हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 27 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 27

देवर्षि नारद एवं महर्षि अंगिरा के साक्षात् दर्शन

इस अलौकिक घटना का विवरण देते हुए भाईजी ने बताया–सन् 1936 में गीतावाटिका (गोरखपुर) में एक वर्ष का अखण्ड-संकीर्तन हुआ था। शिमलापालमें 'नारद भक्ति-सूत्र' पर मैंने एक विस्तृत टीका लिखी थी। वह टीका उन दिनों प्रकाशित हो रही थी। भागवत की कथामें भी नारदजी का प्रसंग सुन रखा था। इन सब हेतुओंसे उन दिनों नारदजी के प्रति मनमें बड़ी भावना पैदा हुई। बार-बार उनके दर्शनों की लालसा जगने लगी।

एक दिन रात्रिमें स्वप्नमें दो तेजोमय ब्राह्मण दिखायी दिये। मैं उन्हें पहचान न सका। परिचय पूछने पर उन्होंने बताया कि हम दोनों नारद और अंगिरा हैं। फिर उन्होंने कहा, "हम कल दिनमें तीन बजे तुमसे मिलनेके लिये प्रत्यक्ष रूपमें आयेंगे।" यह स्वप्न प्रायः जाग्रत अवस्था के समय का था और इतना स्वाभाविक था कि मुझे उसमें कोई संदेह नहीं रहा। मैंने पीछे बगीचेमें इमली के पेड़ों के पास एक कुटिया, साफ करवाकर उसके सामने एक बेंच लगवा दी और उसपर दो आसन लगा दिये। मैंने किसी भी व्यक्ति से इसकी चर्चा नहीं की। मैं स्वयं अपने निवास स्थान के बाहर बरामदेमें बैठ गया और उनकी प्रतीक्षा करने लगा। ठीक तीन बजे दो ब्राह्मण आये और मुझसे मिलना चाहा। मैं उन्हें पहचान गया। ठीक वही आकृति, वही स्वरूप, जो स्वप्नमें मैंने देखा था। मैं पीछे बगीचेमें बढ़ने लगा और वे मेरे पीछे-पीछे चलने लगे। हम लोग उस एकान्त कुटियापर पहुँचे। उन दोनों को मैंने बेंचपर लगे हुए आसनोंपर बैठा दिया, मैं नीचे बैठ गया।

दोनों ब्राह्मण सफेद कपड़े पहने हुए थे, किन्तु आसनपर बैठते ही दोनों का वास्तविक रूप प्रकट हो गया। बड़ा ही भव्य और दर्शनीय रूप था। वे कुछ देर बैठे रहे और उन्होंने मुझे कुछ बातें कही। अन्तमें उन्होंने कहा, जब कभी याद करोगे, तब हम आ जायेंगे। वे मुझ जैसी वाणीमें बोल रहे थे। वे जिस व्यक्तिके सामने प्रकट होते हैं, उससे वे उसकी समझमें आनेवाली भाषामें बोलते हैं।

नारदजी ने भाईजीके सामने बहुत-से गूढ़ तत्त्वों का रहस्योद्घाटन किया, जिनका शास्त्रोंमें विस्तृत वर्णन नहीं है। इसके बाद भाईजी के जो प्रवचन होते थे तथा कल्याण में जो लिखते थे, उनमें उन्हीं सिद्धान्तों का प्रतिपादन होता था। किसी का विरोध करने की प्रवृत्ति नहीं थी।

इसके पश्चात् तो नारदजी आदि देवर्षिगण भाईजीसे वार्तालाप करनेके लिये पधारते रहते थे क्योंकि भाईजी भी दिव्य संत-मण्डलमें सम्मिलित कर लिये गये थे।


देवर्षि नारद एवं महर्षि अंगिरा के साक्षात् दर्शन

इस अलौकिक घटना का विवरण देते हुए भाईजी ने बताया–सन् 1936 में गीतावाटिका (गोरखपुर) में एक वर्ष का अखण्ड-संकीर्तन हुआ था। शिमलापालमें 'नारद भक्ति-सूत्र' पर मैंने एक विस्तृत टीका लिखी थी। वह टीका उन दिनों प्रकाशित हो रही थी। भागवत की कथामें भी नारदजी का प्रसंग सुन रखा था। इन सब हेतुओंसे उन दिनों नारदजी के प्रति मनमें बड़ी भावना पैदा हुई। बार-बार उनके दर्शनों की लालसा जगने लगी।

एक दिन रात्रिमें स्वप्नमें दो तेजोमय ब्राह्मण दिखायी दिये। मैं उन्हें पहचान न सका। परिचय पूछने पर उन्होंने बताया कि हम दोनों नारद और अंगिरा हैं। फिर उन्होंने कहा, "हम कल दिनमें तीन बजे तुमसे मिलनेके लिये प्रत्यक्ष रूपमें आयेंगे।" यह स्वप्न प्रायः जाग्रत अवस्था के समय का था और इतना स्वाभाविक था कि मुझे उसमें कोई संदेह नहीं रहा। मैंने पीछे बगीचेमें इमली के पेड़ों के पास एक कुटिया, साफ करवाकर उसके सामने एक बेंच लगवा दी और उसपर दो आसन लगा दिये। मैंने किसी भी व्यक्ति से इसकी चर्चा नहीं की। मैं स्वयं अपने निवास स्थान के बाहर बरामदेमें बैठ गया और उनकी प्रतीक्षा करने लगा। ठीक तीन बजे दो ब्राह्मण आये और मुझसे मिलना चाहा। मैं उन्हें पहचान गया। ठीक वही आकृति, वही स्वरूप, जो स्वप्नमें मैंने देखा था। मैं पीछे बगीचेमें बढ़ने लगा और वे मेरे पीछे-पीछे चलने लगे। हम लोग उस एकान्त कुटियापर पहुँचे। उन दोनों को मैंने बेंचपर लगे हुए आसनोंपर बैठा दिया, मैं नीचे बैठ गया।

दोनों ब्राह्मण सफेद कपड़े पहने हुए थे, किन्तु आसनपर बैठते ही दोनों का वास्तविक रूप प्रकट हो गया। बड़ा ही भव्य और दर्शनीय रूप था। वे कुछ देर बैठे रहे और उन्होंने मुझे कुछ बातें कही। अन्तमें उन्होंने कहा, जब कभी याद करोगे, तब हम आ जायेंगे। वे मुझ जैसी वाणीमें बोल रहे थे। वे जिस व्यक्तिके सामने प्रकट होते हैं, उससे वे उसकी समझमें आनेवाली भाषामें बोलते हैं।

नारदजी ने भाईजीके सामने बहुत-से गूढ़ तत्त्वों का रहस्योद्घाटन किया, जिनका शास्त्रोंमें विस्तृत वर्णन नहीं है। इसके बाद भाईजी के जो प्रवचन होते थे तथा कल्याण में जो लिखते थे, उनमें उन्हीं सिद्धान्तों का प्रतिपादन होता था। किसी का विरोध करने की प्रवृत्ति नहीं थी।

इसके पश्चात् तो नारदजी आदि देवर्षिगण भाईजीसे वार्तालाप करनेके लिये पधारते रहते थे क्योंकि भाईजी भी दिव्य संत-मण्डलमें सम्मिलित कर लिये गये थे।