रावसाहेब और बाबु दोनों ही वेताल की मूर्ति के पीछे से चल पड़े । जैसे जैसे अंदर जा रहे थे वैसे जंगल और ज्यादा घना हो रहा था। वे इतना अंदर पहुँच गये की दोपहर होने के बावजूद रात जैसा अंधेरा छा रहा था। सीधे चलना जितना कहा गया था उतना आसान नहीं था। क्योंकी रास्ते में पेड़ पौधे, बड़ी बड़ी शिलाये इतनी थी की कई बार रास्ता भटक जाते थे। उन्होंने मशाल जलायी जो साथ मे लाई थी। पता नहीं कितनी देर हुई लेकिन ना वेताल की मूर्ति दिखने का नाम ले रही थी, जंगल खत्म होने का। अचानक से उन्हें एक आकृति नजर आयी साफ नहीं दिखी लेकिन पता चल रहा था की वह एक मूर्ति है। दोनों ही मूर्ति के पास पहुँचे और सोचने लगे की अब आगे क्या? तभी मूर्ति जिसकी पीठ इनकी तरफ थी वह अपना सर इनकी तरफ घुमाने लगी। दोनों ही डर से काँपने लगे उन्हें समझ आया की क्यों बाजिंद की खोज में आया हर इंसान मरा हुआ पाया गया था। वह था डर लेकिन सिर्फ डर नहीं जिस जगह पर वे खड़े थे वहाँ की जगह धीरे धीरे सिकुड़ने लगी इतनी की लगता था वे दोनों उसमें पीस जायेंगे। चारों ओर से जगह इतनी संकरी हो गई की उन दोनों का दम घुटने लगा तभी उनके पैरो के नीचे एक सुरंग तैय्यार हो गई और वे दोनों उसमें गिर गये। वह सुरंग कही निकलने का गुप्त रास्ता था। बाबु और रावसाहेब दोनों ही उसपर से फिसलने लगे। कुछ देर बाद वे कही पर गिर गये। जंगल के मुकाबले वहाँ पर बहुत प्रकाश था। उन्होंने देखा वह कोई पुराना किला था। बाकी किलो की तरह यह उँचाई पर नहीं था बल्कि जमीन की सतह के काफी नीचे बना हुआ था। किले की हालत कुछ खास अच्छी नहीं थी। कुछ दिवारे, खंबे बचे हुए थे बाकी सब गिर गया था। गिरते समय बाबु और रावसाहेब का शरीर कई जगह से छिल गया था और कपड़े भी थोड़े से फट गये थे।
उन दोनों को यह पता नहीं चल पा रहा था की वे जंगल के कौन से हिस्से में है। दोनों ही वहाँ से बाहर निकलने का रास्ता खोजने लगे। क्योंकी वे जहाँ से गिरे थे उस सुरंग का छोर दस-बारह हाथ उँचाई पर था। चढ़ाई सीधी थी इसलिये वहाँ पर आसानी से पहुँचा नहीं जा सकता था। दूसरी बात यह थी की वे उस जगह वापिस जाना भी नहीं चाहते थे। जैसा की किला जमीन की सतह के नीचे उकेरा गया था तब भी बहुत विशाल परिसर में फैला हुआ था। जब इसे बनाया गया था तो मजदूर नीचे आते ही होंगे तो उपर चढ़ने के लिये कोई ना कोई रास्ता जरूर होना चाहिये था पर बहुत देर तक ढूँढने के बाद भी उपर जाने का जरीया मिल नहीं रहा था। परिसर में बहुत सी गुफायें भी थी लेकिन वह अंदर कितनी गहरी है इसका अंदाजा नहीं लग रहा था। इनके पास जो मशाल थी वह थोड़ी देर पहले की हड़बड़ी में कही गिर गई थी। समय निकलता जा रहा था। दिन का कौन सा समय है यह तो पता नहीं चल पा रहा था लेकिन वह कभी ना कभी तो ढलने वाला तो था ही। बाबु का कहना था की ऐसी जगह पर रात के समय रूकना ठिक नहीं होता, कई बार ऐसी जगहे शापित होती है। उसका यह भी कहना था हो ना हो जिन लोगों की जान गई है वे इसी जगह पर मारे गये हो। रावसाहेब को बाबु की बात जँच गई। अब तो उन्हें भी चिंता हो रही थी बात सिर्फ बाहर जाने की नहीं रह गई थी अब जान भी बचानी थी।
वहाँ पर २२ गुफाये थी मगर किसी भी गुफा में प्रकाश नहीं था जिससे अंदर जाकर रास्ते की खोज की जा सके। मांत्रिक को एक चकमक पत्थर दिखाई दिया तो उसने आग जलाकर मशाल बनाने की सोची। बहुत देर कोशिश करने के बाद आखिरकार आग जल गई थी पर दिन ढल चुका था। अंधेरा धीरे धीरे और घना हो रहा था। उनके पास ज्यादा समय नहीं था। पहली गुफा के अंदर मशाल लेकर दोनों दाखिल हो गये। लगता था की गुफा बहुत दूर तक फैली हुई थी क्योंकि मशाल का प्रकाश ज्यादा दूर तक पहुँच नहीं पा रहा था। वह जितना भी आगे जाते उतनी गुफा और दिखाई देने लगती थी। दिन भर जंगल मे चलने के कारण पहले ही दोनों के पैरो ने जवाब दिया था। उपर से वह उस सुरंग से भी गिरे थे जिससे भी चोट पहुँची थी। पेट मे कौए हल्ला मचा रहे थे। और ऐसे मे यदि एक एक गुफा इतनी बड़ी हुई तो क्या कर सकते थे। मशाल आधी खत्म हो गई तभी बाबु ने कहा की हम और आगे नहीं जा सकते क्योंकि फिर वापिस जाने के लिये प्रकाश नहीं बचेगा। अगर इसी गुफा में फंसे रह गये तो दिन निकलने पर भी प्रकाश नहीं आयेगा और दिशा का पता न चलने के कारण गुफा के अंदर ही फँस जायेंगे। तो रावसाहेब का कहना था की पता नहीं हमारा यह निर्णय गलत निकल जाये तो, हो सकता है की बाहर जाने का रास्ता इसी गुफा में से निकले।
समस्या दोनों ओर से थी और वे दोनों ही दुविधा में पड़ गये। दोनों को एक दूसरे के मत सही लग रहे थे। निर्णय लेने के लिये वक्त नहीं था नहीं तो मशाल वही पर बुझ सकती थी। वे गुफा के बहुत अंदर तक आये थे। बाबु ने कहा की रावसाहेब की बात ठीक है लेकिन हम पहले बाहर जाते है और बहुत सारी मशालें बनाते है। और दूसरी गुफा से फिर से शुरूवात करेंगे यदि बाकी गुफाओ मे रास्ता नहीं मिला तो फिर से पहली गुफा में जायेंगे इससे हमारे बचने के मौके बढ़ जायेंगे। रावसाहेब ने बात मान ली। दोनों गुफा से बाहर आ गये। बाबु की बात बिल्कुल सही थी क्योंकी गुफा के दरवाजे तक पहुँचते ही मशाल बुझ गई थी। रात को क्योंकी तारे नजर आ रहे थे तो बाबु जो रात को खजाने निकालने के लिये जाते समय तारो से ही समय का अंदाजा लगाया करता था वह समझ गया की आधी रात बीत चुकी है। अब खतरा पहले से ज्यादा बढ़ चुका था। क्योंकी रात का यही वह समय था जिसमें सभी अनहोनी घटनायें हुआ करती है। साधनों की कमी की वजह से मशालें बनाने में बहुत समय लग रहा था वैसी परिस्थिति में भी बाबु ने पाँच मशाले बना ली थी। लेकिन उन्हें यकीन नहीं हो रहा था की इतनी मशालें एक गुफा के लिये भी काफी होंगी।
बाबु भी थक गया था उसका मन तो कह रहा था की रास्ता खोजना जरूरी है लेकिन तन साथ नहीं दे रहा था। उसे विश्राम की सख्त जरूरत थी। रावसाहेब की स्थिति भी इससे अलग नहीं थी। दोनों ने सुबह होने का इंतजार करने का फैसला किया और बाहर ठंड लग रही थी इसलिये उस गुफा के अंदर सोने चले गये जिसमें वे पहले जा चुके थे। वे ज्यादा अंदर नहीं गये थे। दोनों लेट गये भूख और थकान के मारे उनका बुरा हाल था। लेटते ही दोनों की आँख लग गई।
तभी रावसाहेब को कही से पायल की आवाज सुनाई दी। पहले उसने सोचा की यह उसका वहम होगा कभी कभी थकान की वजह से भी दिमाग भ्रम पैदा करने लग जाता है। फिर से वैसी ही आवाज अब की बार बाबु की भी आँखें खुल गई और वह उठकर बैठ गया। रावसाहेब को पहले से उठा देखकर बाबु जान गया की उस अकेले को वह आवाज नहीं सुनाई दी। फिर से पायल की आवाज आयी। इस बार ज्यादा तेज। दोनों को डर तो बहुत ज्यादा लग रहा था लेकिन उसका सामना करने के अलावा उन दोनों के बाद कोई रास्ता भी तो नहीं था। एक दूसरे का हाथ थामे हुए दोनों गुफा से बाहर निकले और देखने लगे की आवाज कहाँ से आ रही है। थोड़ी देर बाद फिर से आवाज आयी वह किसी गुफा से आ रही थी पर कौन सी यह पता नहीं चल रहा था।
बाबु ने मशाल जलायी और वे दोनो हर एक गुफा के मुँह पर जाकर सुनते की आवाज कहाँ से आ रही है। सभी गुफाओं के मुँह एक दूसरे से सटे हुए थे। वे जैसे ही तेरहवीं गुफा के पास पहुँचे आवाज ज्यादा ही तेज हो गयी। वे दबे पाँव गुफा के अंदर जाने लगे डर अब हद से ज्यादा बढ़ने लगा था। बाबु का पहले का डरपोक स्वभाव फिर से उभर गया और उसके पाँव थरथर काँपने लगे। वे गुफा के काफी अंदर चले गये थे लेकिन जितना वे आगे जाते थे आवाज उतनी ही अंदर से आती हुयी लगती थी।
तभी बहुत दूर कही एक टिमटिमाती रोशनी दिखी बिलकुल बाबु के हाथ की मशाल जैसी। वे धीरे धीरे उस ओर बढने लगे। वह रोशनी गुफा के अंदर बनी और एक गुफा से आ रही थी। वे उस छोटी गुफा के मुँहाने तक पहुँच गये और जैसे ही अंदर का दृश्य देखा तो दंग रह गये। एक किशोरवयीन लडका जिसके हाथ मे एक लाठी थी जिसमें घुँगरू बाँधे हुये थे। वह अपनी लाठी जमीन पर मार रहा था उससे पायल जैसी आवाज निकल रही थी। उसके आस पास जंगल के हर एक जानवर का एक एक प्रतिनिधि उपस्थित था। जैसे उन सब की सभा हो रही हो और वह लड़का उनका नेतृत्व कर रहा हो। वह लड़का प्रत्येक जानवर से बात कर रहा था। बाबु और रावसाहेब समझ गये की यह वही है जिसकी तलाश वे कर रहे थे "बाजिंद" ।
गुफा में शेर, भेड़िया, लोमड़ी, लकड़बग्घा, हिरन, मोर, साँप, बिच्छु आदि कई प्रकार के जंगली पशु थे। जंगल में जिनका आपस में बैर होता था वे जानवर भी एक दूसरे के पास बैठे हुये थे। बाबु और रावसाहेब हैरान हो गये। वे सोच रहे थे की अंदर कैसे जाये, कही किसी जानवर ने हमला कर दिया तो। वे गुफा के अंदर तो आ गये लेकिन आगे नहीं बढे। तभी उस लड़के की नजर उन पर पड़ी । उसने अपना सिर हिलाकर उनको पास आने के लिये कहा। बाबु और रावसाहेब दोनों भी उसके पास चले गये।
उस लड़के का चेहरा इतना आकर्षक था की ना बाबु ने नाही रावसाहेब ने इतना खूबसूरत इंसान अपनी पूरी जिंदगी मे देखा था। उसने सिर्फ एक धोती पहनी हुई थी। उसका बदन बेहद गठीला था। पुष्ट भुजायें थी लंबे बाल कंधे पर झुल रहे थे और मुसकान के तो क्या कहने। कोई इंसान ही क्या जानवर भी उस मुसकान का कायल हो जाता। उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी जो उन्होंने किसी के चेहरे पर नहीं देखी थी। संसार के सभी सुविधाओं से दूर सिर्फ इन जानवरों के बीच रहकर भी वह इतना खुश दिखता था जितना खुश संसार का सबसे अमीर इंसान भी ना हो।
लड़के ने उन से पुछा की वे यहाँ कैसे पहुँचे यह उसे मालूम है लेकिन उनके यहाँ आने का हेतु क्या है यह वह जानना चाहता था। उसने कहा की यदि वे निळावंती के बारे में जानने आये है तो मुश्किल है की वे यहाँ से जिंदा वापिस जाये। उन्हें मारा नहीं जायेगा लेकिन निळावंती का रहस्य ही यह था की उसे एक बैठक मे सुनना पड़ता था। लड़के का कहना था की वह एक बैठक में उसे सुना सकता था लेकिन सुननेवाले मे इतनी क्षमता ना होने के कारण वे अपनी जान से हाथ धो देते थे।
तब रावसाहेब ने कहा की उन्हें निळावंती के बारे में सिर्फ इतना जानना है की उनके किसी पुरखे ने लिखी किताब का उससे क्या संबंध है उनकी जानवरो की भाषा समझने में कोई रुचि नहीं है। और अपने खानदानी खजाने बाबु से मुलाकात और उस गुफा तक पहुँचने की पुरी कहानी बताई।
तब लडके ने कहा " मेरा कोई नाम नहीं है। मैने यहाँ आनेवाले लोगों के मुँह से ही सुना है की लोग मुझे बाजिंद के नाम से जानते है। लोग समझते है की मैं जानवरो की भाषा जानता हूँ यह निळावंती की वजह से है लेकिन मैंने उस ग्रंथ को पढ़कर जानवरों की भाषा नहीं सिखी। खुद रुद्रगणिका निळावंती ने मुझे यह भाषा सिखाई है।"
“क्या? निळावंती स्त्री थी। यह हमें नहीं पता था हमने सिर्फ इतना ही सुना है की निळावंती नाम का एक ग्रंथ है जिसे पढ़ने से जानवरों की भाषा समझती है।" रावसाहेब ने कहा।
"लेकिन आप निळावंती के बारे में क्यों जानना चाहते है जरा बताईयें।" बाजिंद ने कहा।
रावसाहेब ने अपनी जेब में रखा वह कागज निकाला जिसपर खजाने का उल्लेख किया गया था। और जिसपर निळावंती अक्षर उलटे लिखे गये थे। वह कविता पढ़ते ही बाजिंद मुस्कुराने लगा। बाबु और रावसाहेब दोनों उसके चेहरे की तरफ देखने लगे। बाजिंद ने कहा की इसका उत्तर तो बहुत ही आसान है।
बाजिंद ने कहानी शुरू की
"क्योंकी यह मेरे जन्म के पहले की बात है और मेरी उम्र अभी ११०० साल है तो यह घटना बहुत पुरानी है। आप इसे ध्यान से सुनिये क्योंकी इसी कहानी में आपके खजाने का रहस्य छुपा हुआ है।"
“पहले के लोग बहुत ही अक्लमंद थे। वे जानते थे की मनुष्य प्रकृति के साथ इतना नहीं एकरूप हो पात जितना पशु, पक्षी, पेड, पौधे होते है। इसिसे वे इस सृष्टी में अपना वजूद बनाये रखते है। वे प्रकृति के नियमों के बारे में हमसे बहुत ज्यादा जानते है। सोचिये हजारो पक्षी बिना किसी दिशादर्शक के एक जगह से दूसरी जगह जाते है। प्रत्येक वर्ष कैसे यह वे कर पाते है प्रकृति की अपनी भाषा है, जिससे वह हमसे संवाद करती है। मनुष्यों को भी वह भाषा समझती थी। लेकिन फिर जैसे जैसे मनुष्य यंत्रों का सहाय्य लेने लगा तो उसे प्रकृति के साथ संवाद करने की आवश्यकता कम लगने लगी। जिन लोगो को अब भी प्रकृति के रहस्य जानने थे उनके लिये उसका एकमात्र जरिया था। जानवर जिनसे बात करके वह उन रहस्यों को उजागर कर सकता था। तो हमेशा से ही वह जानवरो की भाषा सीखने की कोशिश में लगा हुआ था। हालाँकि कामयाब कोई विरला ही होता था, वह भी एखाद जानवर की भाषा में। परंतु इतना काफी नहीं था।
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