निळावंती को भगवान शिव के गणो में शामिल होने के लिये आवश्यक तावीज तो मिल गया था लेकिन उसने सोचा की वह जाने से पहले आज तक उसने जितना ज्ञान इकट्ठा किया है उसकी विरासत ग्रंथ के रूप में पीछे छोड़ना चाहती थी।
उसने शुरूवात से सब कुछ लिखा चींटी की भाषा कैसे समझे, उसके संकेत क्या होते है आदि प्रकार से धीरे धीरे जंगल के सभी जानवरों के बारे में लिखा। उनकी भाषा लिखी। इसमें बहुत समय निकल गया। वह एक बहुत बड़ा ग्रंथ बन गया जिसका कोई नाम नहीं था। ना पढ़ने का कोई क्रम ही था। वह तो बस बहुत सी जानकारी का संकलन था। उसमें आत्माओं से संपर्क बनाने के तरीके भी लिखे थे।
अब उसे कोई शिष्य चाहिये था जिसे वह इस ग्रंथ को पढ़ने का तरीका और उसके रहस्य को बता सके। लेकिन इतने महत्त्वपूर्ण ज्ञान को वह इतनी आसानी से किसी को भी नहीं सौंप सकती थी।
वह हर दिन इसी तलाश में होती थी की कोई ऐसा उसे मिल जाये जिसे यह ज्ञान सीखना तो हो लेकिन वह इसका गलत इस्तेमाल ना करें। एक दिन जब वह जंगल में रोज की तरह घूम रही थी तब उसे मैं मिल गया। मुझे किसी कुँवारी माँ ने लोक लज्जा के डर से जंगल मे छोड़ दिया था। निळावंती ने मेरी माँ भी पाल नहीं सकती थी इतनी अच्छी तरह से पाला। मैं भी बड़े होते होते जानवरों की भाषा और वह सब ज्ञान जो निळावंती ने उस ग्रंथ मे लिखा था सीख गया हालाँकि इसके लिये मुझे ग्रंथ पढ़ने की आवश्यकता नहीं पड़ी ।
जब मैं सोलह साल का हो गया जैसा मैं अब हूँ तो निळावंती जिसे मैं माँ कहकर ही पुकारता था मुझे मेरे उससे मिलने की कहानी बताई और कहा की उसे अब उसकी असली जगह पर जाना होगा। उसने मुझे संजीवनी विद्या दे दी जिससे मैं दीर्घजीवी हो गया और मेरी आयु भी थम गई। पिछले हजार सालों से मैं सोलह वर्ष की अवस्था का ही हूँ । संजीवनी विद्या देने के बाद निळावंती ने किसी मंत्र का उच्चारण किया तो उसे लेने के लिये दूसरी शिवगणिकायें आयी। उनके साथ निळावंती हमेशा के लिये शिवगणो के साथ रहने चली गई। फिर मैं भटकते भटकते इस जंगल में आया और यहीं पर बस गया। तबसे मैं यही रहता हूँ और इस जंगल की रक्षा करता हूँ ।" बाजिंद ने कहानी पुरी की।
“लेकिन तुमने हमारे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया।" बाबु ने कहा।
“हाँ! मैं बताना तो भूल गया की तुम्हारे किसी पुरखे ने जो कविता लिखी है उसमे जो सागरतीर्थ का नाम है वह समुद्र के लिये नहीं लिखा गया है। असल मे सागरतीर्थ उसी जगह का नाम है जहाँ निळावंती पैदा हुई थी। हजार सालों में उसका नाम जरूर बदला होगा। लेकिन मैं वह जगह जानता हूँ क्योंकी मेरी माँ ने भी मुझे उसी सागरतीर्थ के जंगल मे छोडा था।" बाजिंद ने बताया।
“आज वह जगह किस नाम से जानी जाती है?” रावसाहेब ने पुछा।
“आज वह जगह जानी जाती है रामलिंग के जंगल के नाम से।" बाजिंद ने जवाब दिया।
“मुझे वह जगह पता है। महाराष्ट्र के मराठवाडा प्रांत का बहुत ही प्रसिद्ध तीर्थस्थल है वह।" बाबु ने बताया।
बाजिंद ने फिर दोनों को अपनी आँखें बंद करने को कहा और पलक झपकते ही उसी वेताल की मूर्ति के पास छोड़ दिया जहाँ से बाबु और रावसाहेब ने जंगल में प्रवेश किया था।
बाबु और रावसाहेब ने आँखें खोली तो सामने वही वेताल की मूर्ति थी जिससे आगे जंगल मे रास्ता जाता था। उन्होंने अपने पीछे आवाज सूनी तो वही गड़रिया वहाँ पर भेड़ें चरा रहा था और उनसे कह रहा था। मेरी मानो तो यहाँ से वापिस चले जाओ। यहाँ से कोई जिंदा वापिस नहीं आया है।
उनको यकीन नहीं हुआ की इतना सब घट गया था लेकिन समय अब भी वही का वही था। तो यह सच था, निळावंती से समय पर काबु किया जा सकता है। लेकिन निळावंती कहाँ है यह तो किसी को भी नहीं पता। उसे सिर्फ किस्मत से ढूँढा जा सकता है। निळावंती उसि को मिलता है जो उसका इस्तेमाल नहीं करना चाहता।
अब रावसाहेब और बाबु को रामलिंग जाकर खजाना ढूँढना था। वे रामलिंग पहुँच गये लेकिन वहाँ जाकर उन्हें पता चला की सालो पहले किसी राजा को यहाँ का खजाना मिल गया उसी पैसो से यहाँ रामलिंग का मंदिर बना हुआ था। अब क्या किया जाये सब खत्म हो गया खजाने की खोज भी और निळावंती की तलाश भी। खजाने का इस्तेमाल हो चुका था। निळावंती भी बाजिंद के पास सुरक्षित थी।
यह थी उस आखरी इंसान की कहानी जिसने निळावंती की खोज की थी। लेकिन निळावंती आज भी रहस्य बनी हुई है। उसकी खोज करनेवाले आज भी उसको ढूँढते रहते है।
आपको अगर निळावंती सुननी है तो आप को पता है की महाबळेश्वर के जंगल में वेताल के मूर्ति के पीछे से रास्ता मिल जायेगा लेकिन क्या आप वहाँ सच में जाना चाहते है।
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