एक योगी की आत्मकथा - 17 Ira द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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एक योगी की आत्मकथा - 17

{ शशि और तीन नीलम }

“तुम्हारी और मेरे बेटे की स्वामी श्रीयुक्तैश्वरजी के बारे में इतनी ऊँची धारणा होने के कारण ही में किसी दिन उनसे मिलने आ जाऊंगा।” डॉक्टर नारायण चंदर राय के स्वर से यह स्पष्ट था कि वे केवल मूर्खों की सनक के प्रति सौजन्य दिखा रहे थे। मतांतरण करने वालों की परंपरा के अनुसार मैंने अपने रोष को अन्दर ही अन्दर दबा लिया।

ये डॉक्टर महोदय, जो पशु चिकित्सक थे, विचारों से पक्के नास्तिक थे। उनके युवा पुत्र सन्तोष ने मुझसे उनमें रुचि लेने के लिये अनुनयविनय किया था। अभी तक तो मेरी अमूल्य सहायता कुछ अदृश्य स्तर पर ही प्रतीत हो रही थी।

दूसरे दिन डाक्टर राय मेरे साथ श्रीरामपुर आश्रम में आये। श्रीयुक्तेश्वरजी के साथ अल्पकालिक साक्षात्कार के बाद, जिसका अधिकांश समय दोनों ओर से दृढ़ मौन में ही कट गया था, वे हठात् यहाँ से निकलकर चल पड़े

“किसी मरे हुए मनुष्य को आश्रम में लाने का क्या प्रयोजन है?” कोलकाता के उस नास्तिक के चले जाने के बाद जैसे ही दरवाता बन्द हुआ, श्रीयुक्तेश्वरजी मेरी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखते हुए पूछने लगे।

“गुरुदेव डॉक्टर तो जीते-जागते मनुष्य हैं।”

“किन्तु शीघ्र ही वे मरने वाले हैं।”

मैं स्तब्ध रह गया “गुरुदेव इससे उनके बेटे को भयंकर आघात लगेगा सन्तोष को अभी भी आशा है कि समय उसके पिता के भौतिकतावादी दृष्टिकोण को बदल देगा मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, गुरुदेव उनकी सहायता कीजिये।”

“ठीक है तुम्हारी खातिर।” गुरुजी का चेहरा भावशून्य था। “यह अहंकारी घोड़ा डॉक्टर भीतर ही भीतर मधुमेह की बीमारी से जर्जर हो चुका है, परन्तु उसे इसकी जानकारी नहीं है। पन्द्रह दिन में वह बिस्तर पकड़ लेगा। चिकित्सक जबाब दे देंगे। उसका इस लोक से विदा होने का नैसर्गिक समय आज से छह सप्ताहों के पूरे होते ही तय है। किन्तु तुम्हारी मध्यस्थता के कारण उस दिन वह अच्छा हो जायेगा। परन्तु एक शर्त है उसे ग्रहशांति के लिये कड़ा पहनना पड़ेगा। वह निस्संशय ऑपरेशन के पहले कोई घोड़ा जैसी उछलकूद करता है, वैसा ही उग्रता के साथ प्रतिकार करेगा।” इतना कहकर गुरुदेव हँस पड़े।

कुछ देर मौन छाया रहा, जिसमें मैं यही सोचता रहा कि सन्तोष और मैं खुशामद का कौन सा तरीका अपनाकर डॉक्टर को सहमत करा पायेंगे। श्रीयुक्तैश्वरजी ने कुछ और बातें कही।

“जैसे ही वह अच्छा हो जायेगा, उससे कहो कि वह मांसाहार न करे। किन्तु वह इस परामर्श को नहीं मानेगा और छह महीनों में, जब उसे अपना स्वास्थ्य पूर्णतः अच्छा लग रहा होगा, अचानक चल बसेगा।” मेरे गुरु ने आगे कहा: “जीवन के ये छह अतिरिक्त महीने उसे केवल तुम्हारी प्रार्थना के कारण दिये जा रहे हैं।”

दूसरे दिन मैंने सन्तोष को बताया कि वह जौहरी को कड़ा बनाने के लिये कह दें। एक सप्ताह में कड़ा बनकर आ गया, परन्तु डॉक्टर ने उसे पहनने से इन्कार कर दिया।

“मेरा स्वास्थ्य एकदम ठीक है। तुम लोग इस ज्योतिष की अंधश्रद्धा को मेरे मन में कभी प्रवेश नहीं दिला सकते।” डॉक्टर युद्ध के लिये ललकारने की दृष्टि से मेरी ओर देख रहे थे।

मुझे कौतुक के साथ स्मरण हो आया कि गुरुदेव ने इस आदमी की अड़ियल घोड़े के साथ योग्य ही तुलना की थी। सात दिन बीत गये; डॉक्टर अचानक बीमार हो गये और तब नम्रता के साथ कड़ा पहनने के लिये राज़ी हो गये। दो सप्ताह बाद उनका इलाज करने वाले डॉक्टर ने मुझे बताया कि उनके बचने की कोई आशा नहीं है। उन्होंने मधुमेह से

उनके शरीर में भीतर ही भीतर हुई विध्वंसकारी क्षति का हृदयविदारक विस्तारसहित वर्णन भी मुझे सुना दिया।

मैंने असहमति में सिर हिलाकर कहा: “मेरे गुरु ने कहा है कि एक महीने की रुग्णता के बाद डॉक्टर राय ठीक हो जायेंगे।”

डॉक्टर अविश्वास से मेरी ओर देखते ही रह गये। परन्तु पन्द्रह दिन बाद सकुचाते हुए वे मेरे पास आये।

“डॉक्टर राय पूर्ण स्वस्थ हो गये हैं।” ये बोल पड़े। “मेरे देखने में यह सबसे विस्मयचकित कर देने वाली घटना है। इससे पहले कभी भी मैंने किसी मरणासन्न व्यक्ति को इस प्रकार अकल्पनीय रूप से स्वस्थ होते नहीं देखा तुम्हारे गुरु सचमुच रोगमुक्त करने वाली शक्ति से संपन्न कोई सिद्ध पुरुष हैं।”

डॉक्टर राव से एक भेंट के बाद जिसमें मैंने मांसाहार वर्जित करने की श्रीयुक्तैश्वरजी की सलाह दुहरा दी, मैं छह महीने तक फिर उनसे नहीं मिला। एक दिन शाम को मैं अपने घर के बरामदे में बाहर बैठा हुआ था तो वे मुझसे बातें करने के लिये थोड़ी देर रुक गये।

“अपने गुरु से बोल दो कि बार-बार मांसाहार करने से ही मैंने अपनी पुरानी शक्ति फिर से पूर्णतः प्राप्त कर ली है। भोजन के बारे में उनकी अवैज्ञानिक कल्पनाओं का मुझ पर कोई असर नहीं पड़ा।” यह सच था कि डॉक्टर राय पूर्ण स्वास्थ्य की साक्षात् मूर्ति दिखायी पड़ रहे थे।

किन्तु सन्तोष दूसरे ही दिन पड़ोस के अपने घर से दौड़ता हुआ मेरे पास आया। “आज सुबह पिताजी की मृत्यु हो गयी।”

गुरुजी के साथ मेरे अनेक अनुभवों में से यह अनुभव सबसे विलक्षण था। उन्होंने उस विद्रोही पशु चिकित्सक को उसके अविश्वास के बावजूद रोगमुक्त कर दिया और पृथ्वी पर उसके जीवन की नैसर्गिक अवधि छह महीनों से बढ़ा दी – केवल इस कारण कि मैंने इसकी तीव्र प्रार्थना की थी। भक्त की उत्कृष्ट प्रार्थना को पूर्ण करने में श्रीयुक्तेश्वरजी अपार दया के सागर थे।

अपने मित्रों को श्रीयुक्तेश्वरजी के पास ले आना मेरा सबसे बड़ा सौभाग्य था। उनमें से अनेक कम से कम आश्रम में, पढ़े-लिखे लोगों में प्रचलित नास्तिकता का अपना जामा उतार फेंकते थे।

मेरा एक मित्र शशि, अनेक रविवार श्रीरामपुर में आश्रम में बिताता था। गुरुदेव उसे बहुत चाहने लगे थे पर उन्हें उसके उच्छृंखल और असंयत जीवन पर खेद होता था।

“शशि! अगर तुमने अपने तौर-तरीके नहीं बदले, तो अब से एक साल में तुम घातक रूप से बीमार हो जाओगे।” श्रीयुक्तेश्वरजी मेरे मित्र की ओर प्रेम भरे रोष के साथ देख रहे थे। “मुकुन्द साक्षी है; बाद में मत कहना कि मैंने तुम्हें सावधान नहीं किया था।”

शशि ने हँस कर कहा: “गुरुदेव! मेरी इस शोचनीय दशा में मेरे भाग्य को नियंत्रित करने वाली शक्तियों को मेरे प्रति दीनवत्सल बनाने का भार मैं आप पर छोड़ता हूँ। मैं सुधरना चाहता तो हूँ, पर मेरा मन अति दुर्बल है। पृथ्वी पर मेरे रक्षणकर्ता केवल आप ही है; मैं किसी और बात में विश्वास नहीं करता।”

“तो कम से कम दो कैरेट का एक नीलम तुम धारण करो उससे तुम्हारी सहायता होगी।”


“मैं उसे खरीदने में असमर्थ हूँ और वैसे भी, गुरुजी, यदि कोई विपत्ति आ ही जाती है, तो मुझे पूरा विश्वास है कि आप मेरी रक्षा करेंगे।” “तुम एक वर्ष के अन्दर तीन नौलम ले आओगे पर तब उनसे कोई लाभ नहीं होगा,” श्रीयुकेश्वरजी ने कहा

थोड़े बहुत फेरबदल के साथ यही बातें नियमित रूप से चलती रहती थीं “मैं सुधर नहीं सकता।” शशि हास्यप्रद निराशा के स्वर में कहता “और आपमें मेरा विश्वास मेरे लिये किसी रत्न से अधिक मूल्यवान है, गुरुदेव!”

एक वर्ष बीत गया। एक दिन मैं कोलकाता में गुरुदेव के एक शिष्य नरेन बाबू के घर में गुरुदेव से मिलने गया जहाँ वे ठहरे हुए थे। सुबह दस बजे जब श्रीयुक्तेश्वरजी और मैं दूसरी मंजिल के बैठक खाने में बैठे हुए थे, तब मैंने सामने के द्वार के खुलने की आवाज सुनी गुरुदेव का शरीर एकदम सख्त और सीधा हो गया।

उन्होंने गम्भीरतापूर्वक कहा “ये वह शशि है। एक वर्ष पूरा हो गया उसके दोनों फेफड़े बेकार हो चुके हैं। उसने मेरी बात नहीं मानी; उससे कह दो कि मैं उससे मिलना नहीं चाहता।”

श्रीयुक्तेश्वरजी की कठोरता देखकर मैं स्तम्भित रह गया और तेजी से सीढ़ियों से नीचे उतरने लगा। शशि सीढ़ियाँ चढ़ रहा था।

“ओ मुकुन्द! मुझे आशा है कि गुरुदेव यहाँ है; मेरे मन में अचानक यह विचार उठा था कि वे यहाँ हो सकते हैं।”

“हाँ, परन्तु वे किसी से मिलना नहीं चाहते।”

शशि अचानक रो पड़ा और मुझे एक तरफ ठेलकर तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ गया। अपने आप को उसने श्रीयुक्तेश्वरजी के चरणों में झोंक दिया और तीन सुन्दर नीलम निकालकर वहाँ रख दिये।

“हे सर्वज्ञ गुरुदेव डॉक्टर लोग कहते हैं कि मुझे फेफड़ों का क्षयरोग हो गया है। वे कहते हैं कि मैं तीन महीनों से अधिक जीवित नहीं रह सकता! आपकी सहायता के लिये मैं आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ: मैं जानता हूँ कि आप मुझे रोगमुक्त कर सकते हैं!”

“अपने जीवन की चिंता करने में अब थोड़ी देर नहीं हो गयी है? अपने रत्न लेकर यहाँ से चले जाओ, उनकी उपयोगिता का समय बीत चुका है।“ और तब गुरुदेव कठोर मौन धारण करके पत्थर की मूर्ति के समान निर्विकार चेहरे से बैठे रहे। बीच-बीच में केवल दया की भीख माँगते हुए शशि की सिसकियाँ सुनायी दे रही थीं

मेरे अन्तर्मन में एक ऐसी दृढ़ धारणा जागी कि श्रीयुक्तेश्वरजी रोगमुक्त करने की दैवी शक्ति में शशि के विश्वास की गहराई की केवल परीक्षा ले रहे हैं। इसलिये एक घंटे के तनावपूर्ण समय के बीतने के बाद जब श्रीयुक्तेश्वरजी ने मेरे साष्टांग प्रणत मित्र पर सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि डाली तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

“उठो शशि दूसरे के घर में तुमने कितनी गड़बड़ मचा रखी है। ये नीलम जौहरी को वापस कर दो, इन पर खर्च करने को अब आवश्यकता नहीं परन्तु ग्रहशान्ति का एक कड़ा ले आओ और उसे पहनो घबराओ मत: कुछ ही सप्ताहों में तुम ठीक हो जाओगे।”

शशि की मुस्कराहट ने उसके अनुसिक्त चेहरे को ऐसा उज्वल बना दिया जैसे भीगे हुए, आद्र प्रतीत होते भूप्रदेश पर अचानक सूर्य की किरणें निकल आयी हों। “पूज्य गुरुदेव क्या मैं डाक्टरों की दवाएँ भी लेता रहूँ?”

“जैसा तुम चाहो उन्हें चाहे लो या फेंक दो; इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अब तुम्हारा क्षयरोग से मरना उतना ही असंभव है जितना सूर्य और चन्द्र का आपस में अपने स्थान बदलना।” फिर अचानक श्रीयुक्तेश्वरजी कह उठे “इससे पहले कि मेरा विचार बदल जाये, अब यहाँ से चले जाओ।”

घबराकर उन्हें तुरन्त नमस्कार कर शशि शीघ्रता से वहाँ से चला गया। अगले कुछ सालो में मैं अनेक बार जाकर उससे मिला और दिन-ब-दिन उसकी बिगड़ती अवस्था देखकर हैरान रह गया।

“शशि आज की रात नहीं निकाल सकता।” उसके डॉक्टर के इन शब्दों को सुनकर और मेरे मित्र के अस्थिपंजर देह को देखकर मैं शीघ्रातिशीघ्र श्रीरामपुर जा पहुंचा। मेरे अश्रुपूरित वृतान्त को गुरुदेव निःस्पृह भाव से सुनते रहे।

“तुम यहाँ मुझे परेशान करने क्यों आ गये? तुम्हारे सामने ही तो मैंने शशि को स्वास्थ्यलाभ का आश्वासन दिया था।”

अत्यंत श्रद्धा के साथ उन्हें नमस्कार कर मैं दरवाजे की ओर बढ़ा। श्रीयुक्तेश्वरजी ने विदाई-सूचक एक भी शब्द मुँह से नहीं निकाला, बल्कि गहरे मौन में डूब गये। उनकी पलकें झपकना बन्द हो गया, नेत्र अर्धोन्मीलित हो गये, नेत्रों की दृष्टि किसी दूसरे लोक में लग गयी।

मैं तुरन्त लौटकर कोलकाता में शशि के घर गया। विस्फारित नेत्रों से मैं देखता ही रह गया कि मेरा मित्र उठ कर बैठा हुआ दूध पी रहा है।

“ओ मुकुन्द ! क्या चमत्कार हुआ। चार घंटे पहले मैंने अपने कमरे में गुरुदेव कि उपस्थिति अनुभव कि और उसी क्षण मेरे भयंकर रोग के लक्षण गायब हो गये। मुझे लगता है कि उनकी कृपा से मैं पूर्ण स्वस्थ हो गया हूँ।”

कुछ ही सप्ताहों में शशि इतना हृष्टपुष्ट और स्वस्थ्य हो गया जितना पहले कभी नहीं था।¹ परन्तु इस रोगमुक्ति पर उसकी प्रतिक्रिया में कृतघ्नता की झलक आ गयी वह श्रीयुक्तेश्वरजी के दर्शनों के लिये फिर कभी शायद ही आया हो! एक दिन उसने मुझे बताया कि उसे अपने पूर्व जीवन के ढंग से इतना खेद हो रहा था कि गुरुदेव के सामने जाने में उसे लज्जा आती थी।

मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि शशि की बीमारी ने उस पर परस्पर विरोधी परिणाम किया था; एक ओर उसकी इच्छाशक्ति को दृढ़ कर दिया था, तो दूसरी ओर उसके आचार-विचार को खराब कर दिया था।

स्कॉटिश चर्च कॉलेज में मेरी पढ़ाई के पहले दो वर्ष समाप्त होने को आ रहे थे। कक्षा में मेरी उपस्थिति अत्यन्त कम रही थी; मैंने जो कुछ थोड़ी-सी पढ़ाई की थी, वह भी केवल अपने परिवार के लोगों को शान्त रखने के लिये की थी। मेरे दो गृह शिक्षक नियमित रूप से मेरे घर आया करते; मैं नियमित रूप से अनुपस्थित रहताः अपने छात्र जीवन में कम से कम इस एक बात में अपनी नियमितता मुझे दिखायी पड़ती है।

भारत में कॉलेज की दो वर्ष की सफल पढ़ाई के बाद इन्टर मीडिएट आर्टस् का डिप्लोमा मिलता है; उसके बाद और दो वर्ष की पढ़ाई करने के बाद विद्यार्थी अपनी बी.ए. की डिग्री की आशा कर सकता है।

इन्टर मीडिएट आर्टस् की वार्षिक परीक्षा भयंकर संकट बनकर सामने खड़ी थी। मैं पुरी भाग गया, जहाँ मेरे गुरुदेव कुछ सप्ताह रहने के लिये गये थे। मन में यह धुँधली सी आशा लिये हुए कि वे कहेंगे मुझे परीक्षा देने की आवश्यकता नहीं, मैंने उन्हें परीक्षा के लिये अपने तैयार न होने की बात बतायी।

श्रीयुक्तेश्वरजी सान्त्वनादायक ढंग से मुस्कराये। “तुमने पूर्ण मन लगाकर अपने आध्यात्मिक कर्त्तव्यों का पालन किया है, अतः कॉलेज के कार्य की उपेक्षा स्वाभाविक ही थी। अब इस अगले सप्ताह भर कठोर परिश्रम के साथ पढ़ाई करो; तुम्हें इस परीक्षा में सफलता मिल जायेगी।”

बीच-बीच में मन में उठने वाले तर्कसंगत सन्देहों को दृढ़ता के साथ दबा देता हुआ मैं कोलकाता लौट आया। अपनी मेज पर पड़ी पुस्तकों के पहाड़ को देखकर मुझे जंगल में रास्ता भटके किसी मुसाफिर जैसा लग रहा था।

लम्बे समय तक ध्यान करने के बाद मेरे मन में श्रम बचत की एक युक्ति आयी। प्रत्येक पुस्तक को कहीं भी खोलकर जो भी पृष्ठ सामने आता, उसी का केवल मैं अध्ययन करता। इस प्रकार एक सप्ताह तक प्रतिदिन अठारह घंटों तक पढ़ाई करने के बाद मैं अपने आपको रटने की कला में निपुण मानने लगा।

आगामी दिनों में परीक्षा के दौरान यह सिद्ध हो गया कि इस प्रकार की दैवाधीन या अस्तव्यस्त प्रतीत होने वाली मेरी पढ़ाई की पद्धति योग्य ही थी। सभी विषयों में मैं न्यूनतम से अत्यल्प ही अधिक अंकों से ही क्यों न हो, पास हो गया। मित्रों और परिजनों द्वारा किये गये अभिनंदन में आश्चर्योद्गार भी इस तरह से शामिल थे कि सुनते ही हँसी आती थी।

पुरी से जब श्रीयुक्तेश्वरजी लौट आये तो उन्होंने मुझे एक सुखद आश्चर्य दिया।

“कोलकाता में तुम्हारी पढ़ाई अब समाप्त हुई,” उन्होंने कहा। “अब मैं ऐसी व्यवस्था करता हूँ कि तुम विश्वविद्यालय की अगले दो वर्षों की पढ़ाई श्रीरामपुर में ही रह कर कर सको।”

मैं उलझन में पड़ गया। “गुरुदेव! इस कस्बे में तो बी.ए. का कोर्स नहीं है।” वहाँ उच्च शिक्षा की एकमात्र संस्था श्रीरामपुर कॉलेज ही थी और वहाँ केवल इण्टर तक की ही पढ़ाई की व्यवस्था थी।

गुरुदेव के चेहरे पर शरारतभरी मुस्कराहट उभर आयी। “अब तुम्हारे लिये बी.ए. का कॉलेज बनाने की खातिर चंदा जमा करते घूमने की तो मेरी उम्र नहीं रही। लगता है मुझे किसी और के माध्यम से ही यह व्यवस्था करनी पड़ेगी।'

दो महीने बाद श्रीरामपुर कॉलेज के अध्यक्ष प्रोफेसर हॉवेल्स ने सार्वजनिक घोषणा की कि चार वर्ष का डिग्री कोर्स शुरू करने के लिये पर्याप्त धन एकत्रित करने में उन्हें सफलता मिल गयी है। श्रीरामपुर कॉलेज कोलकाता विश्वविद्यालय की संबद्ध शाखा बन गया। उस कॉलेज में बी.ए. के कोर्स के लिये दाखिला लेने वाले प्रथम छात्रों में मैं एक था।

“गुरुजी आप मेरे प्रति कितने दयालु हैं! न जाने कितने दिनों से मेरी इच्छा थी कि कोलकाता छोड़कर यहाँ श्रीरामपुर में ही मैं प्रतिदिन आपके पास रहूँ। प्रोफेसर हॉवेल्स को स्वप्न में भी इस की कल्पना नहीं होगी कि उनकी सफलता में आपकी मौन सहायता का कितना हाथ है !”

श्रीयुक्तेश्वरजी ने कृत्रिम कठोरता से मेरी ओर देखा। “अब तुम्हें ट्रेन पर इतने सारे घंटे बिताने नहीं पड़ेंगे और पढ़ाई के लिये बहुत सारा खाली समय मिलेगा। शायद अब तुम आखरी समय में रट रट कर पास होने वाले न रहकर सच्चे अध्ययनकर्त्ता विद्यार्थी बनोगे।”

परन्तु उनके स्वर में कहीं विश्वास का अभाव लग रहा था।²




¹ १९३६ में मैंने एक मित्र से सुना कि शशि का स्वास्थ्य तब भी अत्यन्त उत्तम था

² अन्य अनेक मनीषियों की भाँति श्रीयुक्तेश्वरजी को भी आधुनिक शिक्षा की भौतिकतावादी प्रवृत्ति का दुःख था। सुख प्राप्ति के लिये आध्यात्मिक नियमों के महत्त्व को स्पष्ट करने वाली या यह शिक्षा देने वाली शिक्षण संस्थाएँ अत्यल्प ही हैं कि ईश्वर में श्रद्धा और आदर युक्त भीति रखकर अपने जीवन को चलाने में ही बुद्धिमानी है।
हाईस्कूलों और कॉलेजों में आज बच्चों और युवाओं को यह सिखाया जाता है कि मानव एक “उच्चतर प्राणी” मात्र है। ऐसे युवा प्रायः नास्तिक बन जाते हैं। फिर वे आत्मानुसंधान का कोई प्रयास भी करके नहीं देखते, न ही वे अपने को अपने मूल स्वरूप में ईश्वर की प्रतिमूर्ति मानते हैं। इमरसन ने कहा था: “हमारे भीतर जो कुछ है वही हम बाहर देखते हैं। यदि बाहर हमें कोई देवता नहीं दिखते तो उसका कारण यह है कि हमने अपने भीतर किसी देवता को कभी बसाया ही नहीं।” जो अपनी पशु- प्रकृति को ही अपनी एकमात्र वास्तविकता मानते हैं, वे दिव्याकांक्षाओं से विलग हो जाते हैं।
जो शिक्षा पद्धति परमतत्त्व की मानव के अस्तित्त्व के केन्द्रीय तत्व के रूप में प्रस्तुत नहीकरती वह अविद्या या मिथ्या ज्ञान ही प्रदान करती है। “तुम कहते हो मे धनी हूं विविध सम्पदाओं का स्वामी हूँ, मेरे पास किसी भी चीज़ का अभाव नहीं है; और तुम यह जानते भी नहीं कि तुम हतभाग्य हो, दुःखी हो, दरिद्र हो, अन्धे हो और नग्न हो" (प्रकाशितवाक्य ३ : १७, बाइबिल)।
“प्राचीन भारत में बच्चों को आदर्श शिक्षा मिलती थी। नौ वर्ष की आयु में शिष्य को गुरुकुल में पुत्ररूप में स्वीकार किया जाता था। इंडियन कल्चर थ्रू द एजेस (प्रथम खंड, लौंगमन्स, ग्रीन एण्ड कम्पनी) नामक पुस्तक में प्रोफेसर एस. व्ही. वेंकटेश्वर लिखते हैं: 'आधुनिक बालक (वर्ष में) अपने समय का केवल अष्टमांश भाग ही विद्यालय में व्यतीत करता है, भारतीय बालक सारा समय वहीं रहता था। उस समय एकता और उत्तरदायित्त्व की स्वस्थ भावना रहती थी और आत्मनिर्भरता एवं व्यक्तिगत विशिष्टता को प्रयोग में लाने का पर्याप्त अवसर था। उस समय उच्च स्तर के संस्कार होते थे, शिष्यों द्वारा स्वेच्छा-गृहीत अनुशासन का पालन किया जाता था, तथा कर्त्तव्य, निःस्वार्थ कर्म एवं त्याग के प्रति दृढ़ निष्ठा थी और आत्म-सम्मान एवं दूसरों के भी सम्मान को भावना थी। शिक्षा की गरिमा का एक उच्च स्तर था। मानव जीवन की महिमा एवं उसके महान् उद्देश्य का बोध था।”