सहयोग देने वाली एक एंग्लो-इंडियन नर्स को नियुक्त कर मैं अपनी बहन पर रोगमुक्ति की यौगिक पद्धतियों का प्रयोग करने लगा। आँव-रक्त की पेचिश बन्द हो गयी।

परन्तु डॉक्टर बोस विषण्णता में सिर हिलाते हुए शोकार्त स्वर में बोले: “अब बाहर निकलने के लिये इसके शरीर में खून ही नहीं बचा है।”

“वह ठीक हो जायेगी,” मैंने दृढ़ता के साथ कहा। “सात दिन में उसका बुखार चला जायेगा।”

एक सप्ताह बाद नलिनी को आँखें खोलकर मुझ पर प्रेमभरी दृष्टि डालती देखकर मैं रोमांचित हो उठा। उस दिन से उसके स्वास्थ्य में तेजी से सुधार हुआ। उसका शरीर पहले की तरह गोलमटोल तो हो गया, पर उसकी लगभग प्राणांतिक बीमारी का एक दुःखद चिह्न उसके शरीर पर रह गयाः उसके दोनों पैरों में पक्षाघात हो गया। भारतीय और विलायती डॉक्टरों ने उसे असाध्य विकलांग घोषित कर दिया।

उसके जीवन की रक्षा के लिये मैंने प्रार्थना के द्वारा जो अविरत युद्ध छेड़ रखा था, उससे मैं थक गया था। मैं श्रीयुक्तेश्वरजी की सहायता लेने के लिये श्रीरामपुर गया। जब मैंने उन्हें नलिनी की दशा से अवगत कराया तो उनकी आँखों में गहरी सहानुभूति उभर आयी।

“एक महीने में तुम्हारी बहन के पाँव ठीक हो जायेंगे।” फिर उन्होंने आगे कहाः “उसे अपनी त्वचा का स्पर्श करते हुए दो कैरट का एक छिद्रविहीन मोती पहनने को कहो जो एक बंध में दोनों ओर से आँकड़ों में जड़ा हो।”

मैंने आनन्द के साथ राहत की साँस लेते हुए उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया।

“गुरुदेव! आप सिद्ध पुरुष हैं; आपके मुँह से निकला हुआ वचन कि वह ठीक हो जायेगी, ही काफी है। परन्तु यदि आप कहते ही हैं, तो मैं तुरन्त उसके लिये एक मोती ले आता हूँ।”

मेरे गुरु ने हाँ में सिर हिलाया। “हाँ, ऐसा अवश्य करो।” फिर उन्होंने नलिनी की, जिसे उन्होंने कभी देखा भी नहीं था, शारीरिक और मानसिक विशिष्टताओं का सविस्तार वर्णन कर दिया।

मैंने पूछा: “गुरुदेव ! क्या यह ज्योतिषीय विश्लेषण है? आपको तो उसका जन्मकाल या जन्मदिन भी मालूम नहीं है!”

श्रीयुक्तेश्वरजी मुस्कराये। “एक गहनतर ज्योतिष भी है, जो पंचांगों और घड़ियों के प्रमाणों पर निर्भर नहीं करता। प्रत्येक मनुष्य विधाता या विराट पुरुष का एक हिस्सा है; उसका जैसे स्थूल शरीर होता है, वैसे ही एक सूक्ष्म शरीर भी होता है। मानवी नेत्र केवल स्थूल शरीर को देखते हैं, परन्तु अन्तर्चक्षु अधिक गहराई में जाकर उस विश्वरूप तक को भी देख सकता है जिसका प्रत्येक मनुष्य एक अविभाज्य और स्वतंत्र अंग है।”

मैंने कोलकाता लौटकर नलिनी के लिये एक मोती² खरीदा। एक महीने के बाद उसके पंगु हुए पाँव पूर्णतः ठीक हो गये।

नलिनी ने गुरुदेव से अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये मुझ से कहा। श्रीयुक्तेश्वरजी ने उसके संदेश को चुपचाप सुन लिया। परन्तु जब मैं उनसे विदा ले रहा था, तब उन्होंने एक अर्थगर्भित बात कही:

“तुम्हारी बहन को अनेक डॉक्टरों ने बताया हुआ है कि वह कभी माँ नहीं बन सकती। उसे विश्वास दिला दो कि कुछ ही वर्षों में वह दो पुत्रियों को जन्म देगी।”

कुछ वर्षों बाद नलिनी की खुशी का ठिकाना न रहा जब उसने एक पुत्री को जन्म दिया और उसके कुछ वर्ष बाद दूसरी को।


¹ [ हिन्दू शास्त्र कहते हैं कि जो लोग सदा सत्यभाषण ही करते हैं उन्हें वाचा सिद्धि प्राप्त हो जाती है। वे मनःपूर्वक जो भी कहेंगे, वह निश्चित रूप से सत्य हो जाता है। (योग सूत्र २:३६)

सत्य पर ही विश्वसृष्टि हुई है, अतः सभी शास्त्र सत्य को एक महान् गुण मानते हैं, जिसके द्वारा मनुष्य अपने जीवन को अनन्त परमतत्व के साथ जोड़ सकता है। महात्मा गांधी प्रायः कहते थे: “सत्य ही भगवान है।” वे विचार, वाणी और आचरण में पूर्ण सत्य को अंतर्भूत करने के लिये आजीवन प्रयत्नशील रहे। युग-युगान्तर से सत्य का आदर्श हिन्दू समाज पर छाया रहा है। मार्को पोलो ने लिखा है: “ब्राह्मण इस संसार की किसी भी वस्तु की प्राप्ति के लिये झूठ नहीं बोलते।” भारत में न्यायाधीश रहे एक अंग्रेज़, विलियम स्लीमन ने अपनी पुस्तक जनीं थ्रू अवध इन 1849-50 में लिखा है: “मेरे सामने ऐसे सैकड़ों मुकदमे आये, जिनमें केवल एक झूठ बोलकर सम्बन्धित व्यक्ति अपनी संपत्ति, स्वतन्त्रता और जीवन बचा सकते थे, पर उन्होंने झूठ बोलने से इन्कार कर दिया।” ]

² [ मोती, अन्य रत्नों तथा धातुओं एवं कुछ वनस्पतियों का मनुष्य के शरीर के साथ सीधा स्पर्श होने से शरीर की कोशिकाओं पर एक विद्युत् चुम्बकीय प्रभाव पड़ता है। मनुष्य के शरीर में कार्बन एवं अन्य धातुतत्त्व होते हैं जो वनस्पतियों, धातुओं एवं रत्नों में भी होते हैं। इन क्षेत्रों में ऋषियों ने जो खोजें की हैं, उनकी किसी-न-किसी दिन शरीर विज्ञान के तत्त्वविदों द्वारा भी पुष्टि अवश्य ही की जायेगी। विद्युतीय जीवन प्रवाहयुक्त संवेदनशील मानव शरीर ऐसे अनेक रहस्यों का केन्द्र है, जो अभी तक अज्ञात हैं।
यूँ तो रत्नों और धातुओं के कड़ों का रोग निवारण की दृष्टि से शरीर के लिये महत्व है, तथापि श्रीयुक्तेश्वरजी उन्हें धारण करने की सलाह एक अन्य कारण से देते थे। सिद्ध पुरुष कभी भी रोग-मुक्तिदाता के रूप में सामने आना नहीं चाहते; रोग मुक्तिदाता केवल ईश्वर ही है। इसलिये जिन शक्तियों को सन्तजनों ने अपने प्रभु से विनम्रतापूर्वक ग्रहण किया है, उन्हें वे नाना प्रकार के छद्मवेशों में छिपाकर प्रयुक्त करते हैं। साधारणतया मनुष्य प्रकट पदार्थों में विश्वास करते हैं। इसलिये जब लोग रोगमुक्ति के लिये मेरे गुरुदेव के पास आते थे, तब वे उनमें श्रद्धा जगाने के लिये तथा अपनी ओर से उनका ध्यान हटाने के लिये भी कोई रत्न या कड़ा पहनने के लिये कह देते थे। उन कड़ों और रत्नों में रोग निवारण के अंतर्निहित विद्युत्चुम्बकीय गुणों के अतिरिक्त गुप्त रूप से गुरुदेव की आध्यात्मिक कृपा भी रहती थी।]