पिता का सम्मान DINESH KUMAR KEER द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पिता का सम्मान

" पितृ सम्मान "

रात के दस बज रहे हैं और तुम अभी तक घर नहीं लौटे ... ? कल से तुम्हारा बाहर जाना बंद ... ! !

यह कमरे में धुंंआ किस चीज का है ... ?
सिगरेट का पैकेट ... ! !
लगता है अब तुम्हारी पॉकेट मनी बंद करनी पड़ेगी ... ! !

मोबाइल लिए किधर चले जा रहे हो ... ? बड़ों के पैर छूना कब सीखोगे ... ?

चिल्ला किस पर रहे हो ... अपनी माँ से बात करने की तमीज नहीं तुम्हें ... यह सब तुम्हारे उन्हीं बिगड़े आवारा दोस्तों की संगत का असर है ... !

अपने पापा की रोज - रोज की इन हिदायतो और रोक - टोक से तंग रोहन घर छोड़कर चला जाता है ।

पर रास्ते में उसका एक्सीडेंट हो जाता है ... !

जब आंख खुलती है तो सामने देखता है ... अस्पताल में उसके मम्मी - पापा दो दिन से उसके लिए परेशान हुए बैठे हैं जो लगातार भगवान से उसके ठीक होने की प्रार्थना कर रहे थे ।

इस बात को छः महीने गुजर चुके हैं और साथ ही गुजर चुकी है ... रोहन के मन में अपने पापा के लिए उत्पन्न हुई कड़वाहट ... !

एक्सीडेंट के बाद रोहन को चलने में थोड़ी दिक्कत क्या हुई और चोटों के निशान भी थे जगह - जगह तो उन दोस्तों ने ... जिनके लिए वह घर तक छोड़ कर जा रहा था उससे पीछा छुड़ा लिया और उसका मजाक तक बनाया ... !

जबकि उसके पापा ने तो दिन रात एक कर कितना ख्याल रखा उसका । हर डॉक्टर ... फिजियोथैरेपिस्ट ... होम्योपैथी में दिखाया ... मन्नत मांगी ... भगवान के दर मत्था टेका ... जो उसकी इच्छा होती लाकर देते ... उससे हंसी मजाक करते रहते ... ताकि उसका मन लगा रहे ।

जिसके फलस्वरूप आज वह पूर्णतः स्वस्थ है ... !

आज विद्यालय में फादर्स - डे के तहत विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया है । जहां सबको अपने पापा के बारे में कुछ कहना है ।

वहां कुछ तो इंटरनेट से रटे रटाये लेख बोल गए ... कुछ कागज में लिखा पढ़ कर चले गए ...

पर रोहन अपने संग पापा को भी स्टेज पर लेकर गया । जहां पहले तो उनके चरण स्पर्श किए और फिर उनकी आंखों में अपने लिए सदा से ही ठहरे हुए प्रेम को जानकर ... खुद के भी हृदय में उत्पन्न हुए प्रेमरत भावों को व्यक्त करना शुरू किया ... !

जो कुछ इस प्रकार था ...

आदरणीय गुरुजनों ... पिछले दिनों में घटित हुए कुछ घटनाक्रमों से मुझे इस बात का एहसास हुआ है कि ... यूं ही नहीं पिता का आसमान से ऊंचा स्थान रखा गया था ... सम्मान यह उनके प्रेम दायित्वों का ऋणी हुआ था ... !

क्योंकि पिता ही कर्तव्य पथ के सही मार्ग का अनुसरण करवाते हैं ... कुमार्ग पर भटके हमारे मन को सन्मार्ग पर खींच लाते हैं ... मैं उनकी छत्र छाया में खुद को सुरक्षित पाता हूंं ... होकर निर्भीक हर कठिनाई से जूझ जाता हूं ... !

इसलिए अब दिल में ख्वाहिश भी यही रखता हूं ... कि मिले पिता हर खुशी तुम्हें ... ना रोके मार्ग में कोई बाधा तुम्हें ... तुम्हारे आशीष का साया हरदम मुझ पर बना रहे ... ताकि साथ हमारा निर्विघ्न यूं ही कायम रहे ... !

अब मेरे हृदय में सच्चा स्थान तुम्हारा अविचल ठहरा रहेगा ... पाके तुम्हारे पूज्य चरण शीश मेरा यही झुका मिलेगा ... !

सुनकर पूरा हॉल तालियों से गूंज उठता है ।

जिसकी तेज गड़गड़ाहट में दोनों पिता - पुत्र के नेत्रों से बहे प्रेम के निश्छल आंसू ... खामोशी से बहे जा रहे हैं और सदियों से चली आ रही पितृ सम्मान की आदर्श व्यवस्था का ... पुनः स्मरण करा रहे है ... !