क्रांतिकारी - शिवराम हरि राजगुरु DINESH KUMAR KEER द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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क्रांतिकारी - शिवराम हरि राजगुरु

अमर शहीद क्रांतिकारी शिवराम हरि राजगुरु

मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले महान क्रांतिकारी अमर शहीद "शिवराम राजगुरु जी" की जयंती (24 अगस्त) पर मैं उन्हें श्रद्धापूर्वक नमन करता हूँ :
राजगुरु

अमर शहीद क्रांतिकारी राजगुरू का असल नाम शिवराम हरि राजगुरू था। उनका जन्म 24 अगस्त 1908 को पुणे ज़िले के खेड़ गाँव में हुआ था। उस गाँव का नाम अब बदल कर राजगुरु नगर कर दिया गया है। राजगुरु के पिता का नाम श्री हरि नारायण और उनकी माता का नाम पार्वती बाई था। वीरता और साहस उनमें बचपन से भरा था, इसके साथ-साथ राजगुरु खूब मस्तमौला इंसान भी थे । बचपन से ही भारत माँ से उन्हें प्रेम था और अंग्रेजों से घृणा, वीर शिवाजी और लोकमान्य तिलक के वो बहुत बड़े भक्त थे, पढाई लिखाई में उनका ज्यादा मन नहीं लगता था, इसलिए अपने घरवालों का अक्सर तिरस्कार सहना पड़ता था उन्हें।

एक दिन रोज़ रोज़ के तिरस्कार से तंग आकर, अपने स्वाभिमान को बचाने के लिए वो घर छोड़ कर चल दिए । उन्हूने सोचा कि अब जब घर के बंधनों से मैं आज़ाद हूँ तो भारत माता की सेवा करने में अब कोई दुविधा नहीं है।

बहुत दिनों तक वो अलग अलग क्रांत्तिकारियों से मिलते रहे, साथ काम करते रहे, एक दिन उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आज़ाद से हुई। राजगुरु की असली क्रन्तिकारी यात्रा चन्द्रशेखर आज़ाद से मिलने के बाद ही शुरू हुई. राजगुरु 'हिंदुस्तान सामाजवादी प्रजातान्त्रिक संघ' के सदस्य बन गए. चंद्रशेखर आज़ाद इस जोशीले नवयुवक से बहुत प्रभावित थे, और खूब मन से उन्होंने राजगुरु को निशानेबाजी और बाकी शिक्षा देने लगे, जल्द ही राजगुरु आज़ाद जैसे एक कुशल निशानेबाज बन गए, इनके मस्तमौले अंदाज़ और लापरवाही की वजह से अक्सर चन्द्रशेखर आज़ाद राजगुरु को डांट भी देते थे, लेकिन राजगुरु आज़ाद को बड़े भाई मानते थे और उनके डांट का कभी उन्होंने बुरा नहीं मन, बाद में आज़ाद के ही जरिये राजगुरु की मुलाकात भगत सिंह और सुखदेव से हुई थी।

राजगुरु के मस्तमौले अंदाज़ और वीरता के खूब किस्से हैं । एक बार आगरा में चंद्रशेखर आज़ाद पुलिसिया जुल्म के बारे में बता रहे थे तो राजगुरु ने गर्म लोहे से अपने शरीर पर निशान बना कर देखने की कोशिश की थी कि वो पुलिस का जुल्म झेल पाएंगे या नहीं, बात बात पर वो अंग्रेजो से भिड़ने और उन्हें मारने के लिए तैयार हो जाते थे, राजगुरु के मस्तमौला अंदाज़ का भी एक किस्सा खूब मशहूर है - लाहौर में सभी क्रांतिकारियों पर सांडर्स हत्याकाण्ड का मुकदमा चल रहा था. मुक़दमे को क्रांतिकारियों ने अपनी फाकामस्ती से बड़ा लम्बा खींचा, सभी जानते थे की अदालत एक ढोंग है। उनका फैसला तो अंग्रेज़ हुकूमत ने पहले ही कर दिया था। राजगुरु, भगत सिंह और सुखदेव जानते थे की उनकी मृत्यु का फरमान तो पहले ही लिखा जा चूका है तो क्यों न अपनी मस्तियों से अदालत में जज को धुल चटाई जाए । एक बार राजगुरु ने अदालत में अंग्रेज़ जजको संस्कृत में ललकारा । जज चौंक गया उसने कहा- "टूम क्या कहता हाय"? राजगुरु ने भगत सिंह की तरफ हंस कर कहा कि- "यार भगत इसको अंग्रेज़ी में समझाओ। यह जाहिल हमारी भाषा क्या समझेंगे", सभी क्रांतिकारी राजगुरु की इस बात पर ठहाका मारकर हसने लगे...

‘लाहौर षड्यंत्र’ के मामले ही ब्रिटिश अदालत ने राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को मौत की सजा सुनाई, तीनों वीर क्रन्तिकारी को ब्रीटिश सरकार ने 23 मार्च 1931 को फाँसी पर चढ़ा दिया था, फांसी पर चढ़ने के समय भगत सिंह, सुखदेव की उम्र 23 साल थी और राजगुरु की उम्र 22 साल...