छोटा पापा DINESH KUMAR KEER द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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छोटा पापा

छोटा पापा

वो तीनों खूब शॉपिंग - वॉपिंग करके घर लौटे। पत्नी सीमा जी ने घर के दरवाजे पर लगा ताला खोला, खरीदी कर के लाए हुए सभी समानों को रखा और रसोई घर में पानी लेने के लिए चली गई। हार थक कर चूर सोफे पर निढ़ाल सी पड़ी बड़ी बहन पुष्पा दीदी अपना पर्स खोलकर पैसे देती हुई भाई से बोली, "ये ले छोटे।"

"ये क्या है पुष्पा दीदी ?"

" मेरी साड़ी के पैसे हैं, तूने दुकान में मेरी और सीमा भाभी जी की साड़ी का बिल इकठ्ठा पे कर दिया था ना। वही वाले।"

"तो? अब मैं तुमसे इसके पैसे लूँगा। भूल गईं क्या कितना किया तुमने मेरे लिये। पापा से छिपाकर कॉलेज के साथ-साथ और दूसरे कोर्स की भी फीस दे जातीं थीं। माँ नहीं थी हमारी पर तुम तो मेरे लिये माँ भी बन गईं। तुम ना होतीं तो आज मैं इतना कामयाब ना होता। और तुम मुझे.....।"

" चुप कर, छोटा है मुझसे छोटा ही रहेगा। चल रख ये।"

"अच्छा ये बताओ दीदी, पापा जब कुछ दिलाते थे तो क्या तुम उन्हें भी पैसे देतीं थीं?"

"अरे! उन्हें क्यूँ देती भला? पापा को भी कोई पैसे देता है क्या?

" बिल्कुल सही कहा, तो ये समझ लो की आज से मैं तुम्हारा छोटा पापा हूँ। अब कोई बहस नहीं होगी।"

बहन दीवार पर लगी तस्वीर की ओर देख कर हँसते हुए बोली, " देख रहें हैं पापा, चेहरा आवाज़ बिल्कुल आप की तरह और अब डपट भी आप ही की तरह रहा है, ये मेरा छोटा पापा।"



"कविता जो दिल को छू गई"

एक कमरा था

जिसमें मैं रहता था

माँ-बाप के संग


घर बड़ा था

इसलिए इस कमी को

पूरा करने के लिए

मेहमान बुला लेते थे हम!


फिर विकास का फैलाव आया

विकास उस कमरे में नहीं समा पाया


जो चादर पूरे परिवार के लिए बड़ी पड़ती थी

उस चादर से बड़े हो गए

हमारे हर एक के पाँव


लोग झूठ कहते हैं

कि दीवारों में दरारें पड़ती हैं

हक़ीक़त यही

कि जब दरारें पड़ती हैं

तब दीवारें बनती हैं!


पहले हम सब लोग दीवारों के बीच में रहते थे

अब हमारे बीच में दीवारें आ गईं

यह समृध्दि मुझे पता नहीं कहाँ पहुँचा गई


पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था

अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं


फिर हमने बना लिया एक मकान

एक कमरा अपने लिए

एक-एक कमरा बच्चों के लिए


एक वो छोटा-सा ड्राइंगरूम

उन लोगों के लिए जो मेरे आगे हाथ जोड़ते थे

एक वो अन्दर बड़ा-सा ड्राइंगरूम

उन लोगों के लिए

जिनके आगे मैं हाथ जोड़ता हूँ


पहले मैं फुसफुसाता था

तो घर के लोग जाग जाते थे

मैं करवट भी बदलता था

तो घर के लोग सो नहीं पाते थे


और अब!

जिन दरारों की वहज से दीवारें बनी थीं

उन दीवारों में भी दरारें पड़ गई हैं।


अब मैं चीख़ता हूँ

तो बग़ल के कमरे से

ठहाके की आवाज़ सुनाई देती है


और मैं सोच नहीं पाता हूँ

कि मेरी चीख़ की वजह से

वहाँ ठहाके लग रहे हैं

या उन ठहाकों की वजह से

मैं चीख रहा हूँ!


आदमी पहुँच गया हैं चांद तक

पहुँचना चाहता है मंगल तक

पर नहीं पहुँच पाता सगे भाई के दरवाज़े तक


अब हमारा पता तो एक रहता है

पर हमें एक-दूसरे का पता नहीं रहता


और आज मैं सोचता हूँ

जिस समृध्दि की ऊँचाई पर मैं बैठा हूँ

उसके लिए मैंने कितनी बड़ी खोदी हैं खाइयाँ


अब मुझे अपने बाप की बेटी से

अपनी बेटी अच्छी लगती है

अब मुझे अपने बाप के बेटे से

अपना बेटा अच्छा लगता है


पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था

अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं

अब मेरा बेटा भी कमा रहा है

कल मुझे उसके साथ रहना पड़ेगा


और हक़ीक़त यही है दोस्तों

कि तमाचा मैंने मारा है तो

तमाचा मुझे भी खाना पड़ेगा...