महारानी ईश्वरी देवी DINESH KUMAR KEER द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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महारानी ईश्वरी देवी

महारानी ईश्वरी देवी
गुम हो रही तुलसीपुर की महारानी ऐश्वर्य राज राजेश्वरी देवी ( महारानी ईश्वरी देवी ) यानि तुलसीपुर की रानी लक्ष्मीबाई की शौर्यगाथा -

1857 के स्वाधीनता संग्राम की जब भी चर्चा होगी, तब तुलसीपुर की महारानी ईश्वरी देवी के त्याग , बलिदान और वीरता को भुलाया नहीं जा सकता ।

स्वतंत्रता संग्राम में एक नहीं दो - दो वीरांगनाओं ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था । एक झांसी की रानी लक्ष्मीबाई थीं और दूसरी तुलसीपुर की महारानी ईश्वरी देवी । उन्हें बलरामपुर की रानी लक्ष्मीबाई कहा जाता है । उनकी स्मृतियों को सहेजने की उपेक्षा के कारण उनकी शौर्यगाथा धीरे - धीरे इतिहास के पन्नों में गुम होती नजर आ रही है ।

लेखक पवन बख्शी ने अपनी पुस्तक बलरामपुर सार संकलन में महारानी ईश्वरी देवी की शौर्य गाथा का बखूबी बखान किया है । बलरामपुर सार संकलन पुस्तक के अनुसार महारानी ईश्वरी देवी का पूरा नाम ऐश्वर्य राज राजेश्वरी देवी है । वह तुलसीपुर के राजा दृगनारायण सिंह की पत्नी थीं । अंग्रेजों ने जब तुलसीपुर राज पर आक्रमण किया, उस समय राजा दृगनरायन सिंह अपने ननिहाल डोकम , जिला बस्ती में थे । राजा की सेना राज्य के कमदा कोट में थी । अंग्रेजी कमांडर बिंग फील्ड ने वहां पहुंचकर सैनिकों से कहा कि राजा ने हमारी अधीनता स्वीकार कर ली । इस पर सेनाओं ने हथियार डाल दिए । बिंग फील्ड ने उनके ननिहाल पर धावा बोल राजा को बंदी बनाकर लखनऊ के बंदीगृह में डाल दिया ।

गोंडा के अंग्रेज कलेक्टर ब्वायलू तुलसीपुर राजा व महारानी ईश्वरी देवी के समर्थकों पर अमानवीय अत्याचार करने लगा ।
रानी समर्थक स्वतंत्रता सेनानी नवयुवक फजल अली ने 10 फरवरी 1857 को कमदा कोट के पास डिप्टी कमिश्नर कर्नल ब्वायलू का सिर काटकर अपनी स्वामिभक्ति जताई ।

नौ जून 1857 को सकरौरा की छावनी में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया । उनके समर्थन में महारानी ईश्वरी देवी ने विद्रोह का झंडा उठाया । 25 वर्षीय रानी ईश्वरी देवी अपने ढ़ाई वर्षीय दुधमुंहे बच्चे को पीठ में बांधकर अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा खोले हुए थीं ।

13 जनवरी 1859 के एक दस्तावेज के अनुसार चादर में राजा दृगनरायन सिंह की रानी ने ब्रिटिश राज के खिलाफ बहुत बड़े पैमाने पर विद्रोह किया था । शाही फरमान के आगे झुकी नहीं , इसलिए उनका राज्य छीनकर बलरामपुर राज्य से मिला लिया गया था । उनको बहुत प्रलोभन दिए गए , किंतु वह झुकी नहीं ।

गोंडा के स्वतंत्रता सेनानी राजा देवीबख्श सिंह घाघरा और सरयू के मध्य क्षेत्र महंगपुर के समीप अंग्रेजी शासक कर्नल वाकर से युद्ध में पराजित होकर उतरौला के तरफ से अपने घोड़े से राप्ती नदी पारकर तुलसीपुर की रानी की शरण में आए । दूसरी ओर अंग्रेजों द्वारा पीछा किए जाने पर बेगम हजरत महल , शहजादा बिरजीस कादिर , नानाजी व बालाजी राव ने भी आकर तुलसीपुर रानी के यहां शरण ली । शरणार्थियों को बचाने की खातिर वह युद्ध से पीछे हट गईं और सभी को लेकर नेपाल चली गईं । वहां भी तुलसीपुर के नाम से नगर बसाया , जो आज दांग जिले का मुख्यालय है ।