सोई तकदीर की मलिकाएँ - 65 - अंतिम भाग Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 65 - अंतिम भाग

 

65


चरण सिंह रह रह कर गुस्से से तिलमिला रहा था । कितने अरमान से उसने अपनी बहन का ब्याह यहाँ इस घर में किया था । सोचा था , जयकौर वहाँ हवेली में राजरानी बन कर रहेगी और हमें भी राज कराएगी । खुद भी सोने से मढी रहेगी और अगर किस्मत ने साथ दिया तो अंग्रेज और छिंदर के बदन पर भी गहने सजने लगेंगे । पर इस बेअकल लङकी ने सब मटियामेट कर दिया । भला उस मेहरो के लङके को यहाँ हवेली में ला कर बसाने की क्या जरूरत थी । पता नहीं कब से दोनों के बीच यह आशनाई चल रही थी । यह सब हमें क्यों नहीं दिखाई दिया । वक्त रहते यह हमें दिख जाता तो उस बङे रांझे को मार कर वहीं किसी खेत में गाङ देते । चला था कुत्ते की तरह मुँह मारने । भाग कहाँ गया हरामी की औलाद । हाथ आ जाए तो दोनों हाथों से गरदन मरोङ दूँ । ये साले कमीन जिस थाली में खांएंगे , उसी में छेद करेंगे । और ये जयकौर , इसका दिमाग क्यों खराब हो गया । इतनी भी जवानी परेशान करने लगी कि उस कमीन से यारी कर बैठी । जितना वह इस विषय पर सोचता , उतना ही तमतमा जाता ।
शरण सिंह फर्श पर ही खाट से पीठ टिकाए शर्म के मारे सिर झुकाए बैठा था । उसे शक तो कई बार हुआ था । जब उसे पता चला था कि सुभाष भोला सिंह का नौकर हो गया है , उनका हल चलाने लगा है , तब उसका माथा ठनका था । उस दिन जब जयकौर के साथ सुभाष कम्मेआना आया था , तब भी वह पूछते पूछते रह गया था । आधी रात को जयकौर का बाहर का दरवाजा खोल कर बाहर गली में जाना और तुरंत बाहर से लौट कर पानी पीने के लिए नलका चलाना भी उसे अजीब लगा था । उसने उठ कर टोका भी था कि अभी तो आधी रात बाकी है , तू सोई नहीं अभी तक । फिर उसने अपने मन को समझा लिया था कि नहीं अब तो जयकौर शादी शुदा है । इतनी बङी हवेली की मालकिन है । यह सब उसके मन का वहम है । जयकौर को किस चीज की कमी है , वह ऐसा क्यों करेगी पर इन लङकियों की गर्दन के पीछे अक्ल होती है । उसका इस्तेमाल करना भी इन्हें नहीं आता । शरण सिंह अपने ख्यालों में गुम था । बसंत कौर से दोनों भाई नजरें मिलाएं भी तो कैसे । आखिर चरण सिंह हिम्मत करके उठा और दोनों हाथ जोङ कर बसंत कौर से बोला – हमें माफ करना बहन जी । हम अब चलेंगे । सरदार साहब से हमारी ओर से माफी मांग लेना ।
ऐसे मत जाओ , अभी संस्कार हो जाने दो । एक घंटे में सब खत्म हो जाएगा तो चले जाना , वरना ... दुनिया को कैसे चुप करवाओगे ।
इस लङकी ने हमें कहीं मुँह दिखाने लायक छोङा ही नहीं बहन जी ।
देखो जो होना था , वह तो हो चुका । अब अगर आप इस तरह संस्कार करवाए बिना चले गये चले गए तो गाँव में सौ तरह की बातें बनेंगी । जो राज सिर्फ हमें ही पता है वह जग जाहिर हो जाएगा । इसलिए थोङा सबर से काम लो ।
हमारा तो मन यह सब सुन देख कर रुकने का बिल्कुल नहीं है पर आपका हुक्म सिर मत्थे । जैसा आप चाहोगे , वैसा ही होगा ।
बसंत कौर बाहर चली आई । आंगन में जयकौर को नहला धुला कर नये कपङे पहना दिए गये थे । लोग अरथी ले जाने को तैयार खङे थे । चंद मिनटों में ही अर्थी शमशान घाट पहुंचा दी गई और तुरंत आग के सुपुर्द भी कर दी गई । ये चारों शमशान से ही बस अड्डे गए और कम्मेआना लौट आए ।
भङका हुआ शरण सुभाष के घर जाकर दो चार गालियां देकर मन शांत करना चाहता था पर दोनों औरतों ने कसम देकर उसे रोक लिया – पागल हुए हो क्या । इस समय क्या मुँह लेकर उनके घर लङने जा रहे हो । अपनी बहन की बेवकूफी का मजाक उङवाना है क्या गांव में । अभी तो गाँव में कोई नहीं जानता , फिर सारा गाँव जान जाएगा । तब तुम गाँव के लोगों का सामना कर सकोगे , बोलो । और जिसने यह कांड किया है , वह तो भाग कर न जाने कहाँ छिप गया है । जयकौर भी अब इस दुनिया में नहीं है और न उसका वह नाजायज बच्चा तो किससे लङोगे और किसके लिए । शरण के बढते कदम वहीं रुक गए ।
चरण ने ठंडा सांस भर कर कहा – औरत को आज तक कोई नहीं समझ पाया तो हम क्या समझेंगे भाई । राजा सलवान ने कोकला नाम की लङकी से ब्याह करवाना था । उसने कोकला को एक साल की उम्र से पाला । आदमी की नजर से बचा कर रखने केलिए मीनार में कैद करवा कर कङे पहरे में रखवाया । चौदह साल की कोकला को किले के झरोखे से एक लकङहारा दिखाई दे गया तो किले की दीवार से रस्सा पेंक कर उस लकङहारे से इश्क लङाती रही । सलवान को बहुत बाद में पता चला । उसने गुस्से में उस लकङहारे को जंगल में मरवा दिया । कहते हैं कोकला ने यह खबर सुनते ही जहर खाकर प्राण दे दिए । ऐसी होती हैं लङकियाँ । ये किसी की सगी नहीं होती ।
भोलासिंह ने सोचा – ये लङकी एक बार तो कह कर देखती कि उसे सुभाष पसंद है तो वह खुशी खुशी उनका घर बसाने में मदद कर देता । शादी वाले दिन नहीं बता सकी थी तो यहाँ हवेली में ही आकर बता देती । वह लोगों की परवाह किए बिना उन्हें मिला देता । वह इतनी सी बात न तो भाइयों से कह पाई , न उससे । इस तरह बेआई मौत मर कर उसे क्या मिला ।
अकेली बसंत कौर ही थी जो सचमुच जयकौर के इस तरह दुनिया छोङ कर चले जाने को लेकर दुखी थी । रह रह कर उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे । बेचारी जयकौर , न भाइयों ने उसका मन समझा , न भोला सिंह ने और न सुभाष ने । सब ने उसको अपनी सहूलत के हिसाब से इस्तेमाल किया । भाइयों ने जमीन खरीदने और ट्रैक्टर हासिल करने के लिए उसको भोला सिंह के हवाले कर दिया बिना उसकी इच्छा जाने , उसकी सहमति के बिना । भोला सिंह उसको ले आया जमीन और हवेली के वारिस के लिए । और सुभाष , सुभाष तो वासना का पुतला निकला । जी भर कर जयकौर की भावनाओं से खेला और आखिर में कायरों की तरह भाग निकला ।
धीरे धीरे जयकौर लोगों की याददाशत से ओझल हो गई । लोग उसका नाम भी भूल गये । चरण और शरण अब जमीन के मालिक हो गए हैं और अपने खेत में शान से भोला सिंह के ट्रैक्टर से खेती करते हैं । भोला सिंह ने अपना भतीजा अपना वारिस घोषित कर दिया है । और हाँ ऋषिकेश में गंगा किनारे प्रेमानंद नाम का फकीर गंगा की रेत पर बैठा बुल्ले शाह की काफियां गाता रहता है । हाथ की थाली बजा कर फरीद के श्लोक भी गा लेता है । कोई कुछ खिला जाता है तो खा लेता है वरना गंगा जल पीकर वहीं रेत पर सो रहता है । शायद यही उसका प्रायश्चित है ।

 

 

समाप्त