श्री चैतन्य महाप्रभु - 12 Charu Mittal द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 12

गोदावरीके तटपर राय-रामानन्द से मिलन
इस प्रकार भट्ट परिवार पर कृपा कर प्रभु गोदावरी के तटपर पहुँचे। गोदावरी का दर्शन कर उन्हें यमुना का स्मरण हो आया। उन्होंने आनन्द पूर्वक उसमें स्नान किया तथा घाट से कुछ दूरी पर बैठकर कृष्ण नाम-कीर्तन करने लगे उसी समय श्रीराय रामानन्द जी राज वेश में बहुत-से ब्राह्मणों के साथ गोदावरी में स्नान करने के लिए वहाँ पर उपस्थित हुए वे कृष्ण के ऐकान्तिक भक्त थे तथा कृष्ण लीला में श्रीराधा जी की प्रिय सखी श्री विशाखा जी थे प्रभु का दर्शनकर वे मुग्ध हो गये और श्रीमन् महाप्रभु भी उन्हें देखकर पहचान गये कि ये ही राय-रामानन्द हैं। अतः वे अधीर होकर उन्हें आलिङ्गन करना चाहते थे, परन्तु किसी प्रकार से स्वयं को रोके रहे उसी समय राय रामानन्द जी स्वयं प्रभु के पास आये। उन्होंने प्रभु को प्रणाम किया। प्रभु ने आनन्द से पुलकित होकर उन्हें आलिङ्गन किया। उस समय वहाँ पर विजातीय लोग होने के कारण उन दोनों में कुछ विशेष वार्त्तालाप नहीं हो पाया। अतः प्रभु बोले– “रामानन्दजी! आप सन्ध्या के समय मेरे पास आना। उस समय हम कुछ कृष्ण कथा की चर्चा करेंगे।”
श्रीराय– “रामानन्द प्रभु के आदेश को शिरोधार्य कर उस समय ब्राह्मणों के साथ वापस चले गये। पुनः सन्ध्या के समय जब वे एक साधारण वेश में प्रभु से मिले तो प्रभु बहुत प्रसन्न हो गये। श्रीमन् महाप्रभु ने पूछा– “रामानन्द! आप साध्य तथा साधन तत्त्व पर कुछ प्रकाश डालिये।” राय-रामानन्द ने उत्तर दिया– “वर्णाश्रम धर्म का पालन ही साधन है और भक्ति ही साध्य है।”
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। ये चार वर्ण हैं। शास्त्रों में सभी वर्णों के लिए उनके स्वभाव के अनुसार अलग-अलग कर्त्तव्य निर्धारित किये गये हैं जो विद्याध्ययन एवं अध्यापन में रुचि रखते हैं और भक्तिमान हैं, वे ब्राह्मण हैं। वीरता एवं राज्य शासन में ही जिनकी रुचि है, वे क्षत्रिय हैं। कृषि, पशुपालन और व्यवसाय इत्यादि में जिनकी स्वाभाविक रुचि है, वे वैश्य कहलाते हैं। इन तीनों वर्णों की सेवा करना ही जिनका स्वभाव है, वे शूद्र कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास ये चार आश्रम हैं। अपने-अपने वर्ण एवं आश्रमों के लिए शास्त्रों में निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करने से भगवान् सन्तुष्ट होते हैं।”
यह सुनकर प्रभु बोले– “यह बाह्य विचार है। अर्थात् वर्णाश्रम धर्म का अच्छी प्रकार पालन करने पर जागतिक सुख, स्वर्ग सुख अथवा मुक्ति सुख तो प्राप्त हो सकता है, परन्तु भगवान् का धाम प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसका फल वैकुण्ठ से बाहरी होने के कारण प्रभु ने इसे बाह्य कहा तथा राय-रामानन्द से कहा– “इससे आगे कहो।” यह सुनकर राय-रामानन्द ने जब क्रमशः कर्मार्पण, कर्मत्याग, ज्ञानमिश्रा भक्ति का वर्णन करते हुए ज्ञानशून्या भक्ति के विषय में कहा तब प्रभु बोले– “रामानन्द ! यह ठीक है। परन्तु इससे भी उत्तम कुछ है तो कहिये।”
तदुपरान्त राय-रामानन्द ने क्रमशः शान्त, दास्य, सख्य, तथा वात्सल्य प्रेम का वर्णन करते हुए अन्त में मधुरभाव (गोपीभाव) को ही साध्य शिरोमणि बताया। पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण की प्राप्ति तो केवल मधुरभाव से ही हो सकती है, क्योंकि श्रीकृष्ण मधुरभाव की आश्रय गोपियों के वशीभूत रहते हैं। यह सुनकर प्रभु बोले– “रामानन्द! वास्तवमें यही साध्यतत्त्व की चरम सीमा है परन्तु यदि इससे आगे भी कुछ है, तो कृपापूर्वक कहिये।
राय-रामानन्द बोले– “इस गोपीभाव (अर्थात् जिस भाव से गोपियाँ कृष्ण की सेवा करती हैं) में भी श्रीराधाजी का प्रेम सर्वश्रेष्ठ है, जिनके लिए श्रीकृष्ण अन्यान्य गोपियों की भी उपेक्षा कर देते हैं। जैसे रासलीला के समय श्रीराधाजी के मानिनी होकर रास छोड़कर चले जाने पर श्रीकृष्ण व्याकुल हो गये। उनका मन रासलीला से उचट गया और वे भी रास छोड़कर श्रीराधाजी की खोजमें निकल पड़े।
यह सुनकर श्रीमन् महाप्रभु प्रसन्न होकर कहने लगे– “रामानन्दजी! जिस उद्देश्य से मैं आपके पास आया था, वह पूरा हो गया। अब मुझे पूर्ण रूप से साध्य-साधन तत्त्व का ज्ञान हो गया। यदि इससे भी आगे कुछ है तो कहिये, मेरी सुनने की बहुत इच्छा हो रही है।
इसपर राय-रामानन्द ने क्रमशः कृष्णतत्त्व, राधातत्त्व रसतत्त्व एवं प्रेमतत्त्व का वर्णन किया। इसे सुनकर प्रभु बोले– “रामानन्दजी! आपकी कृपा से मुझे साध्य वस्तु का तो अच्छी प्रकार से ज्ञान हो गया। अब कृपापूर्वक साधन अर्थात् वह उपाय बताइये जिसकी सहायता से इस साध्य वस्तु को पाया जा सके।
राय रामानन्द बोले– “श्रीराधाकृष्ण की मधुररस की लीलाएँ बहुत ही गोपनीय हैं। दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि भावों के द्वारा भी इनमें प्रवेश सम्भव नहीं है। इन लीलाओं में तो एकमात्र सखियों का ही अधिकार है। अतः सखियों के आनुगत्य के बिना इन गूढ़तम लीलाओंमें किसी का भी प्रवेश सम्भव नहीं है। यहाँ तक कि स्वयं श्रीलक्ष्मीजी को भी यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका, क्योंकि उन्होंने गोपियों का आनुगत्य नहीं किया।”
यह सुनकर प्रभु ने उनका आलिङ्गन कर लिया। राय-रामानन्द बोले– “प्रभो मेरे हृदयमें एक संशय है, आप कृपापूर्वक उसे दूर करें। पहले मैंने आपको संन्यासी के रूपमें दर्शन किया, परन्तु अब आपको श्यामवर्ण वाले गोप के रूपमें देख रहा हूँ। मुझे आपके सामने एक सोने की मूर्ति दिखायी दे रही है, जिसकी गौरकान्ति से आपका श्यामवर्ण ढका हुआ है तथा आपके हाथोंमें वंशी भी देख रहा हूँ। अतः प्रभो! यह सब क्या है, आप कृपापूर्वक मुझे बताइये।”
यह सुनकर श्रीचैतन्य महाप्रभु कहने लगे– “श्रीकृष्ण के प्रति आपका प्रगाढ़ प्रेम है तथा उस प्रेमका स्वभाव ऐसा ही है। महाभागवत जड़ अथवा चेतन सभी वस्तुओंमें श्रीकृष्ण का ही दर्शन करते हैं। आपका श्रीराधा कृष्ण के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होने के कारण मुझमें भी आपको श्रीराधाकृष्ण के दर्शन हो रहे हैं।”
रामानन्द बोले– “प्रभो! स्वयं को मुझसे छिपाने की चेष्टा न करें। मैं समझ गया हूँ कि श्रीमती राधिकाजी के भाव एवं उनकी अङ्गकान्ति लेकर आप प्रेमरस का आस्वादन करने के लिए ही इस स्वरूपमें अवतरित हुए हैं। जब मेरा उद्धार करने के लिए आप यहाँ स्वयं आये हैं, तो अब छल करने की क्या आवश्यकता है?
यह सुनकर श्रीमन् महाप्रभु ने हँसते हुए उन्हें अपना रसराज श्रीकृष्ण एवं महाभाव स्वरूपा श्रीराधाजी के मिलित स्वरूपका दर्शन कराया। दर्शन करते ही रामानन्दराय आनन्द से मूर्च्छित होकर भूमिन पर गिर पड़े। प्रभु ने उन्हें स्पर्श कर उनकी मूच्छ को दूर किया। चेतन होते ही जब उन्होंने पुनः श्रीमन्महाप्रभु को गौरवर्ण के संन्यासी वेशमें दर्शन किया, तो विस्मित हो गये। प्रभु उन्हें आलिङ्गन करते हुए बोले– “तुम्हारे अतिरिक्त मेरे इस स्वरूप का दर्शन आज तक किसी ने नहीं किया। तुम जो मुझे पृथक् एक गौरपुरुष के रूपमें देख रहे हो, वास्तवमें 'मैं' वह नहीं हूँ अर्थात् यह गौरवर्ण मेरा नहीं है। मैं तो नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ही हूँ तथा मेरा रङ्ग साँवला है, परन्तु श्रीमती राधिकाजी के अङ्गों के स्पर्श से मेरा यह गौरवर्ण नित्य है। श्रीमती राधिका के भाव एवं उनकी अङ्गकान्ति को अङ्गीकार कर में स्वयं कृष्ण होते हुए भी अपने ही माधुर्य का आस्वादन कर रहा हूँ। मैंने तुम्हें अपने स्वरूप का दर्शन कराया, क्योंकि तुम मुझे बहुत प्रिय हो, परन्तु सावधान! इस विषयमें तुम किसी से कुछ भी मत कहना तथा अतिशीघ्र संसार छोड़कर नीलाचल चले आना। वहाँ हम दोनों श्रीकृष्ण कथाओं की चर्चा में निमग्न रहेंगे।”

राजा प्रतापरुद्रके पुत्रको दर्शन देना
जब प्रभु दक्षिण भारत से वापस लौटे तो नीलाचलवासी भक्तों के आनन्द की सीमा न रही। सभी लोग श्रीमन् महाप्रभु के दर्शनों के लिए आने लगे। वहाँ के राजा प्रतापरुद्र परम भगवद्भक्त तथा महाप्रभु के प्रति विशेष अनुरक्त थे। वे प्रभु का दर्शन करना चाहते थे। परन्तु प्रभु का आदेश था कि वे राजदर्शन (विषयी लोगों का दर्शन) नहीं करेंगे, क्योंकि राजदर्शन संन्यासी के लिए निषेध है। जब बहुत चेष्टा करने पर भी राजा को प्रभु का दर्शन नहीं मिला तो एक दिन वे दुःखी होकर सार्वभौम भट्टाचार्य से बोले– प्रभु के दर्शनमें मेरा राजवेश ही बाधक बन रहा है। अतः मैं राजवेश त्यागकर संन्यास वेश धारण कर लूँगा ।
यह सुनकर सार्वभौमका हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने जाकर प्रभु को राजा का विचार सुनाया तो प्रभु सन्तुष्ट होकर बोले– “सार्वभौम! मैं उसे तो नहीं, परन्तु उसके पुत्र को अवश्य दर्शन दूँगा।” यह समाचार जब राजा को मिला तो उन्होंने अति प्रसन्न होकर अपने छोटे-से पुत्र को कृष्ण के वेशमें सजाया। राजकुमार था भी साँवला तथा उसके नेत्र भी बड़े-बड़े और आकर्षक थे। जब भक्त लोग उसे प्रभु के समीप ले गये, तो प्रभु ने प्रेमाविष्ट होकर उसे गले से लगा लिया। प्रभु का स्पर्श पाते ही वह भी प्रेममें मत्त होकर रोने लगा तथा प्रभु के श्रीचरणोंमें लोटने लगा। जब भक्त लोग राजकुमार को वापस राजा के पास ले गये, तो अपने पुत्र की ऐसी अद्भुत अवस्था देखकर वे बहुत प्रसन्न हो गये। जैसे ही उन्होंने उसका आलिङ्गन किया, तो उन्हें ऐसे आनन्द कि अनुभूति हुई, जैसे वे प्रभु का ही आलिङ्गन कर रहे हों।

गुण्डिचा-मन्दिर-मार्जन
श्रीमन् महाप्रभु के दक्षिण भारत की यात्रा करके नीलाचल लौटने के कुछ समय पश्चात् भगवान् श्रीजगन्नाथ देव की रथयात्रा का समय उपस्थित हुआ। रथयात्रा एवं श्रीमन् महाप्रभु के दर्शनों के उद्देश्य से बङ्गाल से भी श्रीअद्वैताचार्य, श्रीशिवानन्द सेन इत्यादि हजारों भक्त लोग जगन्नाथ पुरीमें उपस्थित हुए। रथयात्रा से एक दिन पूर्व गुण्डिचा-मन्दिर (वह स्थान जहाँ पर रथ पर सवार होकर श्रीजगन्नाथ देव जाते हैं और सात दिन तक वहीं पर निवास करते है एवं वहीं उनकी सेवा की जाती है) मार्जन किया जाता है। उससे एकदिन पूर्व श्रीमन् महाप्रभु सार्वभौम भट्टाचार्य एवं काशी मिश्र से हँसते-हँसते बोले– “भट्टाचार्यजी इस बार गुण्डिचा मन्दिर मार्जन सेवा में स्वयं करना चाहता हूँ।
यह सुनकर सार्वभौम भट्टचार्य बोले– “प्रभो! हम तो आपके सेवक हैं। यह सेवा तो हमारी है। परन्तु आपकी इच्छा के विरुद्ध हम कैसे जा सकते हैं? इसके अतिरिक्त राजा प्रतापरुद्र का भी आदेश है कि जैसे आपकी इच्छा हो, वैसा ही किया जाय।
तब प्रभु के निर्देशानुसार एक सौ नये मिट्टीके घड़े और एक सौ झाड़ू मंगवाये गये दूसरे दिन प्रातःकाल श्रीमन् महाप्रभु अपने भक्तों को साथ लेकर गुण्डिचा - मन्दिरमें पहुँच गये। सर्वप्रथम उन्होंने सभी को अपने हाथों से चन्दन लगाया, तत्पश्चात् सभी को एक-एक झाडू पकड़ा दिया। सबसे पहले सम्पूर्ण मन्दिर को झाडू से साफ किया गया। उस समय सभी के मुख से कृष्ण नाम निकल रहा था। श्रीमन् महाप्रभु की तो अवस्था ही अद्भुत हो रही थी, वे आनन्द से मन्दिरमें झाड़ू लगा रहे थे। उनके नेत्रों से अश्रु धारा प्रवाहित हो रही थी जब झाडूओ के द्वारा घास-फूस के तिनके तथा कङ्कड़ आदि साफ हो गये, तब श्रीमन् महाप्रभु ने आदेश दिया कि अब जल से मन्दिर को धोओ, जिससे भूमि दीवारों, छतों पर चिपकी हुई धूल वह जाय। सबसे पहले महाप्रभु ने स्वयं अपने हाथोंमें एक घड़ा जल लेकर सिंहासन को धोया, फिर सभी भक्त लोग मन्दिर को धोनेमें लग गये। इस प्रकार सम्पूर्ण मन्दिरको धोकर साफ-सुथरा कर दिया गया, परन्तु प्रभु का मन तब भी नहीं भरा। अतः अन्तमें वे अपने उत्तरीय (दुपट्टे) से ही मन्दिर को रगड़-रगड़ कर साफ करने लगे। इस प्रकार मन्दिर साफ-सुथरा एवं निर्मल हो गया। उस समय ऐसा लगने लगा जैसे साफ-सुथरे एवं निर्मल मन्दिर के रूपमें प्रभु ने अपने हृदय को ही बाहर रख दिया हो इस लीला के द्वारा महाप्रभु ने शिक्षा दी कि जब तक हृदय रूपी मन्दिर साफ-सुथरा अर्थात् नाना प्रकार की सांसारिक कामनाओं एवं अनर्थों से मुक्त नहीं होगा, तब तक उसमें भगवान् को विराजमान नहीं कराया जा सकता।

श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर प्रभपाद ने श्री चैतन्यचरितामृत के इस प्रसङ्ग पर अपने अनुभाष्य में गुण्डिया मन्दिरमार्जन के रहस्य को प्रकाशित करते हुए कहा है– “कृष्ण की सेवा प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकारकी कामनाएँ कँटीले घास के तिनकों की ही भाँति हैं, जो शुद्धजीव की सुकोमला हदवृत्ति—शुद्धभक्ति को विद्ध कर देते हैं। कर्म अर्थात् यज्ञ, दान, पुण्य, व्रत आदि धूलि के समान हैं, जो स्वच्छ एवं निर्मल हृदय-दर्पण को ढक देते हैं। निर्विशेष ब्रह्मज्ञान एवं योग आदि की चेष्टा कङ्कड़ आदि के समान हैं, जिसके द्वारा भगवान् की सेवा तो दूर की बात है, इसके विपरीत भगवान्के शरीर पर आघात करने की चेष्टा ही होती है। यद्यपि निर्विशेष ब्रह्मज्ञानी या मायावादी लोग मुमुक्षु अवस्थामें अर्थात् साधन अवस्थामें भगवान्का नाम आदि गौण रूपमें ग्रहण करते हैं, परन्तु मुक्त अवस्थामें ये लोग भगवान् का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। वे भगवान् के नाम आदि को अनित्य साधनमात्र मानते हैं । इसीलिए श्रीगौरसुन्दर ने तृण, धूलि, कङ्कड़ आदि को अपने दुपट्टेमें भरकर मन्दिर की सीमाके बाहर फैंक दिया, जिससे कि ये वस्तुएँ पुनः मन्दिरमें प्रविष्ट न हो जायँ। तात्पर्य यह है कि जब तक हृदय क्षेत्रमें ये सब प्रतिकूलताएँ विद्यमान रहती है, तब तक हृदय परमसेव्य भगवान् का आसन नहीं बन सकता।

रथ के आगे महाप्रभुका नृत्य तथा प्रताप रुद्र पर कृपा
रथयात्रा के दिन प्रातः कालीन कृत्यों से निवृत्त होकर श्रीमन् महाप्रभु पाण्डु विजय अर्थात् श्री जगन्नाथदेव, बलदेव प्रभु एवं सुभद्रादेवी के मन्दिर से चलकर रथमें आरोहण का दर्शन करने के लिए गये। श्रीजगन्नाथदेव के दयितापति-सेवक बड़े-बड़े हाथियों के समान बलशाली थे जो उन्हें धीरे-धीरे रथ की ओर ला रहे थे। कुछ ने उनके कन्धों को पकड़ रखा था, कुछ ने उनकी कमर को। उनकी कमरमें एक बहुत मोटी रस्सी बाँधी गयी थी, जिसके दोनों कोनों को पकड़कर कुछ दयितापति उन्हें उठा-उठाकर रथ की ओर ला रहे थे। श्रीजगन्नाथ देव तो स्वतन्त्र हैं, उनकी इच्छा के बिना उन्हें कौन हिला सकता है? जब उनकी इच्छा होती, तो वे सहज ही चल पड़ते, परन्तु जब उनकी अपने भक्तों से कौतुक एवं हास-परिहास की इच्छा होती तो, वे स्थिर हो जाते। उस समय लाख चेष्टा करने पर भी कोई उन्हें हिला नहीं पाता। इस प्रकार लीलामय प्रभु आनन्द से झूमते-झूमते रथमें सवार हो गये।
उसी समय राजा प्रतापरुद्र अपने हाथोंमें सोने का झाड़ू लेकर वहाँ पर आये तथा रथ के आगे आनन्द पूर्वक झाडू लगाने लगे। उन्हें ऐसी सेवा करते देख श्रीमन् महाप्रभु बहुत प्रसन्न हुए महाप्रभु ने अपने सभी कीर्त्तनीयाओं को अपने हाथों से माला एवं चन्दन अर्पण किया। तत्पश्चात् कीर्त्तनके सात दल बनाये गये। श्रीजगन्नाथ के आगे चार दल नृत्य एवं कीर्त्तन कर रहे थे। उनके दोनों ओर दो तथा पीछे एक दल कीर्त्तन कर रहा था। इस प्रकार उस समय चारों ओर कीर्त्तनकी ही ध्वनि गूंजने लगी। प्रभु सातों दलोंमें ही दोनों भुजाएँ उठाकर नृत्य करते हुए 'हरि-हरि' एवं 'जय जगन्नाथ! जय जगन्नाथ!' कहते हुए विचरण कर रहे थे। अब रथ धीरे-धीरे चलने लगा। उसी समय प्रभुने अपना ऐश्वर्य प्रकट किया। वे एक साथ सातों दलोंमें नृत्य करने लगे। परन्तु इसे एकमात्र सौभाग्यवान प्रतापरुद्र ने ही दर्शन किया, क्योंकि उनकी सेवा से प्रभुने प्रसन्न होकर उन पर ही यह कृपा की। इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप से महाप्रभु उनके प्रति उदासीन होने पर भी हृदय से उन्हें बहुत प्रीति करते थे। इस प्रकार महाप्रभु कीर्त्तन करते-करते आनन्दपूर्वक नृत्य कर रहे थे उस समय उनके नेत्रों से अश्रुधारा गङ्गा-यमुना के प्रवाह की भाँति प्रवाहित हो रही थी।
अब श्रीजगन्नाथदेव का रथ धीरे-धीरे बलगण्डि नामक स्थानपर पहुँचा। वहाँपर श्रीजगन्नाथ देव को भोग लगाने का नियम है। नृत्य करते-करते महाप्रभु भी कुछ क्लान्त हो गये थे। उनका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया था। अतः वे निकट ही एक बगीचेमें चले गये और एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। उस समय महाप्रभु भावाविष्ट थे तथा नेत्र बन्द करके लेटे हुए थे। उसी समय सार्वभौम के आदेशानुसार राजा प्रतापरुद्र राजवेश त्याग कर एक सामान्य वैष्णव वेश धारण कर डरते हुए धीरे-धीरे महाप्रभु की चरण सेवा करने लगे। श्रीमन् महाप्रभु की चरणसेवा करते समय सार्वभौम के निर्देशानुसार उन्होंने गोपीगीत का एक श्लोक मधुर-कण्ठ से गाना प्रारम्भ कर दिया। श्लोक सुनते ही महाप्रभु ने नेत्र बन्द किये हुए ही आनन्दपूर्वक उन्हें गले से लगा लिया तथा 'और बोलो, और बोलो' कहने लगे। कुछ क्षण पश्चात् महाप्रभु ने पूछा “तुम कौन हो, जिसने मुझे आनन्दसागरमें डुबो दिया?”
राजा हाथ जोड़कर बोले– “मैं आपके ही सेवकों का एक तुच्छ सेवक हूँ।” यह सुनकर प्रभु ने उन्हें अपना ऐश्वर्य दिखलाया तथा उन्हें इसे अन्य किसी से भी कहने के लिए निषेध किया।
उसी समय महाप्रसाद आ गया। भक्तवत्सल भगवान् अपने प्रिय भक्तों को बैठाकर स्वयं उन्हें परिवेषण करने लगे। परन्त दामोदर ने पहले महाप्रभु को प्रसाद पाने के लिए बैठा दिया। इस प्रकार सर्वप्रथम महाप्रभु ने और तत्पश्चात् भक्तों ने प्रसाद पाया। जब रथ के चलने का समय हुआ तो बहुत प्रयास करने पर भी रथ टससे मस नहीं हुआ। अतः रथ को खींचने के लिए बहुत से हाथियों को लगाया गया, परन्तु वे भी रथ को खींचनेमें असमर्थ हो गये। यह बात जब महाप्रभु के कानोंमें पहुँची तो वे अपने भक्तों के साथ रथ के निकट पहुँच गये। उन्होंने सभी हाथियों को हटवा दिया तथा रस्सी अपने भक्तोंके हाथोंमें थमा दी और स्वयं रथ के पीछे जाकर जैसे ही उन्होंने अपने सिर से रथ को ढकेला तो रथ 'हड़ हड़' करता हुआ चल पड़ा। भक्त लोग तो मात्र रस्सी पकड़े हुए थे, परन्तु रथ स्वयं ही चल रहा था। कुछ ही क्षणोंमें रथ गुण्डिचा मन्दिर तक पहुँच गया। महाप्रभु अपने भक्तों के साथ आङ्गनमें कीर्त्तन एवं नृत्य करने लगे। सन्ध्या के समय सन्ध्या आरती का दर्शनकर प्रभु 'आइटोटा' आ गये। इस प्रकार श्रीमन् महाप्रभु की उपस्थितिमें कीर्त्तन एवं नृत्योत्सव के साथ नौ दिन का रथयात्रा उत्सव सम्पन्न हुआ।