हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 19 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 19

श्री भगवन् नाम-प्रचार

भगवान् के आदेशानुसार श्रीभाई जी श्री भगवन् नाम-प्रचार में पूर्ण मनोयोग से लग गये। निवास-स्थान पर नित्यप्रति संकीर्तन होने लगा। संकीर्तन नित्य रात्रि में तो ग्यारह-बारह बजे तक समाप्त होता पर दीपावली, कार्तिक कृष्ण ३० सं० १९८४ (२५ अक्टूबर, १९२७) को रात्रि के पौन दो बजे तक भाईजी मस्ती से संकीर्तन कराते रहे। अंत में बोले– “भगवान् के नाम का कीर्तन कराने से अनन्त लाभ होता है। कीर्तन की ध्वनि जहाँ तक जाती है, वहाँ तक के सभी जीव-जन्तु पवित्र हो जाते हैं। वास्तव में कीर्तन की महिमा अनिर्वचनीय है।

कई बार भाईजी खड़े होकर प्रेम से नृत्य के साथ कीर्तन कराते। मार्गशीर्ष कृष्ण १० सं० १९८४ (१६ नवम्बर, १९२७) को श्रीसेठ जी की अनुमति से भाईजी अन्य पन्द्रह प्रेमीजनों के साथ कलकत्ता होते हुए आसाम में भगवन्नाम-प्रचार के लिये रवाना हुए। हाबड़ा स्टेशन पर सैकड़ों प्रेमीजन भाईजी के दर्शनों के लिये लालायित हो रहे थे। स्टेशन से ही उमंग पूर्वक कीर्तन करते हुए पैदल ही भाईजी के साथ सब लोग जुलूस की तरह बाँसतल्ला गली में श्रीगोविन्द भवन पहुँचे। गोविन्द भवन ठसाठस भरा हुआ था, वहाँ भाईजी का चित्ताकर्षक भाषण हुआ। भाषण के बाद कई प्रेमीजनों ने भाईजी से भगवान् का दर्शन कराने की प्रार्थना की। बहुत आग्रह करने पर भाईजी ने जोशीले शब्दों में कहा कि जो सच्चे हृदय से भगवान् के दर्शन करना चाहता हो वह खड़ा हो जाय। यह अमोघ वाक्य न जाने किस भगवत्प्रेरणा से निकला। उस समय सब लोग बैठे थे, केवल डूंगरमल जी लोहिया खड़े थे। वे भी तुरन्त बैठ गये। कोई भी खड़ा नहीं हुआ। इसी प्रकार कई स्थानों पर इस तरह की घटनायें भाईजी के जीवन में हुई।

विस्तार से इस यात्रा का वर्णन तो यहाँ संभव नहीं है। पर भाईजी ने कलकत्ता, नलबाड़ी, गोहाटी, शिलाँग, तिनसुकिया, डिबरूगढ़, नौगाँव, भागलपुर आदि स्थानों की यात्रा बहुत ही उमंग से सम्पन्न की और उनके भगवन्नाम के प्रचार को देखकर लोगों को चार सौ वर्ष पूर्व श्रीचैतन्य के भगवन्नाम-प्रचार की पुनरावृत्ति प्रतीत होने लगी।

गीता-जयन्ती वाले दिन कलकत्ता में विशाल जुलूस निकला। कलकत्ते की सड़कों पर नृत्य करने का भाईजी का यह पहला और अन्तिम अवसर था। कलकत्ते में भाईजी की भेंट 'स्वतन्त्र' के सम्पादक पं० अम्बिका प्रसाद वाजपेयी और 'भारतमित्र' के सम्पादक श्रीलक्ष्मी नारायण गर्दे से हुई। यात्रामें 'कल्याण' सम्पादन का कार्य भी चालू रहा। यात्रा में साथ चलने वालों के लिये नियम बनाये गये थे जिनका पालन सभी उत्साह से करते थे ।

वे नियम इस प्रकार थे–
(१) श्रीमद्भगवद्गीता के एक अध्याय का पाठ करना।
(२) ध्यान नित्य नियमपूर्वक करना
(३) 'हरे राम' वाले षोडश मन्त्र की नित्य १४ माला जप करना
(४) सन्ध्या दोनों काल की करते समय एक-एक माला गायत्री मन्त्र का जप करना
(५) हाथ से बुने हुए कपडे पहनना
(६) मिठाई न खाना
(७) तम्बाकू नहीं पीना
(८) ब्रह्मचर्य पालन करना।
(६) असत्य न बोलना
(१०) वेश-भूषा में शौकीनी न करना
(११) नौकर को साथ न रखना
(१२) अपना काम बने जहाँ तक अपने हाथ से करना
(१३) खर्च अपना-अपना करना
(१४) यथासंभव क्रोध न करना
(१५) नियत समय पर सोना और उठना
(१६) मान-बड़ाई न चाहना और न स्वीकार करना
(१७) किसी से शारीरिक और आर्थिक सेवा न कराना
(१८) विरोध शान्तिपूर्वक करना
(१९) अपने मत का अभिमान न करना
(२०) स्त्रियों से बचना।
गोरखपुर लौटनेके लगभग पन्द्रह दिनों बाद ही भगवन्नाम-प्रचार की दूसरी यात्रा का श्रीगणेश करते हुए पौष शुक्ल ८ सं० १९८४ (३१ दिसम्बर, १९२७) को बम्बई के लिये प्रस्थान किया। वहाँ भाई जी नेमाणी जी की वाड़ी में ठहरे और 'सत्संगभवन' में सत्संग का आयोजन हुआ। बम्बई के प्रेमी इनकी प्रतीक्षा बड़े चाव से कर रहे थे। घर-घर घूमकर जप के लिये प्रार्थना भी की। दादी सेठ अग्यारी लेन में चार सौ माला 'हरे राम' मन्त्र की नित्य जपने का वचन मिला। अपने स्नेही श्रीयादवजी महाराज एवं रामानुज पीठाचार्य श्रीअनन्ताचार्यजी से भी भाईजी मिले। सम्पादकीय विभाग साथ होने से 'कल्याण' के काम में कोई व्यवधान नहीं पड़ा।

बम्बईसे माघ कृष्ण २ सं० १९८४ (६ जनवरी, १९२८) को भाईजी अहमदाबाद पहुँचे। भाईजी वहाँ श्रीजमनालालजी बजाज की पत्नी, काका कालेलकर, महादेव भाई देसाई एवं मीरा बहिन (इंग्लैण्ड के नौ सेनापति की पुत्री मिस स्लेड) से मिले। शाम को साबरमती आश्रम में गाँधीजी की प्रार्थना सभा में सम्मिलित हुए और वहीं गाँधीजी से एकान्त में रात्रि नौ बजे तक वार्तालाप किया। भगवन्नाम-प्रचार में साथ रहने;वालों के नियम सुनकर गाँधी जी बहुत प्रसन्न हुए और इस प्रचार कार्य की बहुत प्रशंसा की। भाईजी ने गाँधीजी से 'कल्याण' के लिये लेख लिखने की प्रार्थना की, जिसे उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार किया। अहमदाबाद से भाईजी बोराबड़ (जोधपुर) गये। वहाँ चैतन्य-सम्प्रदाय के महंत मुकुन्ददास जी ने हार्दिक स्वागत किया और इसी गाँव से होली के जप-यज्ञ में साढ़े तीन करोड़ 'हरे राम' मन्त्र जपने का वचन दिलाया। वहाँ से एक दिन मूँडवा होते हुए माघ कृष्ण ६ सं० १९८४ (१३ जनवरी, १९२८) को प्रातः बीकानेर पहुँचे। स्टेशन पर भाईजी का भव्य स्वागत हुआ। दूसरे दिन नगर-संकीर्तन का आयोजन हुआ। चार दिनों के प्रवासकाल में शहर में संकीर्तन की धूम मच गयी। इसी यात्रा में श्रीचिम्मनलाल जी गोस्वामी भाईजी से पहली बार मिले और आकर्षित भी हुए।

भाईजी बीकानेर, रतनगढ़, सरदारशहर, छापर, साँडवा, बीदासर, सुजानगढ़, लोसल, मौलासर, डीडवाना, चुरू, भिवानी, रोहतक में भगवन्नाम-प्रचार की धूम मचाते हुए दिल्ली पहुँचे। वहाँ से खुर्जा गये, जहाँ श्री हरिबाबा बहुत दूर पैदल चलकर स्टेशन पर मिलने आये। वहाँ से फिरोजाबाद, कानपुर, लखनऊ आदि स्थानों में भगवन्नाम की मंदाकिनी बहाते हुए फाल्गुन कृष्ण १ सं० १९८४ (७ फरवरी, १९२८) को गोरखपुर लौट आये।
इसी बीच एक दिन भाईजी ने एकांत में दुजारीजी को बताया कि कार्तिक शुक्ल ७ सं० १९८४ (१ नवम्बर, १९२७) को श्रीसेठजी के प्रश्न करने के बाद दो दिन तक बड़ी विलक्षण स्थिति रही फिर मार्गशीर्ष कृष्ण १ (१० नवम्बर, १९२७) को मैदान में कीर्तन के समय और भी विचित्र स्थिति हो गयी। उसके दो दिन बाद प्रातःकाल जब सबके सामने मानसिक पूजा करा रहा था, तब मैं अपने को सम्भाल नहीं सका। जो बातें गुप्त रखने की हैं, वे बतायी नहीं जा सकती।

कीर्तन का प्रभाव
जहाँ भाव होता है, वहाँ तो संत द्वारा कीर्तन का प्रभाव तत्काल होता है, पर जहाँ भाव नहीं भी होता वहाँ भी उसका प्रभाव देखने में आता है। ऐसी ही एक घटना जब भाईजी चैतन्य महाप्रभु की तरह नाम-प्रचार के लिये स्थान-स्थान पर घूम रहे थे उस समय की है।

श्रीरविन्द्र जी (सम्पादक 'पुरोधा' एवं 'अग्निशिखा', पाण्डिचेरी) बचपन में आर्य समाजी थे। उन दिनों वे कीर्तन को एक मात्र तमाशा मानते थे। एक बार उन्होंने सुना कि भाईजी अपनी टोली के साथ कीर्तन करते हैं। लड़कपन वश श्रीरविन्द्रजी की भी इच्छा भाईजी को कीर्तन करते हुए देखने की हुई। वे तो एकमात्र तमाशा देखने की इच्छा से ही उनकी टोली को देखने गये थे। परन्तु कीर्तन सुनकर एवं भाईजी की भाव-मुद्रा देखकर उनके शरीरमें रोमाञ्च हो उठा। उस कीर्तन का एवं भाईजी की भाव-मुद्रा का ऐसा विलक्षण प्रभाव उनके मानस पटल पर पड़ा कि वे स्वयं एक जगह लिखते हैं— “आज पैंतिस-चालीस वर्ष बाद भी भाईजी की मुद्रा को भुलाया नहीं जा सकता। कीर्तन क्या था --अमृत वर्षा थी।”