एक योगी की आत्मकथा - 18 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 18

{ एक मुस्लिम चमत्कार प्रदर्शक }

“कई वर्ष पहले, ठीक इसी कमरे में जहाँ तुम अभी रहते हो, एक मुस्लिम चमत्कार प्रदर्शक ने मेरे समक्ष चार चमत्कार दिखाये थे।”

श्रीयुक्तेश्वरजी मेरे नये कमरे में पहली बार आये तब उन्होंने यह बात कही। श्रीरामपुर कॉलेज में प्रवेश लेने के तुरन्त बाद ही मैंने निकट स्थित पंथी नामक छात्रावास में एक कमरा लिया था। यह गंगा तट पर स्थित पुराने ढंग का ईंटों का एक भवन था।

“यह कैसा संयोग है, गुरुदेव ! क्या ये नव-शृंगारित दीवारें स्मृतियों को अपने में छिपाये इतनी पुरातन हैं ?” अपने सीधे-सादे तरीके से सजाये गये कमरे में मैंने नये कौतुहल के साथ दृष्टि दौड़ायी ।

“यह एक लम्बी कहानी है।” मेरे गुरु पूर्वस्मृतियों को ताजा करते हुए मुस्कराये। “उस फ़क़ीर का नाम अफ़ज़ल खान था। एक हिन्दू योगी के साथ अनायास भेंट हो जाने के फलस्वरूप उसे असाधारण सिद्धियाँ मिल गयी थीं।”

“ ‘बेटा! मुझे बहुत प्यास लगी है; थोड़ा पानी ला दो।’ अफ़ज़ल के बचपन में पूर्वी बंगाल के एक छोटे से गाँव में एक दिन एक धूल-धूसरित संन्यासी ने उससे याचना की।

“ ‘बाबाजी! मैं तो मुसलमान हूँ। आप हिन्दू होकर मेरे हाथ का पानी कैसे पियेंगे ?’

“ ‘मैं तुम्हारी सत्यशीलता से प्रसन्न हूँ, बेटा! मैं जाति भेदभाव और छुआछूत के अधर्मपूर्ण नियमों का पालन नहीं करता। जाओ, जल्दी से पानी लेकर आओ।’

“अफ़ज़ल की श्रद्धापूर्ण आज्ञाकारिता से प्रसन्न होकर संन्यासी ने प्रेमभरी दृष्टि से उसकी ओर देखा।


“ ‘तुम्हारे पिछले जन्मों के कर्म बहुत अच्छे हैं,’ उसने विचारमग्न होकर कहा। ‘मैं तुम्हें एक योग प्रक्रिया सिखा रहा हूँ जिसके द्वारा अदृश्य लोकों में से एक लोक पर तुम्हारी सत्ता स्थापित हो जायेगी। उससे तुम्हें जो महान शक्तियाँ प्राप्त होंगी उनका उपयोग केवल अच्छे उद्देश्यों के लिये करना; स्वार्थ के लिये उन्हें कभी प्रयुक्त मत करना! परन्तु अफ़सोस ! मैं देख रहा हूँ कि पूर्वजन्मों की विध्वंसक प्रवृत्तियों के कुछ बीज अभी भी तुम में हैं। उन्हें अब नये बुरे कर्मों से सींचकर अंकुरित मत करना। तुम्हारे गतकर्म इस प्रकार उलझे हुए हैं कि तुम्हें अपने इस जीवन का उपयोग अपनी यौगिक उपलब्धियों को उच्चतम लोक-हितैषी लक्ष्यों को प्राप्त करने में ही करना चाहिये।

“विस्मय चकित बालक को एक जटिल प्रक्रिया समझा देने के बाद महात्मा अन्तर्धान हो गये।

“ अफ़ज़ल ने बीस वर्षों तक निष्ठापूर्वक उस यौगिक प्रक्रिया का अभ्यास किया। उसके चमत्कारी कृत्यों की ख्याति फैलने लगी। मालूम होता है उसके साथ सदैव कोई अदृश्य आत्मा रहती थी, जिसे वह 'हजरत' कह कर पुकारा करता था। वह अदृश्य अस्तित्व अफ़ज़ल की छोटी से छोटी इच्छा को भी पूर्ण करने में समर्थ था।

“अपने गुरु की चेतावनी को भूल कर अफ़ज़ल ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करना आरम्भ कर दिया। जिस किसी वस्तु को भी वह एक बार उठाकर वापस रख देता, वह शीघ्र ही ऐसे अदृश्य हो जाती कि फिर उसका अता-पता लगाना संभव न होता। इस बात की व्यथाकारी संभावना सदा ही रहने के कारण साधारणतया किसी को भी उसका अपने घरदुकान पर आना अच्छा नहीं लगता था !

“समय-समय पर वह कोलकाता में जवाहरात की बड़ी-बड़ी दुकानों में खरीददारी के बहाने पहुँच जाता। वहाँ जिस-जिस रत्न को भी वह छू लेता, वे सभी रत्न उसके दुकान से जाते ही ग़ायब हो जाते।

“अफ़ज़ल प्रायः सैकड़ों शिष्यों से घिरा रहता जो उसके भेद को जानने की आशा में उसके शिष्य बन गये थे। कभी-कभी वह यात्रा में उन्हें अपने साथ ले लेता। रेलवे स्टेशन पर वह किसी न किसी प्रकार टिकटों की गड्डी को छू लेता। फिर इस गड्डी को वह क्लर्क की ओर यह कहते हुए सरका देता कि: ‘मैंने इरादा बदल दिया है, अब मुझे ये टिकट नहीं चाहिये।’ परन्तु जब वह अपनी शिष्य मंडली के साथ ट्रेन पर सवार हो जाता, तब सब के लिये आवश्यक टिकटें उसके पास होतीं। ¹

“इन कारनामों से हाहाकार मच गया; बंगाल के जौहरी और टिकट बेचने वाले बाबू व्याकुल हो उठे! अफ़ज़ल को पकड़ने की ताक में रहने वाले पुलिस वाले असहाय हो गये क्योंकि उसे दोषी ठहराने की क्षमता रखने वाले प्रमाण को वह केवल यह कहकर अदृश्य कर सकता था: ‘हज़रत, इसे हटा दो।’ ”

श्रीयुक्तेश्वरजी उठकर मेरे कमरे के बाहर बनी बाल्कनी में जा खड़े हुए जहाँ से गंगा का दृश्य दिखता था। अफ़ज़ल के कुछ और विस्मयकारी कारनामों को सुनने की उत्सुकता से मैं भी उनके पीछे-पीछे चला गया।

“यह पंथी भवन पहले मेरे एक मित्र का था। उसकी अफ़ज़ल से पहचान हो गयी और उसने उसे यहाँ बुला लिया। मेरे मित्र ने लगभग बीस-एक पड़ोसियों को भी बुला लिया जिनमें मैं भी था। उस समय मैं एक नवयुवक मात्र था और इस सर्वविदित फ़क़ीर के प्रति मेरे मन में रोचक जिज्ञासा जाग उठी थी।” गुरुदेव हँस पड़े। “कोई बहुमूल्य वस्तु न पहनने की सावधानी मैंने बरती थी! अफ़ज़ल ने मुझे कुतूहलपूर्ण दृष्टि से देखा, फिर कहा:

“ ‘तुम्हारे हाथ बड़े मज़बूत हैं। नीचे बगीचे में जाओ; एक चिकना-सा पत्थर उठा लाओ और उस पर खड़िया से अपना नाम लिखो; फिर उसे गंगा में जितनी दूर फेंक सकते हो, फेंको।’

“मैंने वैसा ही किया। जैसे ही पत्थर दूर गंगा की लहरों में डूब गया, वैसे ही अफ़ज़ल ने फिर मुझसे कहाः

“इस घर के साथ-साथ बहने वाले गंगा के पानी को एक बर्तन में भरकर ले आओ।’

“जब मैं पानी भरकर बर्तन ले आया, तब अफजल ने पुकाराः ‘हज़रत! वह पत्थर इस बर्तन में डालो !’

“तत्क्षण पत्थर वहाँ प्रकट हो गया। मैंने उसे बर्तन से निकालकर देखा तो अपने नाम को उसपर यथावत् पाया।

“उस कमरे में उपस्थित लोगों में मेरा 'बाबू'² नामका एक मित्र भी था जिसने सोने की पुरानी भारी घड़ी और चेन पहन रखी थी। अफज़ल ने अमंगलसूचक सराहना के साथ उनकी जाँच-परख की। शीघ्र ही वे ग़ायब हो गयीं!

“ ‘अफ़ज़ल, कृपया मेरी घड़ी और चेन लौटा दो। वे मेरी अनमोल पारम्परिक सम्पत्ति हैं!’ बाबू रुआँसा हो कर कह रहा था।

“थोड़ी देर तो अफ़ज़ल निर्विकार चेहरा बनाकर मौन बैठा रहा, फिर उसने कहा, ‘तुम्हारे घर की तिजोरी में पाँच सौ रुपया है, उसे मेरे पास ले आओ तो बताऊँगा तुम्हारी घड़ी कहाँ मिलेगी।’

“व्याकुल हुआ बाबू तुरन्त घर जाने के लिये निकल पड़ा। शीघ्र ही वह वापस आ गया और उसने अफ़ज़ल को पाँच सौ रुपया दे दिया।

“ ‘अपने घर के पास की छोटी पुलिया पर जाओ और हज़रत को अपनी घड़ी और चेन देने के लिये पुकारो,’ अफ़ज़ल ने उससे कहा।

“बाबू तीर की तरह दौड़ा। जब वापस आया तो उसके चेहरे पर मुस्कान तो थी, पर शरीर पर कोई घड़ी या चेन नहीं थी।

“ ‘जब मैंने निर्देश के अनुसार हज़रत को पुकारा तो मेरी घड़ी और चेन हवा में कलाबाजियाँ खाती हुई सीधे मेरे दाहिने हाथ में आ गयीं! यहाँ आने के पहले मैं सीधा घर गया और उन दोनों वस्तुओं को तिजोरी में डालकर मैंने ताला लगा दिया !’

“घड़ी के बदले धन लिये जाने की उस हास्य-शोकांतिका के प्रत्यक्षदर्शी बाबू के मित्र अफ़ज़ल को तिरस्कार से घूर रहे थे। उन्हें शांत करने के लिये अफ़ज़ल ने मृदु स्वर में कहाः

“ ‘आप लोगों को जो भी पीने के लिये चाहिये उसका केवल नाम बताइये; हजरत उसे तुरन्त ला देगा।’

“ कुछ लोगों ने दूध माँगा, तो अन्य लोगों ने फलों का रस माँगा। मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, जब बाबू ने व्हिस्की माँगी! अफ़ज़ल ने आदेश ने दिया; आज्ञाकारी हज़रत ने तुरन्त सीलबंद बोतलें वहाँ प्रस्तुत कर दीं जो धड़ाधड़ आकर जमीन पर गिर गयीं। हर आदमी को अपनी-अपनी पसन्द का पेय मिल गया।

चौथे चमत्कार का आश्वासन बाबू के लिये तो निश्चय ही सुखदायी था: अफ़ज़ल ने सबको वहीं पर भोजन देने का प्रस्ताव दिया।

“ ‘सबसे महँगा भोजन मँगाते हैं,’ बाबू ने खिन्न स्वर में कहा। ‘मुझे अपने पाँच सौ रुपये के बदले पूरा राजसी भोज चाहिये। सब व्यंजन सोने की थालियों में परोसे होने चाहिये !’

“जैसे ही सब लोगों ने अपनी-अपनी पसन्द बता दी, अफ़ज़ल ने सतत् तत्पर हज़रत को आदेश दिया। बर्तनों की खनखनाहट सुनायी दी; मसालेदार सब्जियां, गरम-गरम पूरियों और अनेक बेमौसमी फलों से भरे सोने के बड़े-बड़े थाल शून्य में से हमारे सामने ज़मीन पर प्रकट हुए। भोजन की हर चीज अत्यंत स्वादिष्ट थी। एक घंटे तक खाना पीना चलने के बाद हम लोग कमरे से बाहर जाने लगे। इतने में बड़े जोर की खनखनाहट की ध्वनि सुनायी दी मानो सब बर्तनों को एकत्र किया जा रहा हो। हमने मुड़कर देखा तो वहाँ थालियों की या बचे हुए भोजन की भी कोई निशानी शेष नहीं थी।”

“गुरुजी!” मैं बीच में ही बोल पड़ा। “यदि अफ़ज़ल सोने की थालियों जैसी चीजें भी इतनी आसानी से प्राप्त कर सकता था तो उसे दूसरों की संपत्ति की लालसा क्यों थी ?”

“अफ़ज़ल आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत उन्नत नहीं था,” श्रीयुक्तेश्वरजी ने कहा। “योग की एक विशेष प्रक्रिया पर प्रभुत्व पा लेने से उसकी पहुँच एक ऐसे सूक्ष्म लोक तक हो गयी थी जहाँ किसी भी इच्छा को तुरन्त मूर्त रूप दिया जा सकता है। हज़रत, जो उस सूक्ष्मलोक का एक जीव था, की सहायता से अफ़ज़ल अपनी बलवन्त इच्छाशक्ति के द्वारा सूक्ष्म उर्जा से किसी भी वस्तु के अणुओं को खींचकर उस वस्तु को प्रकट कर सकता था। परन्तु इस प्रकार सूक्ष्म शक्ति को मूर्त रूप देकर तैयार की गयी वस्तुओं की रचना ही ऐसी होती है कि ये थोड़े समय के लिये ही अस्तित्व में रह सकती हैं। अफ़ज़ल को अभी भी इस जगत् की संपत्ति की तृष्णा थी जिसे कमाने के लिये अधिक मेहनत तो करनी पड़ती है, पर जो अधिक टिकाऊ भी होती है।”

मैं हँस पड़ा। “वह भी तो कभी-कभी अनोखे ढंग से गायब हो जाती है!”

“अफ़ज़ल ईश्वर प्राप्त संत नहीं था,” गुरुदेव आगे कहते गये। “स्थायी और कल्याणप्रद प्रकार के चमत्कार केवल सच्चे संत ही कर सकते हैं क्योंकि वे सर्वशक्तिमान जगतसृष्टा के साथ एकात्मता प्राप्त कर चुके होते हैं। अफ़ज़ल केवल एक साधारण मनुष्य था, जिसे एक ऐसे सूक्ष्मलोक में प्रवेश करने की असाधारण शक्ति प्राप्त थी, जहाँ मर्त्य मानव मृत्यु के पहले प्रवेश नहीं कर सकते।”

“अब मेरी समझ में आ गया, गुरुजी ! परलोक में काफी मोहक आकर्षण जान पड़ते हैं।”

गुरुदेव इससे सहमत हो गये। “मैंने उस दिन के बाद अफ़ज़ल को फिर कभी नहीं देखा। परन्तु कुछ वर्षों बाद बाबू एक दिन मेरे घर समाचार पत्र में छपी अफ़ज़ल की खुली स्वीकारोक्ति का विवरण दिखाने आया। मैंने तुम्हें उसके बचपन में हिन्दू गुरु से दीक्षा मिलने की जो बात अभीअभी बतायी थी, उसकी जानकारी मुझे उसी विवरण से हुई थी।”

श्रीयुक्तेश्वरजी को जो याद था, उसके अनुसार उस प्रकाशित विवरण के अन्तिम भाग का सारांश इस प्रकार था: “मैं अफ़ज़ल खान, पश्चाताप के रूप में और अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त करने के इच्छुकों को सावधान करने के लिये यह सब लिख रहा हूँ। भगवान और मेरे गुरु की कृपा से मुझे जो अद्भुत क्षमताएँ प्राप्त हुई थीं, उनका मैं कई वर्षों से दुरुपयोग करता आ रहा हूँ। अहंकार के मद में चूर होकर मैं समझने लगा था कि मैं नैतिकता के सामान्य नियमों से परे हूँ। आखिर मेरे न्याय का दिन भी आ गया।

“हाल ही में कोलकाता के बाहर सड़क पर मेरी एक बूढ़े आदमी से मुलाकात हुई। वह दर्द के कारण लँगड़ाता हुआ चल रहा था। उसके हाथ में सोने जैसी कोई वस्तु चमक रही थी। मेरे मन में लालच पैदा हो गया और मैंने उससे कहाः

“ ‘मैं महान् फ़क़ीर अफ़ज़ल खान हूँ। तुम्हारे हाथ में क्या है ?’

“ ‘यह सोने का गोला संसार में मेरी एकमात्र सम्पत्ति है; एक फ़क़ीर के लिये यह बेकार है। मेरी आपसे प्रार्थना है, महोदय ! मेरा यह लँगड़ाना ठीक कर दीजिये।’

“ ‘मैंने उस गोले का स्पर्श किया और कोई उत्तर दिये बिना आगे बढ़ गया। वह बूढ़ा लँगड़ाते-लँगड़ाते मेरे पीछे-पीछे आने लगा। अचानक वह शोर मचाने लग गया: 'मेरा सोना ग़ायब हो गया!'

“जब मैंने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया, तब वह अचानक बुलंद आवाज़ में बात करने लगा जो उसके जीर्ण-शीर्ण शरीर से निकलती बड़ी ही अजीब लग रही थी:

“ ‘क्या तुमने मुझे पहचाना नहीं?’

“मैं अवाक् रह गया; इतनी देर बाद इस बात के ध्यान में आते ही मैं स्तब्ध रह गया कि वह दुर्बल लगने वाला लँगड़ा बूढ़ा कोई और नहीं, वही महान् संत थे जिन्होंने कई वर्ष पहले मुझे योग की दीक्षा दी थी। वे सीधे खड़े हो गये; उनका शरीर एक क्षण में मज़बूत और जवान हो गया।

मेरे गुरु की आँखों से अँगारे बरस रहे थे। “ ‘तो! मैं स्वयं अपनी आँखों से देख रहा हूँ कि तुम अपनी शक्तियों का उपयोग दुःख पीड़ित मानवजाति की सहायता के लिये नहीं, बल्कि एक घटिया चोर की तरह उसे लूटने के लिये करते हो ! मैं तुम्हारी सारी शक्तियाँ वापस लेता हूँ; हज़रत अब तुम से मुक्त हो गया। अब तुम बंगाल के आतंक बन कर नहीं रहोगे।’

“मैंने बेहद दर्दभरी आवाज़ में हज़रत को बार-बार पुकारा; यह पहला मौका था जब वह मेरी अन्तर्दृष्टि के सामने प्रकट नहीं हुआ। लेकिन मेरी बुद्धि पर पड़ा एक काला पर्दा अचानक हट गया; मैंने साफ देखा कि मेरी जिंदगी कितनी निन्दनीय हो गयी थी।

“मैं सुबकते हुए गुरुजी के चरणों में गिर पड़ा। मैंने कहा: ‘मेरे पूज्य गुरुदेव! मेरी लम्बी नींद को तोड़ने के लिये आप आये, इसलिये मैं आपका शुक्रगुजार हूँ। मैं आपसे वादा करता हूँ कि मैं अपनी सारी सांसारिक महत्त्वाकांक्षाओं को त्यागकर भगवान का ध्यान करने के लिये पर्वतों में चला जाऊँगा और आशा करता हूँ कि इससे मेरे पाप भरे अतीत का प्रायश्चित्त हो जायेगा।’

“मेरे गुरु चुपचाप खड़े सहानुभूतिपूर्वक मुझे देखते रहे। आखिर उन्होंने कहाः मैं तुम्हारे हृदय की सच्चाई को देख रहा हूँ। शुरूआत के वर्षों में तुमने जो कठोर आज्ञा पालन किया और आज जिस सच्चे प्रायश्चित्त की आग में तुम जल रहे हो, उसके लिये मैं तुम्हें एक वर देता हू। तुम्हारी अन्य सारी शक्तियाँ तो समाप्त हो गयीं पर जब भी तुम्हें अन्न या वस्त्र की आवश्यकता होगी, तब तुम अभी भी हज़रत से वह प्राप्त कर सकते हो। पर्वतों के एकान्त में पूरा मन लगाकर ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करने में अपने आपको समर्पित कर दो।’

“फिर मेरे गुरु अंतर्धान हो गये; वहाँ रह गये थे मैं और मेरे आँसू और अतीत के विचारों पर तड़पता मेरा मन । अलविदा, दुनिया! मैं अब उस विराट् प्रेमी की क्षमा प्राप्त करने का प्रयत्न करने जा रहा हूँ।”


¹ बाद में एक दिन मेरे पिताजी ने मुझे बताया कि अफ़ज़ल की करामात का शिकार बनीं कंपनियों में उनकी कंपनी बंगाल नागपुर रेलवे भी शामिल थी।

² मुझे श्रीयुक्तेश्वरजी के उस मित्र का नाम याद नहीं, अतः यहाँ उनका नाम केवल 'बाबू' ही लिखना होगा।

³ ठीक उसी प्रकार, जैसे शून्य से प्राप्त हुआ मेरा तावीज अन्ततः इस जगत् से गायब हो गया। (सूक्ष्म लोक का वर्णन ४३वें प्रकरण में है)