प्रेम निबंध - भाग 13 Anand Tripathi द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम निबंध - भाग 13

कहते हैं जब आप किसी से और कोई आपसे नित्य प्रति प्रेम भावना में होता है। तो साल दो साल चार साल कभी न कभी कही न कही वो आपके सम्मुख आ ही जायेगा।
बस कुछ यूं ही कहानी को एक नया मोड़ मिलता गया। मैं अपने कार्यलय के काम में व्यस्त हो गया था। और एक दिन इनका फोन आता है। मुझे लगा की कोई ऑफिस से होगा। परन्तु जब मैंने देखा कि ये तो वहीं हैं। जिनका साल भर से इंतजार हो रहा था। पर ऑफिस के काम में व्यस्त होने से बस मैंने फोन नही उठाया। लेकिन जैसे फ्री हुआ। मैंने फोन घुमाया। वैसे सच कहूं तो मैं बात नही करना चाहता था। बस इसीलिए की आज न जाने कितने दिन बाद तुम्हे मेरी याद आई है। जैसे की कोई दूर का रिश्तेदार कभी किसी को याद कर लेता हो। कभी कभी। पंरतु जैसे भी करके मैंने फोन उठाया l और वही तमाम बाते हुई जिनका समाधान निकाला न जा सकता हो।
उनका कहना मेरा समझना सब कुछ एक दम नीरस सा था।
प्रेम राग नही अनुराग मांगता है। विश्वास , मांगता है। अन्यथा तो क्या जड़ क्या चेतन सब कुछ सम है।
उस दिन की बात के बाद मुझको इनके 5 कॉल आए। एक बार मैने उठाया और कहा की मैं अभी व्यस्त हूं। जिस कारण से बाद में बात करूंगा। उधर से जवाब था की रहने दो कोई जरूरत नही है।
अगर एक बच्चे को विनोद में डाट दो। तो वह भी रूस्ट हो जाता है।
यथोचित मैं तो इंसान हूं।
तो स्वभाव वस मुझे भी क्रोध आया और मेने फोन रख दिया।
अगले दिन फिर उनका फोन आता है। और मैं हर दिन की तरह फोन उठाता हूं। फिर कुछ कहा सुनी कुछ बातें और फोन कट हो जाता।
ये कितना अजीब सा था सब की कुछ कह भी न पाते थे। लेकिन समय बीता और इनकी मेरी नजदीकियों में एक दरार आ ही गई। बात बिल्कुल ही बंद हो गई।
मैं मिलाना भी चाहूं फोन तो किसको मिलाऊ क्युकी उनका कहना था। की फोन भैया के पास है और अभी मत मिलाना और जब मैं मिलाऊंगी तो बात करेंगे।
ऐसा प्रेम और कहां मिलेगा ?
धीरे धीरे समय ने करवट बदली
और बदला सब कुछ
हम दोनो एक दूसरे के बारे में तीसरे से पूछते लेकिन एक दूसरे को सीधे कॉल नहीं लगा सकते थे।
ये प्रेम था भी या कोई सिर्फ धोखा
समझ से परे ?
बीच में कभी कभार किसी से पता चल जाता कुशल हाल
बस अन्यथा कुछ नही।
उनका कहना था कि मैं उनको समय नही देता हूं। और मेरा कहना था कि मुझे इजाजत तो दो फोन करने का
क्युकी जब समय होता तो किसको मिलाऊ फोन ?
यह कोई बताता तो सही होता लेकिन कोई नही
था जो इसको हल कर सके ?
उस दिन ये पता चला की प्रेम एक निज स्वार्थ के शिवा कुछ नही है।
प्रेम सिर्फ एक स्वार्थी डोर है।
यह समय अब ऐसा हो चला था की
जैसे सावन हो मगर सुखा सा।
किसने किसको कितना चाहा।
यह मसला ही नही था। मसला ये था।
की उनके विचार में मैने समय नही दिया कभी।
यह कैसी विडंबना है की प्रेम समय की वजह से विफल हो जाए।
खैर , अब आलम ये था कि जब भी बात होती तो एक अनबन एक खालीपन एक निराशा भाव से होती थी।