बिरसा मुंडा जिन्होंने 25 साल की उम्र में कर दिए थे अंग्रेज़ों के दांत खट्टे
(बीबीसी ने नई साप्ताहिक सिरीज़ शुरू की है 'छोटी उम्र बड़ी ज़िंदगी' जिसमें उन लोगों की कहानी बताई जा रही है जिन्होंने दुनिया में नाम तो बहुत कमाया, लेकिन 40 साल से पहले इस दुनिया को अलविदा कह दिया. तीसरी कड़ी में बिरसा मुंडा की कहानी पढ़िए.)
बात नवंबर, 1897 की है. बिरसा मुंडा को पूरे 2 साल 12 दिन जेल में बिताने के बाद रिहा किया जा रहा था. उनके दो और साथियों--डोंका मुंडा और मझिया मुंडा-को भी छोड़ा जा रहा था.
ये तीनों साथ-साथ जेल के मुख्य गेट की तरफ़ बढ़ रहे थे. जेल के क्लर्क ने रिहाई के कागज़ात के साथ कपड़ों का एक छोटा-सा बंडल भी दिया.
बिरसा ने अपने पुराने सामान पर एक नज़र डाली और वो ये देख कर थोड़े परेशान हुए कि उसमें उनकी चप्पल और पगड़ी नहीं थी.
जब बिरसा के साथ डोंका ने पूछा कि बिरसा की चप्पल और पगड़ी कहाँ है, तो जेलर ने जवाब दिया कि कमिश्नर फ़ोर्ब्स के आदेश हैं कि हम आपकी चप्पल और पगड़ी आपको न दें क्योंकि सिर्फ़ ब्राह्मण, ज़मींदारों और साहूकारों को ही चप्पल और पगड़ी पहनने की इजाज़त है.
इससे पहले कि बिरसा के साथी कुछ कहते बिरसा ने अपने हाथ के इशारे से उन्हें चुप रहने को कहा. जब बिरसा और उनके साथी जेल के गेट से बाहर निकले तो क़रीब 25 लोग उनके स्वागत में खड़े थे.
उन्होंने बिरसा को देखते ही नारा लगाया, 'बिरसा भगवान की जय'!
बिरसा ने कहा आप सबको मुझे भगवान नहीं कहना चाहिए. इस लड़ाई में हम सब बराबर हैं.
तब बिरसा के साथी भरमी ने कहा हमने आपको एक दूसरा नाम भी दिया था 'धरती आबा.' अब हम आपको इसी नाम से पुकारेंगे.
• झारखंड के सबसे सम्मानित व्यक्ति
बिरसा मुंडा ने बहुत कम उम्र में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोह का बिगुल बजा दिया था. उन्होंने ये लड़ाई तब शुरू की थी जब वो 25 साल के भी नहीं हुए थे. उनका जन्म 15 नवंबर, 1875 को मुंडा जनजाति में हुआ था.
उन्हें बाँसुरी बजाने का शौक था. अँग्रेज़ों को कड़ी चुनौती देने वाले बिरसा सामान्य कद-काठी के व्यक्ति थे, उनका क़द था केवल 5 फ़ीट 4 इंच.
जॉन हॉफ़मैन ने अपनी किताब 'इनसाइक्लोपीडिया मंडारिका' में लिखा था, "उनकी आँखों में बुद्धिमता की चमक थी और उनका रंग आम आदिवासियों की तुलना में कम काला था. बिरसा एक महिला से शादी करना चाहते थे, लेकिन जब वो जेल चले गए तो वो महिला उनके प्रति ईमानदार नहीं रही, इसलिए बिरसा ने उसे छोड़ दिया."
शुरू में वो बोहोंडा के जंगलों में भेड़ें चराया करते थे. सन् 1940 में झारखंड की राजधानी राँची के नज़दीक रामगढ़ में हुए कांग्रेस के सम्मेलन में मुख्य द्वार का नाम बिरसा मुंडा गेट रखा गया था.
सन् 2000 में उनके जन्मदिन की तारीख़ पर ही झारखंड राज्य की स्थापना की गई थी.
• ईसाई धर्म अपनाया और फिर छोड़ा भी
बिरसा मुंडा की आरंभिक पढ़ाई सालगा में जयपाल नाग की देखरेख में हुई थी. उन्होंने एक जर्मन मिशन स्कूल में दाख़िला लेने के लिए ईसाई धर्म अपना लिया था. लेकिन जब उन्हें लगा कि अंग्रेज़ लोग आदिवासियों का धर्म बदलवाने की मुहिम में लगे हुए हैं तो उन्होंने ईसाई धर्म छोड़ दिया था.
कहानी मशहूर है कि उनके एक ईसाई अध्यापक ने एक बार कक्षा में मुंडा लोगों के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया. बिरसा ने विरोध में अपनी कक्षा का बहिष्कार कर दिया. उसके बाद उन्हें कक्षा में वापस नहीं लिया गया और स्कूल से भी निकाल दिया गया.
बाद में उन्होंने ईसाई धर्म का परित्याग कर दिया और अपना नया धर्म 'बिरसैत' शुरू किया. जल्दी ही मुंडा और उराँव जनजाति के लोग उनके धर्म को मानने लगे. जल्दी ही, उन्होंने अंग्रेज़ों की धर्म बदलवाने की नीति को एक तरह की चुनौती के तौर पर लिया.
• बिरसा मुंडा पर 500 रुपए का इनाम
बिरसा के संघर्ष की शुरुआत चाईबासा में हुई थी जहाँ उन्होंने 1886 से 1890 तक चार वर्ष बिताए. वहीं से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक आदिवासी आंदोलन की शुरुआत हुई. इस दौरान उन्होंने एक नारा दिया -
"अबूया राज एते जाना/ महारानी राज टुडू जाना" (यानी अब मुंडा राज शुरू हो गया है और महारानी का राज ख़त्म हो गया है).
बिरसा मुंडा ने अपने लोगों को आदेश दिया कि वो सरकार को कोई टैक्स न दें. 19वीं सदी के अंत में अंग्रेज़ों की भूमि नीति ने परंपरागत आदिवासी भूमि व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया था.
साहूकारों ने उनकी ज़मीन पर क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया था और आदिवासियों को जंगल के संसाधनों का इस्तेमाल करने से रोक दिया गया था. मुंडा लोगों ने एक आंदोलन की शुरुआत की थी जिसे उन्होंने 'उलगुलान' का नाम दिया था.
उस समय बिरसा मुंडा राज्य की स्थापना के लिए जोशीले भाषण दिया करते थे. केएस सिंह अपनी किताब 'बिरसा मुंडा एंड हिज़ मूवमेंट' में लिखते हैं, "बिरसा अपने में भाषण में कहते थे, डरो मत. मेरा साम्राज्य शुरू हो चुका है. सरकार का राज समाप्त हो चुका है. उनकी बंदूकें लकड़ी में बदल जाएंगी. जो लोग मेरे राज को नुकसान पहुंचाना चाहते हैं उन्हें रास्ते से हटा दो."
उन्होंने पुलिस स्टेशनों और ज़मींदारों की संपत्ति पर हमला करना शुरू कर दिया था. कई जगहों पर ब्रिटिश झंडे यूनियन जैक को उतारकर उसकी जगह सफ़ेद झंडा लगाया जाने लगा जो मुंडा राज का प्रतीक था. अंग्रेज़ सरकार ने उस समय बिरसा पर 500 रुपए का इनाम रखा था जो उस ज़माने में बड़ी रक़म हुआ करती थी.
बिरसा को पहली बार 24 अगस्त 1895 को गिरफ़्तार किया गया था. उनको दो साल की सज़ा हुई थी. जब दो साल बाद उन्हें छोड़ा गया था तो वो भूमिगत हो गए थे और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ आंदोलन करने के लिए उन्होंने अपने लोगों के साथ गुप्त बैठकें शुरू कर दी थीं.
• सरदार आंदोलन से प्रेरणा
बिरसा मुंडा से कहीं पहले सन् 1858 से अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सरदार आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी. उसका उद्देश्य था ज़मीदारों और बँधुआ मज़दूरी को समाप्त करना. उसी दौरान राँची के पास सिलागेन गाँव में बुद्धू भगत ने आदिवासियों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संगठित किया था.
उन्होंने क़रीब 50 आदिवासियों को जमा किया था जिनके हाथ में हमेशा तीर कमान हुआ करते थे. उनका नारा था 'अबुआ दिसोम रे, अबुआ राज' यानी ये हमारा देश है और हम इस पर राज करेंगे. जब भी कोई ज़मींदार या पुलिस अफ़सर लोगों पर ज़्यादती करता पाया जाता था, बुद्धू अपने दल के साथ पहुंच कर उसके घर पर हमला बोल देते थे.
तुहिन सिन्हा और अंकिता वर्मा अपनी किताब 'द लीजेंड ऑफ़ बिरसा मुंडा' में लिखते हैं, "एक बार एक मुहिम पर जाने से पहले बुद्धू और उनके साथियों ने तय किया कि वो शिव मंदिर में पूजा करेंगे. जब वो मंदिर के पास पहुंचे तो वो अंदर से बंद था. वो अभी सोच ही रहे थे कि क्या किया जाए अचानक 20 पुलिसवाले मंदिर के अंदर से निकले, इसके बाद मुठभेड़ शुरू हो गई जिसमें बुद्धू समेत 12 आदिवासी मारे गए और बाकी लोगों को बंदी बना लिया गया."
बताया जाता है कि दस गोलियाँ लगने के बावजूद बुद्धू ने मरते-मरते कहा, "आज तुम्हारी जीत हुई है, लेकिन ये तो अभी शुरुआत है. एक दिन हमारा 'उलगुलान' तुम्हें हमारी ज़मीन से बाहर फेंक देगा."
• डोम्बारी पहाड़ पर सैनिकों से मुठभेड़
सन् 1900 आते-आते बिरसा का संघर्ष छोटानागपुर के 550 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैल चुका था. सन 1899 में उन्हें अपने संघर्ष को और विस्तार दे दिया था. उसी साल 89 ज़मीदारों के घरों में आग लगाई गई थी. आदिवासी विद्रोह इतना बढ़ गया था कि राँची के ज़िला कलेक्टर को सेना की मदद माँगने के लिए मजबूर होना पड़ा था.
डोम्बारी पहाड़ी पर सेना और आदिवासियों की भिड़ंत हुई थी. केएस सिंह अपनी किताब में लिखते हैं, "जैसे ही आदिवासियों ने सैनिकों को देखा उन्होंने अपने तीर-कमान और तलवारें लहराना शुरू कर दीं. अंग्रेज़ों ने दुभाषिए के ज़रिए मुंडारी में उनसे हथियार डालने के लिए कहा. पहले तीन राउंड गोली चलाई गई. लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ. आदिवासियों को लगा कि बिरसा की भविष्यवाणी सच साबित हुई है कि अंग्रेज़ों की बंदूकें लकड़ी में और उनकी गोलियाँ पानी में बदल गई हैं."
उन्होंने चिल्ला कर इस गोलीबारी का जवाब दिया. इसके बाद अंग्रेज़ों ने दो राउंड गोली चलाई. इस बार दो 'बिरसैत' मारे गए. तीसरा राउंड चलने पर तीन आदिवासी धराशायी हो गए. उनके गिरते ही अंग्रेज़ सैनिकों ने पहाड़ पर हमला बोल दिया. इससे पहले उन्होंने पहाड़ के दक्षिण में कुछ सैनिक भेज दिए ताकि वहाँ से आदिवासियों को बच निकलने से रोका जाए.
केएस सिंह ने लिखा है, "इस मुठभेड़ में सैकड़ों आदिवासियों की मौत हुई थी और पहाड़ी पर शवों का ढेर लग गया था. गोलीबारी के बाद सुरक्षाबलों ने आदिवासियों के शव खाइयों में फेंक दिए थे और कई घायलों को ज़िंदा गाड़ दिया गया था.
इस गोलीबारी के दौरान बिरसा भी वहां मौजूद थे, लेकिन वो किसी तरह वहाँ से बच निकलने में कामयाब हो गए. कहा जाता है कि इस गोलीबारी में क़रीब 400 आदिवासी मारे गए थे, लेकिन अंग्रेज़ पुलिस ने सिर्फ़ 11 लोगों के मारे जाने की पुष्टि की थी.
• चक्रधरपुर के पास बिरसा को पकड़ा गया
तीन मार्च को अंग्रेज़ पुलिस ने चक्रधरपुर के पास एक गाँव को घेर लिया था. बिरसा के नज़दीकी साथियों कोमटा, भरमी और मौएना को गिरफ़्तार कर लिया गया था. लेकिन बिरसा का कहीं अता-पता नहीं था.
तभी एसपी रोश को एक झोंपड़ी दिखाई दी थी. तुहिन सिन्हा और अंकिता वर्मा लिखते हैं, "जब रोश ने अपनी संगीन से उस झोंपड़ी के दरवाज़े को धक्का देकर खोला था तो अंदर का दृश्य देख कर उनके होश उड़ गए थे. बिरसा मुंडा झोंपड़ी के बीचोंबीच पालथी मार कर बैठे हुए थे. उनके चेहरे पर अजीब सी मुस्कान थी. उन्होंने तुरंत खड़े होकर बिना कोई शब्द बोले इशारा किया था कि वो हथकड़ी पहनने के लिए तैयार हैं."
रोश ने अपने सिपाही को बिरसा को हथकड़ी पहनाने का आदेश दिया. ये वो शख़्स था जिसने इस इलाके में अंग्रेज़ सरकार की नींव हिला कर रख दी थी.
बिरसा को दूसरे रास्ते से राँची ले जाया गया ताकि लोगों को पता न चल सके कि उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया है. लेकिन जब बिरसा राँची जेल पहुंचे तो हज़ारों लोग उनकी एक झलक पाने के लिए वहाँ पहले से ही मौजूद थे.
• मुख़बिरी की वजह से हुई थी बिरसा की गिरफ़्तारी
बिरसा के पकड़े जाने का विवरण सिंहभूम के कमिश्नर ने बंगाल के मुख्य सचिव को भेजा था.
500 रुपए का इनाम घोषित होने के बाद पास के गाँव मानमारू और जरीकल के सात लोग बिरसा मुंडा की तलाश में जुट गए.
कमिश्नर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, "तीन फ़रवरी को इन लोगों ने सेंतरा के पश्चिम के जंगलों में दूर से धुआँ उठते हुए देखा. जब वो पास गए तो उन्होंने देखा कि बिरसा वहाँ अपनी दो तलवारों और पत्नियों के साथ बैठे हुए थे. थोड़ी देर बाद जब बिरसा सो गए तो इन लोगों ने उसी हालत में बिरसा को पकड़ लिया. उन्हें बंदगाँव में कैंप कर रहे डिप्टी कमिश्नर के पास लाया गया."
बिरसा को पकड़ने वाले लोगों को 500 रुपए नक़द इनाम के तौर पर दिए गए. कमिश्नर ने आदेश दिया कि बिरसा को चाईबासा न ले जाकर राँची ले जाया जाए.
• बेड़ियों में बाँध कर अदालत लाया गया
मुकदमे वाले दिन कमिश्नर फ़ोर्ब्स ने तय किया कि बिरसा को बेड़ियों में बाँध कर जेल से अदालत लाया जाएगा ताकि लोग अपनी आंखों से देख सकें कि अंग्रेज़ सरकार से टक्कर लेने का परिणाम क्या होता है.
अदालत के कमरे में कमिश्नर फ़ोर्ब्स डीसीपी ब्राउन के साथ आगे की बेंच पर बैठे हुए थे. उनके चेहरे पर एक विजयी मुस्कान थी. वहां फ़ादर हॉफ़मैन भी अपने एक दर्जन साथियों के साथ मौजूद थे.
तभी बाहर से एक शोर सुनाई दिया. ब्राउन दौड़कर बाहर की तरफ़ भागे. वहाँ भारी भीड़ बिरसा की रिहाई की माँग कर रही थी. उसके साथ क़रीब 40 सशस्त्र पुलिसकर्मी चल रहे थे.
साफ़ दिखाई दे रहा था कि जेल में बिरसा की कोड़ों से काफ़ी पिटाई की गई थी लेकिन ये लग नहीं रहा था कि बिरसा को किसी तरह का कोई दर्द है. ये दृश्य देखते ही ब्राउन को अपनी ग़लती का एहसास हो गया था.
उन्होंने सोचा था कि बिरसा को बेड़ियों में बाँध कर अदालत लाने से संदेश जाएगा कि अंग्रेज़ों के खिलाफ़ बग़ावत का परिणाम कितना बुरा हो सकता है, लेकिन इसका उलटा असर हुआ था. लोग डरने के बजाए बिरसा के समर्थन में उतर आए थे. बिरसा पर लूट, दंगा करने और हत्या के 15 मामलों में आरोप तय किए गए थे.
• जेल में हुई मौत
जेल में बिरसा को एकांत में रखा गया. तीन महीने तक उन्हें किसी से मिलने नहीं दिया गया. सिर्फ़ एक घंटे के लिए रोज़ उन्हें सूरज की रोशनी पाने के लिए अपनी कोठरी से बाहर निकाला जाता था.
एक दिन बिरसा जब सोकर उठे तो उन्हें तेज़ बुख़ार और पूरे शरीर में भयानक दर्द था. उनका गला भी इतना ख़राब हो चुका था कि उनके लिए एक घूंट पानी पीना भी असंभव हो गया था. कुछ दिनों में उन्हें ख़ून की उल्टियां शुरू हो गई थीं. 9 जून, 1900 को बिरसा ने सुबह 9 बजे दम तोड़ दिया.
बाद में रांची जेल के अधीक्षक कैप्टन एंडरसन ने जांच समिति के सामने दिए बयान में कहा, "जब बिरसा के पार्थिव शरीर को कोठरी के बाहर लाया गया तो जेल में कोहराम मच गया. सभी बिरसैतों को बुलाकर बिरसा के शव को पहचानने के लिए कहा गया. लेकिन उन्होंने डर की वजह से ऐसा करने से इनकार कर दिया.
नौ जून की शाम साढ़े पाँच बजे शरीर का पोस्टमॉर्टम किया गया. उनके शरीर में बड़ी मात्रा में पानी पाया गया. उनकी छोटी आँत पूरी तरह से नष्ट हो चुकी थी. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में उनकी मौत का कारण हैजा बताया गया.
बिरसा के साथियों का मानना था कि उन्हें ज़हर दिया गया था, आख़िरी समय में जेल प्रशासन ने उन्हें मेडिकल सहायता नहीं दी, इससे इस आशंका को और बल मिला.
अपने अंतिम क्षणों में बिरसा कुछ पलों के लिए होश में आए. उनके मुंह से शब्द निकले, 'मैं सिर्फ़ एक शरीर नहीं हूँ. मैं मर नहीं सकता. उलगुलान (आंदोलन) जारी रहेगा.'
बिरसा की मृत्यु के साथ ही मुंडा आंदोलन शिथिल पड़ गया था, लेकिन उनकी मौत के आठ साल बाद अंग्रेज़ सरकार ने 'छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट' पारित किया जिसमें प्रावधान था कि आदिवासियों की भूमि को ग़ैर-आदिवासी नहीं ख़रीद नहीं सकते.