अनुच्छेद-२२
सवाल करेंगे तो चैन छिन जाएगा
भँवरी और वीरू लालटेन जलाए मंगल की प्रतीक्षा में। एक हत्थी भैंस जब अणेर मचाने लगी, भँवरी ने पड़िया को दूध पीने के लिए छोड़ दिया। क्या हो गया? अभी तक लौटे नहीं । वीरू को खिला दिया। नौ, दस, ग्यारह बजते रहे। दोनों ऊँघते हुए बैठे रहे। जब नींद का जोर पड़ा, तख्ते पर ही लुढ़क गए। तेल खत्म हुआ। लालटेन भी बुझ गई।
उषाकाल में गाँव के लोग दिशा-जंगल के लिए निकले। किसी ने एक आदमी को रास्ते के निकट पड़ा हुआ देखा। उसकी साइकिल भी वहीं पड़ी है। उसने दूसरे को बताया.... दूसरे ने तीसरे को । यह खबर हठीपुरवा तक पहुँची। एक लड़के ने दौड़कर देखा। उसे विश्वास नहीं हुआ। मंगल काका इस तरह पड़े हुए। वह तुरन्त लौटा। गाँव में बताया। गाँव के लोगों ने भँवरी को बताया । वह भैंस को नाँद पर बाँध रही थी । वीरू अभी सो ही रहा था। वह भी भागी ।
फिर तो गाँव में हाहाकार मच गया। भँवरी पहुँचते ही मंगल से लिपटकर रोने लगी। जो भी सुन पाता भागा हुआ आता। हठीपुरवा के सभी लोग दौड़ पड़े। पूछते 'क्या हो गया मंगल भाई को ? लड़के पूछते 'काका को क्या हो गया?" सभी असमंजस में किसी के पास कोई उत्तर नहीं। कुछ दूसरे पुरवे के लोग भी जुट गए।
इसी बीच दरोगा जी दो सिपाहियों के साथ आते दिखे। कुछ लोग वहाँ से हटने लगे। कौन पुलिस के झमेले में पड़े। पर हठीपुरवा के लोग घेरे खड़े रहे ।
'किसी ने काका को मारकर यहाँ फेंक दिया है।' नन्दू चिल्लाया। कुछ लड़कों ने समर्थन किया।
"किसी ने मारा है दरोगा जी ।' नन्दू फिर चिल्लाया। दरोगा जी ने डपट दिया। लड़के चुप हो गए।
दरोगा जी ने कोतवाल साहब को फोन मिलाया। उधर से आवाज़ आई-आ रहा हूँ। जो पुलिसिया जंगल में नहीं फँसना चाहते, वे खिसक गए पर हठीपुरवा के लोग डटे रहे। भँवरी का संसार ही उजड़ गया। रोते-रोते बुरा हाल । दर्शक आते जाते रहे पर हठीपुरवा के लोग कहाँ जाएँ? गाँव के बच्चों के काका, बड़ों के भाई मंगल अब इस दुनिया में नहीं रहे। दरोगा जी ने गाँव से कुर्सियाँ मँगाई। कोतवाल साहब की जीप हरहराती हुई आई।
'इनकी शिनाख्त हो पाई ?' कोतवाल ने पूछा। 'जी सर, ये लोग बता रहे हैं, इसी हठीपुरवा के ये मंगल राम हैं। इनकी पत्नी भी इनकी पहचानकर रही हैं।' 'राम राम । इतना अच्छा आदमी कैसे दुर्घटना का शिकार हो गया?" 'साहब, काका को किसी ने मार कर फेंक दिया है। वे शहर गए थे। रात तक घर नहीं लौटे और फिर ?'......नन्दू से रहा नहीं गया। और लड़कों ने भी उसका समर्थन किया। 'रुको जाँच पड़ताल करने दो।' कोतवाल साहब ने कहा।
'इनके शरीर को सूंघ कर पता करो। कहीं शराब की गंध तो नहीं आ रही है?"
'काका शराब नहीं पीते थे साहब?"
'शरीर और कपड़े से गन्ध आ रही है।' एक सिपाही ने बताया।
'हूँ, अच्छा यह बताओ मंगल राम जी की किसी से कोई दुश्मनी थी।'
'नहीं साहब। किसी से कोई दुश्मनी नहीं।'
'जब इनकी किसी से दुश्मनी नहीं है तो कोई इन्हें क्यों यहाँ मारकर फेंक देगा। जाँच पड़ताल से यही लगता है कि किसी ने इन्हें शौकिया शराब पिला दी। ये शराब पीते नहीं थे । इसीलिए उसने ज्यादा असर कर दिया। देर हो ही गई थी रास्ते में लड़खड़ाए, गिर पड़े सिर में चोट लगी। दिमाग की नसों का खून जम गया। दिमाग में खून जमने पर कहाँ कोई बचता है? क्या सिर में कहीं चोट दिखाई पड़ती है?"
'कुछ कुछ सूजन है।' सिपाही ने देखकर बताया। 'मंगलराम जी स्वर्गवासी हो गए। अब बताओ किया क्या जाए?" गाँव के लोग समझ नहीं पाए।
कोतवाल साहब ने समझाया। 'अगर हम सब सन्देह करेंगे तो शव का चीर-फाड़ होगा। हड्डी पसली अलग। समझो शव का सत्यानाश।' 'कोतवाल साहब ठीक ही कहते हैं।' एक वृद्ध ने कहा।
'पर चीर-फाड़ से पता तो चल जायगा ।'
नन्दू ने अपनी राय रखी।
'क्या पता चलेगा? वह पता गोलमोल ही होगा।
डाक्टर यह थोड़े बता पाएगा कि किसने शराब पिलाई? ज्यादा से ज्यादा यही पता चल पाएगा कि सिर के किस हिस्से में चोट पहुँची। पर इससे आप लोगों या परिवारवालों को लाभ क्या होगा?"
'ठीक कहते हैं साहब! इससे कोई लाभ तो होगा नहीं।' दूसरे वृद्ध ने कोतवाल की हाँ में हाँ मिलाई ।
'नहीं साहब, चीरफाड़ होगा तो कुछ पता तो चलेगा।' नन्दू का साथी चन्दर बोल पड़ा।
'फिर वही बात, लाश की छीछालेदार हो जायगी या नहीं। हमें क्या? हम लिख देंगे तो चीरफाड़ होगा ही। तुम लोग सोच लो । लाश का सत्यानाश कराना चाहते हो या साबुत जलाना चाहते हो?" 'सत्यानाश कौन कराना चाहेगा साहब?"
एक वृद्ध ने उत्तर दिया ।
राम दयाल भी आ गए थे। हाथ जोड़कर बोले 'मालिक आप सही कहते हैं। पर कैसे भाई मंगल परलोक गए? किसने शराब पिलाई इसका पता कैसे चलेगा?" "यह मेरे ऊपर छोड़ दो। जैसे ही पता चलेगा कि किसने शराब पिलाई मैं उसकी.....' कोतवाल साहब बात कुछ बनते देख ताव में आ गए।
'यदि आप लोग चाहें तो पंचनामा कराकर लाश जलवा दिया जाय।' कोतवाल साहब ने दो सौ रुपये निकाल कर कफ़न लाने को कहा ।
एक आदमी मंगल की साइकिल ले कफ़न लाने दौड़ा।
'दरोगा जी पंचनामा बनवाओ।' कोतवाल साहब का निर्देश होते ही दरोगा जी पंचनामा तैयार कराने लगे। कोतवाल साहब ग्रामीणों से बतियाते हालचाल पूछते तथा लड़कों से उनकी पढ़ाई लिखाई के बारे में जानकारी लेते रहे । सत्ताधारी की सहानुभूति के दो शब्द कितना प्रभाव डालते हैं? कोतवाल अपने क्षेत्र के मालिक हैं। ऊपर के अफसरों की कृपा उन पर होगी ही । फिर क्या कहना ? इमली को आम कहलवाने का साहस सत्ता में होता है।
दुःख का परिवेश तो है पर आर्त्तनाद नहीं। सिसकियों, फुसफुसाहट के बीच भँवरी मूर्तिवत । उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि यह हो क्या रहा है?
इसी बीच गाँव का अठारह वर्षीय युवा हरबंश भागकर वत्सलाधर के दरवाजे पर पहुँचा । तन्नी से बताया, 'माँ ने बुलाया है। जरूरी काम है।' 'क्या काम है?' तन्नी पूछ पड़ी। 'यह तो माई ही बताएगी' हरबंश ने बताया । 'जल्दी 'चलो।' उसने कहा । वत्सला जी कालेज जा चुकी थीं। तन्नी ने माँ अंजलीधर को बताया । 'माँ ने बुलाया है तो कोई ज़रूरी काम होगा।' माँ जी ने अनुमति दी ।
तन्नी उतरी। हरवंश की साइकिल पर पीछे बैठ गई। हरबंश ने साइकिल भगाई । 'इतनी जल्दी क्या है हरबंश भैया जरा सँभाल कर चलो।' तन्नी ने कहा । हरबंश ने चाल धीमी की। कुछ कहा नहीं। कैसे कहे वह ? यही सोचता रहा।
गाँव में सन्नाटा । 'कोई दिखता नहीं हरवंश भैया' तन्नी चकित। 'सभी गाँव के पूरब गलियारे के पास जमा हैं। चलो हम भी चलते हैं।' हरबंश की आवाज़ मुश्किल से निकली ।
'क्या है वहाँ ?"
'चलो खुद देख लो। काका नहीं रहे ।'
तन्नी भागी, गिरते गिरते बची। बापू को ज़मीन पर लेटे देखकर दहाड़मार कर रो पड़ी। जो लोग रो धो कर कुछ शान्त हो गए थे फिर से आर्त्तनाद कर उठे । पंचनामा पर हस्ताक्षर हो चुका था। कोतवाल साहब ने पंचनामा हाथ में लेकर दरोगा जी को सतर्क किया। 'लड़की को समझाओ।' उन्होंने कहा । दरोगाजी राम दयाल के पास गए, कहा, 'चाचा, लड़की को सँभालो ।'
'हमारे बापू को क्या हुआ काका?"
राम दयाल से तन्नी ने ही पूछा ।
'क्या बताऊँ बेटी ? किसी ने शराब पिला दिया। रात में गिर पड़े। कोतवाल साहब कहते हैं कि शराब पिलाने वाले की खाल खींच ली जायगी । क्या किया जाय बेटी जो होना था हो गया.. अब भैया का दाह संस्कार हो जाय....।'
'नहीं काका, मुझे कुछ धोखा लगता है।' रोते हुए तन्नी बोली । 'धोखे का पता तो हम लगाएँगे।' कोतवाल साहब बीच में आ गए। 'अब बेटी ज्यादा ज़रूरी है दाह संस्कार । तुम तो पढ़ी लिखी हो । गर्मी का महीना है। देर तक लाश को सही रख पाना मुश्किल है। क्यों राम दयाल जी?' 'ठीक कहते हैं साहब?" राम दयाल के मुँह से निकला ।
तन्नी फिर बापू के शरीर पर गिर पड़ी। कोतवाल साहब समझाते रहे। एक ट्राली लकड़ी आ गई। लोग दौड़ धूप करने लगे। दो बाल्टी पानी आया। शव को नहलाया गया। कफ़न में शरीर को बाँधा गया। अब भँवरी को होश आया। वह फिर दहाड़ मार कर रोने लगी। उसी के साथ तन्नी तथा गाँव की अन्य महिलाएँ। हरे बाँस की टिकठी बनी। महिलाएँ रोती रहीं। पुरुष दाह संस्कार का प्रबन्ध करते रहे। तय हुआ कि वीरू से दाह संस्कार कराया जाय । राम दयाल वीरू को समझाते रहे, वह रोता रहा।
'तुम्हें दाह संस्कार करना है।' राम दयाल ने कहा । वीरू का सिसकना कम हुआ ।
अर्थी उठने ही वाली थी कि दो नेता नुमा लोग आ गए। कहा, 'मृत्यु संदेहास्पद है। बिना पोस्टमार्टम के शव कैसे जलेगा?' 'यह आ गए लाश की दुर्गति कराने ।' कोतवाल ने डपटा । 'दरोगा जी ज़रा इन्हें देखिए।' दरोगा जी उन्हें लेकर किनारे चले गए। कोतवाल के रुख से वे थोड़ा सहमे आवाज़ धीमी हो गई।
'नेता जी यहाँ राजनीति न करो। यह कोई वोट का मामला नहीं है।' कोतवाल साहब बोलते रहे। 'अब इन्हें कौन समझाए कि हर घटना का वोट पर असर पड़ता है।' नेता ने दबी जुबान से उचारा ।
हाई स्कूल उत्तीर्ण नन्दू कब भीड़ में से निकल गया किसी ने ध्यान न दिया । नन्दू को सन्देह है कि इसमें कुछ गड़बड़ जरूर है। कोतवाल साहब हर एक की लाश जलवाने तो नहीं आते। उसकी जान पहचान शहर के कान्तिलाल से थी। वे मानवधिकार संगठन के सचिव थे। नन्दू ने उन्हें पूरी बात बताई। उन्हें भी शक हुआ। अपने दो साथियों को उन्होंने फोन कर बुलाया। नन्दू के साथ वे पुलिस अधीक्षक से मिलने चल पड़े। लाश का पोस्ट मार्टम होना चाहिए उन्होंने सोचा । जल जाने पर तो सारे सबूत ही नष्ट हो जाएंगे फिर तो कुछ नहीं हो सकता। पुलिस अधीक्षक महिला थीं। उनकी छवि एक संवेदनशील, तेज अधिकारी की थी। आज शहर में ही आयुक्त कार्यालय की एक बैठक में वे व्यस्त थीं। चारों वहीं पहुँच गए। किसी प्रकार एक पर्ची लिखकर भिजवाई। पुलिस अधीक्षक बाहर आ गईं। उन्होंने संक्षेप में बात सुनी। कहा, आफिस चलिए हम आ रहे हैं।'
'तत्काल आप के हस्तक्षेप की जरूरत है। मानवाधिकार का मामला है। मैडम।' कान्तिलाल ने कहा।
'बस आ ही रही हूँ। आप पहुँचिए।' कहकर मैडम अन्दर चली आईं। बैठक कक्ष से अलग एक कमरे में बैठकर मैडम ने कोतवाल को फोन मिलाया।
'प्रणाम हुजूर ।' उधर से आवाज़ आई ।
"क्या कर दिया आपने? किसी की लाश जलवा रहे हैं?"
'जी हुजूर ।'
'क्या मामला है?"
'हुजूर एक आदमी ने लहसुन बोया था। लहसुन का भाव गिर गया। अच्छी फसल होने पर भी उसकी लागत नहीं लौटी बल्कि कर्ज़दार हो गया। आदमी आठवें तक पढ़ा था। हो सकता है अवसाद का शिकार हो गया हो। उसकी जेब से साबुत सलफास की गोली मिली है। हुजूर मुख्यमंत्री ने कहा है कि हमारे राज्य में किसी किसान ने आत्म हत्या नहीं की। अगर आत्महत्या होती है ।'
'मालूम है। आगे बताओ।'
'इसीलिए हुजूर लाश का जल जाना बहुत जरूरी है।.....मुख्यमंत्री......
’दरोगा ने गश्त में लाश को देखा।' 'सच है हुजूर ।'
'दरोगा को गश्त में लाशें मिलती हैं ।'
'हुजूर उसके गाँव घर वाले सहमत हैं।
लाश का जलना.....।’
'ठीक है। मैं सी०ओ० को भेज रही हूँ । लाश जल जाए तो सूचित करो। कुछ लोग आए हैं।' 'जी हुजूर ।'
कोतवाल पसीने से तर । आखिर कोई पहुँच गया मिलने । कौन गया होगा ? उनकी नज़र नन्दू को ढूँढ़ने लगी। वह कहीं दिखाई नहीं पड़ा। वही तो नहीं ......अच्छा बच्चू...... देख लूंगा तुझे भी । उनका दिमाग तेज चलने लगा।
अर्थी उठते ही एक बार फिर आर्त्तनाद । स्त्री-पुरुष, बच्चों का सम्मिलित स्वर। राम नाम सत्य है....राम नाम सत्य.....। लोग कन्धे बदलते रहे। महिलाएँ पुरवे पर लौट आई। नाले के किनारे श्मशान पर चिता तैयार होने लगी।
जिस समय वीरू ने अग्नि दी सभी की आँखों में आँसू आ गए। लकड़ी सूखी थी पकड़ने में देर न लगी। थोड़ी ही देर में चिता धू-धूकर जलने लगी। कुछ दूरी पर बैठे लोग आपस में बतियाते रहे- कुछ लोक की कुछ परलोक की।
'अच्छा आदमी था, चला गया।' एक ने कहा 'अच्छा था ही भाई ।' दूसरे ने समर्थन किया। लपट तेज हुई। सभी की दृष्टि चिता की ओर । ' अग्निदेव अच्छे बुरे का भेद नहीं करते। सबको एक सार जलाते हैं।' 'बिल्कुल निष्पक्ष हैं भाई। कोई पक्षपात नहीं।'
'इसमें भी कोई कहने की बात हैं।'
चिता की लपटें और तेज हुई। लाश जलती रही। लोग प्रतीक्षा करते रहे। इसी बीच उपाधीक्षक की गाड़ी आ गई। कोतवाल और दरोगा ने बढ़कर 'जयहिन्द ' से स्वागत किया ।
कोतवाल साहब उन्हें एकान्त में ले गए। स्थिति से अवगत कराया। उपाधीक्षक ने मैडम को बताया- लाश आधी से ज्यादा जल गई है। 'ठीक है। अपने सामने जलवा दो।' उन्होंने निर्देश दिया।
आधे घण्टे बाद फिर फोन, 'क्या लाश जल गई है?" मैडम ने पूछा। 'जी हुजूर, पन्द्रह मिनट और लगेगा।' कोतवाल साहब ने बताया ।
पन्द्रह मिनट बाद पुलिस अधीक्षक की गाड़ी अपने दफ्तर के परिसर में दाखिल हुई। मैडम का फोन बजा 'जल गई हुजूर, कोतवाल की आवाज़ । कान्तिलाल अपने साथियों के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे। मैडम ने उन्हें बुलाया। उनकी बातें धैर्यपूर्वक सुनी। 'अगर लाश नहीं जली होगी तो हम रुकवा देंगे। आप निश्चिन्त रहें। हम फोन से निर्देश दे रहे हैं।' कान्तिलाल और नन्दू जब तक पता करने का प्रयास करें हरबंश दौड़ा हुआ आया, 'नन्दू भैया लाश जल गई।'
"नन्दू भाई अब जाओ। सब कुछ निपट गया' कान्तिलाल ने कहा । 'अब कुछ नहीं हो सकता। जब सुबूत ही नहीं रहा तो.....।'
नन्दू बिलख कर रो पड़ा। कुछ दाल में काला जरूर है।"
'पर उस काले का सुबूत ही मिट गया भाई ।' कान्तिलाल ने समझाया। 'मन मानता नहीं। लड़ेंगे हम लोग ।' नन्दू बड़बड़ाता रहा। उसकी आँखें..... लाल चढ़ी हुई।
आगे आगे वीरू पीछे पीछे लोग। मंगल की बोरिंग पर इंजन चलाकर सभी ने एक एक कर स्नान किया। कफ़न से निकाली गई पट्टी गले में पहने छुरी लोटा लिए वीरू द्वार पर पहुँचा। पीछे पीछे और लोग । वीरू सहित सभी एक क्षण के लिए बैठे फिर उठकर अपने अपने घर गए ।
वीरू को इस वेष में देखते ही भँवरी और तन्नी रो पड़ीं। पुरवे की औरतें उन्हें चुप कराती रहीं । भँवरी के नेतृत्व में सभी स्नान के लिए गईं। लौटीं तो दरवाजे पर क्षणभर बैठकर अपने अपने घर | राम दयाल की पत्नी रुक कर भँवरी को ढाढस बँधाती रहीं । तन्नी होश में होते हुए बेहोश जैसी । भँवरी और तन्नी दोनों जहाँ बैठ जातीं बैठी रहतीं। कभी शून्य में ताकते, कभी रोने लगतीं ।
आज भैंस को सानी-पानी भी ठीक से नहीं मिला। राम दयाल की पत्नी ने ही नाँद में भूसा डालकर भैंस को बाँधा । तन्नी ने नल से पानी निकाला। दो बाल्टी पानी नाँद में डालकर घर से आटा ले आई। भूसे के साथ मिलाया। भैंस खाने लगी। आज सवेरे उसका दूध भी निकाला नहीं जा सका। मंगल के हाथ से लगने वाली एक हत्थी भैंस किसी दूसरे को हाथ लगाने ही नहीं देती। पड़िया को दूध पीने के लिए छोड़ दिया गया। आठ महीने की हो गई है वह ।
चुपचाप वीरू तख्ते पर बैठा है। उसके भी सारे सपने जाने कहाँ चले गए। लहसुन बिका या नहीं । भँवरी, तन्नी, वीरू को कुछ भी पता नहीं। यह ज़रूर सुना है कि भाव गिर गया है पर इस विपत्ति में लहसुन की बात कौन करता?
इस परिवार के दुःख से पूरा पुरवा दुःखी है। छोटे से पुरवे में आपस में अधिक दुराव नहीं है । कोई लड़का अभी मदक की दूकान तक नहीं पहुँचा है। कोई स्नातक भी नहीं हुआ। हाईस्कूल भी गिनकर चार जिसमें दो तन्नी और तरन्ती ही हैं। दुख को साथ साथ सहन तो करते हैं पर उससे मुक्ति का उपाय ढूँढने में असमर्थ । पिछली बार इस पुरवे के लोगों ने विधान सभा चुनाव में जिस व्यक्ति को वोट दिया था वह हार गया था। दूसरे दिन उसे पता चला तो सहानुभूति प्रकट करने के लिए आया। आधे घंटे बैठा पानी पिया, दुख प्रकट किया और चला गया। जो विधायक हुआ उसने कहा, 'इस पुरवे के लोगों ने मुझे वोट नहीं दिया, मैं क्यों इनकी मदद करूँ ?"
नन्दू हरबंश को साथ लेकर वीरू के यहाँ आया। उसने विधायक का सुवचन सुना। 'मदद कौन माँगता है भैया?' नन्दू बड़बड़ाया। 'हम तो न्याय चाहते हैं? मंगल चाचा शराब पीकर चले गए यह मेरे गले नहीं उतर रहा है। ज़रूर कुछ ऐसा हुआ जिसका हमें अन्दाज़ नहीं है।'
दूसरे दिन माड़ का भात। पुरवे के लोग तथा दूसरे पुरवे के भी जो दाहकर्म में शामिल थे, आए चावल भौरी, भर्त्ता और उरद की दाल के साथ लगभग तीन बजे भोजन । जो कुछ बताया जाता वीरू कर देता। भँवरी और तन्नी भी आज मंगल का 'परलोक' सँवारने में लग गई। दो बोरा गेहूँ बेचा गया।
तीसरे दिन तन्नी ने साइकिल उठाई, माई से कहा- 'बहिन जी से मिल आऊँ ।' वह पुरवे से निकली ही थी कि बहिन जी माँ अंजलीधर के साथ रिक्शे पर आती हुई दिखीं। तन्नी साइकिल से उतर गई। रिक्शा जैसे ही नजदीक आया, बहिन जी और माँ को देखकर तन्नी रो पड़ी। आज सुबह नन्दू ने ही बहिन जी को सूचना दी। यह भी बताया कि चाचा के साथ कुछ गड़बड़ हुआ है बहिन जी। माँ अंजलीधर तुरन्त उठ पड़ी 'चल बेटी तन्नी के घर। क्या से क्या हो जाता है।' बहिन जी माँ के साथ निकलीं ।
रिक्शा किया और.....अब तन्नी के सामने ।
माँ के पैरों पर तन्नी अपना माथा रखकर रोती रही। 'चुप रहो बेटी, चलो तेरे घर चलते हैं।' रिक्शा बढ़ा, साथ में तन्नी ।
बहिन जी का रिक्शा जैसे ही तन्नी के दरवाजे पहुँचा रोते हुए भँवरी निकलीं। माँ अंजलीधर और बहिन जी का आँचल के खूंट से चरण स्पर्श किया। तन्नी एक परात में पानी ले आई। भँवरी ने माँ जी का पैर धोया। बहिन जी का भी पैर धोने के लिए बढ़ी पर बहिन जी ने स्नेह पूर्वक मना कर दिया।
'आप पहली बार आई हैं', भँवरी ने कहा। पर बहिन जी ने कहा 'आप बैठिए माँ जी का धुल दिया यही बहुत है।' माँ जी पेठा का एक पैकेट साथ ले आई थीं।
तन्नी ने उसी में से कुछ टुकड़े निकाल कर कटोरी में रखा और दो गिलास पानी ले आईं। दोनों को पानी पिलाया। वीरू शांत भाव से दूसरे तख्ते पर बैठा माँ और बहिन जी को देखता रहा। उसके व्यवहार से लगता कि वह अपनी उम्र से काफी बड़ा हो गया हैं। तन्नी ने उसे भी पेठा दिया। उसके लोटे में पानी डाल दिया। पुरवे की दो औरतें भी बहिन जी को देखकर आ गईं। राम दयाल भी खेत की ओर जा रहे थे। बहिन जी को देखा । कुदाल लिए ही आकर प्रणाम किया।
'बहिन जी तन्नी को अपने घर रखकर पढ़ा रही हैं।' यह जानकारी ही उन्हें आदर देने के लिए पर्याप्त है। दूसरे के बच्चों को कितने लोग पढ़ाते है? जो स्वयं उच्चतर मूल्यों को नहीं अपना पाते, वे भी दूसरे द्वारा पालन करते देख आदरभाव से भर जाते हैं। ईमानदारी, सहृदयता जैसे गुणों का अनादर प्रायः नहीं होता। बेईमान अभिभावक को भी अपने बच्चे को ईमानदार बनाने का प्रयास करते देखा गया है। समाज में विभिन्नतन्त्र मानवीयता के इसी पार्श्व को ध्यान में रखकर बने हैं। मनुष्य का झुकाव सद्गुणों की ओर होगा ही ऐसा मानकर चला जाता है |
'तन्नी तुम अपनी परीक्षा छोड़ो नहीं।'
बहिन जी के इतना कहते ही तन्नी रो पड़ी।
'रोओ नहीं। पिताजी को अब लौटा नहीं पाओगी। बेटी साहस करो। तुझे माँ और वीरू को देखना है । घर सँभालना है बेटी । चिन्ता न करो। हम से जो बन पड़ेगा करेंगे। वत्सला भी मदद करेगी। पढ़ाई बन्द न हो।' माँ अंजलीधर समझाती रहीं।
वत्सला जी ने पर्स से एक हजार के दो नोट निकाला, कहा, 'इसे रख लो। क्रियाकर्म निबटाओ। चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं।'
'बहिन जी, दो बोरा गेहूँ बेचा गया है। ज़रूरत पड़ी तो हम आपसे ले लेंगे। आप ही का सहारा है। सामान शहर से ही खरीदा जाई रुपया कम पड़ी तो तन्नी को भेज दूँगी। अभी रखो बहिन जी।'
'हम चाहते हैं तन्नी वहीं रहकर परीक्षा दे ।'
वत्सला जी ने प्रस्ताव किया।
'दिक्कत तो होई । लेकिन.......रहें वहीं ।
यहाँ रहकर तो पढ़ाई न होइपाई।' भँवरी ने भरे कंठ से सहमति दी।
राम दयाल जी चुप लोगों की बातें सुनते रहे। अन्त में बोले, 'बहिन जी, तन्नी आपके साथ रही तो पढ़ि जाई । वीरू को हम लोग सँभालेंगे किसी तरह।' ठीक है। हम फिर आएँगे। रुपया वह आपके लिए ही रखा रहेगा। ज़रूरत पर मँगा लेना । तन्नी को कल भेज देना। अभी इसका कोई पर्चा छूटा नहीं है।' कहते हुए वत्सला जी उठीं। माँ जी भी उठीं। रिक्शे पर बैठीं तो भँवरी, तन्नी ने पैर पर माथा टेका। राम दयाल, वीरू तथा अन्य ने हाथ जोड़ लिया।
दूसरे दिन तन्नी ने एक झोले में अपना कपड़ा रखा। साइकिल निकाली। भँवरी उसे जाते देख रो पड़ी।
'माँ नरसों ही परीक्षा है। माँ जी कहती हैं परीक्षा न छोड़ो। अब तुम्हीं बताओ माँ, मैं क्या करूँ?"
'जाओ.... मैं तो ऐसे ही रो पड़ी। सेठ जी से लहसुन का हिसाब भी करना है । तेरे बापू की तेरहवीं निपट जाए तभी कुछ ठीक है.... मेरी आँखों से आँसू निकल ही आए। क्या करूँ? तू जा......। वीरू को भी समझा दे।'
तन्नी वीरू के निकट गई। वह तख्ते पर बैठा है। 'भैया सब काम ठीक से निपटाना । कोई...। मैं परीक्षा देकर आ जाऊँगी।' 'ठीक है। परीक्षा देना ही है। बहिन जी भी ठीक ही कहती हैं। परीक्षा देकर आ जाना।'
वीरू उदास बैठा रहा। उसके बगल पानी से भरा लोटा रखा है। दरी के नीचे कोने एक छुरी । खड़ाऊँ पहनकर वीरू चलता है तो लगता है कोई वेदपाठी जा रहा है। 'भैया ठीक से रहना। कहकर वीरू साइकिल पर बैठी। वीरू का चेहरा, उदास, संयत ।
तेरहवीं का कर्मकाण्ड भँवरी के पैसों से ही हुआ। गाँव वाले एक जुट हो गए। दूध-दही सबने मिलकर जुटाया। तन्नी की परीक्षा उस दिन नहीं थी । वह भी आ गई। ब्राह्मण, नाते रिश्ते तथा पुरवे के लोगों ने भोजन किया। तेरह ब्राह्मण खिलाकर दक्षिणा देने के बदले समरस सभी को खिलाया गया। दक्षिणा देने की आवश्यकता नहीं। अपने को कुलीन समझने वाले ब्राह्मण तेरह ब्राह्मणों में खाना अब पसन्द नहीं करने लगे हैं।
वरिष्ठजनों की राय से वार्षिकी का कार्यक्रम भी निबटा दिया गया। अब तो तेरहवीं तीसरे, पाँचवे, सातवें दिन भी होने लगी है। पर मंगल की तेरहवीं तेरहवें दिन ही हुई । वत्सला और अंजलीधर भी पहुँचीं। पुरवे के लोगों ने हृदय से इनका स्वागत किया। नन्दू हरबंश गाँव के और बच्चे दौड़ दौड़कर काम करते रहे। मंगल का काम गाँव का काम बन गया था ।
खाने के लिए ही पंगत में सभी बैठे, जाति-पांत का भेद नहीं। वत्सला और अंजली को तख्ते पर खिलाया गया। बच्चों, वरिष्ठों का स्नेह पाकर माँ-बेटी दोनों गद्गद् थीं। इतना स्नेह और कहाँ मिलेगा ?
नन्दू को जैसे भूत सवार है। गाँव भर से वह कह रहा है, 'काका की मौत में कुछ गोल - माल है।'
लोग सुनते हैं पर ज़बान नहीं खोलते। कोतवाल साहब ने अपने सामने लाश जलवाई। कोई क्या कहे? 'चाचा आप क्यों चुप है? क्या आप को नहीं लगता कि ।' नन्दू ने आज मड़ई में बैठे राम दयाल को झकझोरा ।
मुझे ही क्या यह सब गलत लगता है या आपको भी कुछ...?' नन्दू दुखी मन से पूछता है।
'अब क्या हो सकता है नन्दू ?" राम दयाल समझाते हैं। 'अब कुछ नहीं हो सकता इसीलिए हम चुप रहें ।' नन्दू बिफर उठता है ।
'तुम भी चुप रहो नन्दू ।' रामदयाल ने कहा ।
'हम कोतवाल के किए हुए को नकार नहीं सकते।'
'हम उनके किए को मान भी नहीं सकते चाचा ।'
'अपनी ताकत देखो, पुरवे की ताकत देखो नन्दू ।'
'क्या इसीलिए हम झूठ को मान लें ।'
नन्दू अपनी बात पर जोर देता रहा।
'भँवरी, तन्नी, वीरू कोई भी तो कुछ नहीं कहता।
फिर तुम्हारा कुछ कहना.......।’
वे दुखी हैं। उन पर पहाड़ टूट पड़ा है। वे क्या सोच सकते हैं?"
'कोतवाल के खिलाफ खड़ा होना मुश्किल है नन्दू ।'
'इसीलिए कोतवाल साहब जो चाहें कहानी गढ़ लें ।'
'गढ़ ही लेते हैं।'
'तो आप भी मानते हैं कि कहानी गढ़ी गई है।'
'मैं कुछ नहीं मानता।' 'कप्तान के सामने कह सकते हो कि कोतवाल की कहानी झूठी है ।'
'नहीं, मैं ऐसा नहीं कर पाऊँगा। मुझे कोतवाल से बैर नहीं लेना है। मेरे भी बाल बच्चे हैं।' 'पर मेरे बाल बच्चे नहीं हैं चाचा । मुझे तो......।'
'पागल मत बनो नन्दू । घर का काम देखो। छोटे से पुरवे में आग न लगाओ। पुरवे के लोग अगर तुम्हारे साथ हो गए तो पुरवा जल जाएगा।'
'पुरवे में आग लगी तो तुम्हारा घर भी जल जायगा । इसीलिए डरते हो चाचा ।'
नन्दू दुःख और गुस्से की गठरी लादे हँस पड़ा।
'ऐसा कुछ न करना नन्दू जिससे पुरवे का चैन छिन जाय ।'
"इसे तुम चैन कहते हो चाचा ?"
'सूखी रोटी खाकर लोग सो जाते हैं।
तुम अगर आग लगा दोगे तो पुरवे की नींद हराम हो जायगी।'
'हमारा चैन तभी तक है जब तक हम सवाल नहीं करते हैं। सवाल करेंगे तो चैन छिन जायगा। क्या इसीलिए हम लोग सवाल न करें चाचा?"
'मेरी मानो तो न करो।' राम दयाल समझाते रहे। 'चैन से सोइए चाचा जी ।' कहकर नन्दू उठ पड़ा राम दयाल उसे जाते देखते रहे।
थोड़ी दूर पर भोलू इंजन चलाकर अपनी दस बिस्वा लौकी सींच रहा था । नन्दू पानी की धार के आगे बैठ गया। खूब मलकर नहाया । शरीर को ठंडक मिली पर मन की आग बुझने का नाम न लेती। नहाकर घर गया। माँ प्रतीक्षा ही कर रही थी।
'कहाँ गए थे बेटा? कब से मैं रोटी बनाए बैठी हूँ हाथ पैर धो लो । रोटी खाओ।'
नन्दू के पिता हैदराबाद में रंगाई का काम करते हैं। रंगाई का ठेका तो ठेकेदार लेते हैं । नन्दू के पिता ठेकेदार के यहाँ मजदूर के तौर पर काम करते हैं। उत्तर प्रदेश के बाइस लोग उस ठेकेदार के साथ काम करते हैं। सभी दिहाड़ी मजदूर हैं। घर पर नन्दू और उसकी माँ ही रहते हैं। बड़ी बहिन की शादी हो चुकी है। वह अपने घर रहती है । नन्दू के विवाह के लिए भी लोग आते रहते हैं। पिता दूर हैं इसलिए चटपट शादी होने की संभावना नहीं बनती। इस गर्मी में वे आ नहीं पाए। ठेकेदार के पास काम अधिक था ।
नन्दू खाने बैठ गया। 'तू बहुत परेशान है बेटा' 'हाँ माँ मंगल चाचा के बारे में सोचता रहता हूँ। कोतवाल साहब की बात मेरे गले नहीं उतरती माँ। मंगल चाचा के साथ कोई बात हुई है माँ जिसे छिपाया जा रहा है।' 'पर बेटा तू ही घर का चिराग है। कोतवाल साहब तेरी बात से नाराज हुई जायँ तो.. ।' 'माँ मैं क्या करूँ। मंगल चाचा की मौत मैं भूल नहीं पा रहा हूँ ।' 'कोई नहीं भूला है बेटा पर तेरी तरह सभी परेशान नहीं हैं।'
' पर माँ मैं......।'
माँ ने एक कटोरी दही लाकर रखा। एक रोटी मसला, उसे दही में डाल दिया। नन्दू रोटी-सब्जी खा चुका तो दही रोटी खाने लगा ।
हरबंश और नन्दू दोनों एक फरेन्द (जामुन) के पेड़ के नीचे बैठे हैं। अभी पकने में देर है। पक्षी ठोर मार देते हैं। कच्चे फरेन्द गिर ही पड़ते हैं। दस-बीस कच्चे फरेन्द ज़मीन पर पड़े हैं।
"क्या किया जाए हरबंश ?"
'भैया कुछ समझ में नहीं आता कि क्या किया जाय। सब लोग कहते हैं चुप्पी साध लो।'
'कहते तो हैं सब?"
'तन्नी भी तो कुछ नहीं सोचती।'
"क्या सोचे वह ? उसकी परीक्षा चल रही है। ज़रा भी फुर्सत पाती है तो परीक्षा की तैयारी करने लगती हैं उसे अभी इस मामले पर सोचने के लिए मौका ही कहाँ मिला? वीरू कितना छोटा है? माँ क्या सोचे?' 'ठीक कहते हो भैया । वे भी कुछ सोच नहीं पा रहे हैं।'
"मैं ही क्या कर पाया हरबंश ? कप्तान से मिला भी पर लाश तब तक जल गई थी।'
'क्या इसीलिए कोतवाल साहब लाश जल्दी जलाने पर जोर दे रहे थे?"
'हाँ इसीलिए । शव की परीक्षा हो जाती तो कोतवाल की कहानी झूठी हो जाती। सच सामने आ जाता हरबंश। हमें तब इस तरह भटकना न पड़ता सच्चाई जानने के लिए।' 'पर नन्दू भैया हम क्या कर सकते हैं?" इस पुरवे में कोई नहीं जानता कि वह क्या कर सकता है। रोजी-रोटी के काम में ही सारा समय लग जाता है। कैसे कोई जागरूक होगा यहाँ? दो दिन भी काम न करें तो रोटी चटनी के भी लाले पड़ जाएंगे। कोई भी अपना समय बेकार नहीं करना चाहता। नन्दू के सवाल से जूझने के लिए समय चाहिए सुविधा भी । पुरवे के लोगों के पास दोनों नहीं है । तब? कोई जागरूक कैसे बने?"
'ऐसा करते हैं हरवंश | पुरवे के नवजवानों को शाम को इकट्ठा करते हैं। आपस में चर्चा की जाय। देखा जाय गाड़ी किधर खिंचती है?" 'नव जवानों से गुल्ली डंडा, कबड्डी, बैजल्ला की बात करो तो कुछ बता पाएँगे पर इस मामले में....।'
'देखा तो जाए। उन्हें शिक्षित भी करना है । यह तो बताना ही है कि जो कुछ हुआ वह गलत हुआ।'
'हाँ, बताना चाहते हो तो बात दूसरी है।' 'चलो यही सही।' कहकर नन्दू उठ पड़े साथ में हरवंश भी । तरन्ती के परिवार वाले भी मंगल की मौत से दुःखी थे । तरन्ती स्वयं तन्नी से मिलना चाहती थी। पर माँ ने मना कर दिया ।
'तेरी शादी तय हो चुकी है भले ही अभी तिलक नहीं चढ़ी है। तुझे कहीं आने जाने से परहेज़ करना चाहिए। यह सहालग का घर है। शोक वाले घर में तू कैसे जा सकेगी?"
'माँ, तन्नी मेरी सहेली है। उसके पिता की मौत हो गई और मैं जा न सकी।' 'तन्नी और उसकी माँ भी इसे जानती हैं। शादी तय हो जाने पर शोक वाले काम में नही जाते हैं।' तरन्ती दुखी हुई । तन्नी से मिल भी नहीं सकती। तरन्ती के घर में एक मोबाइल था । तन्नी के पास फोन तो नहीं था पर वत्सला बहिन जी के यहाँ फोन की सुविधा थी । वत्सला बहिन जी के यहाँ फोन करूँ तो तन्नी से बात हो सकती है। कम से कम में उससे क्षमा तो माँग ही सकती हूँ। उसने सोचा ।
शाम को नन्दू उसके घर से गुज़रा तो तरन्ती ने उससे वत्सला जी का फोन नम्बर लाने के लिए कहा। 'ठीक है, मैं कल बाज़ार जाऊँगा। फोन नम्बर पता करके बता दूँगा।' नन्दू ने कहा । पुरवे में किसी का भी काम हो नन्दू मना नहीं करता । इसीलिए नन्दू सभी के लिए घरेलू ।
दूसरे दिन नन्दू फोन नम्बर बताता इसके पहले ही तन्नी ने वत्सला जी के घर से तरन्ती को फोन कर दिया। संयोग से तरन्ती ने ही फोन उठाया । 'कौन तरन्ती ?"
'हाँ, मैं तरन्ती बोल रही हूँ। तन्नी तुम कैसी हो? मैं तेरे घर आ नहीं पाई। कारण तो तुम जानती ही हो। शादी तय हो जाने के कारण ही माँ ने तेरे घर जाने नहीं दिया। ठीक किया तरन्ती। मेरा शोक का घर है कुछ तो बचाना पड़ता ही है। इसमें दुखी होने की कोई बात नहीं है तरन्ती । मेरे ऊपर तो पहाड़ टूट पड़ा। बापू का देहान्त हुआ। सब कुछ जल्दी-जल्दी हुआ । समझ न पाई तरन्ती। कोतवाल और पुरवे वालों ने जो चाहा, हो गया । मैं तो अब भी नहीं जान पाई की मौत कैसे हुई ? यह दुख बदा था तरन्ती । तेरी शादी हो जाय। सुखी रह। मेरा सहारा तो भगवान ने छीन लिया।' कहते कहते तन्नी रो पड़ी। 'बन्द करती हूँ तरन्ती ।' तरन्ती ने भी मोबाइल पर वत्सला जी का मैं तो कुछ फोन नम्बर सुरक्षित कर लिया। फिर कभी बात करेगी ।
'तन्नी तू पढ़ ।' वत्सला जी स्वयं खाना बनाती हैं। तन्नी पढ़ने में ही ज्यादा समय देती है। माँ जी उसका ध्यान रखतीं । आज तन्नी की परीक्षा है । वत्सला जी नाम से भी अधिक वत्सल हो गई हैं तन्नी के लिए। माँ अंजली भी तन्नी का ध्यान रखती है। टैक्सी स्टैण्ड तक वत्सला जी स्वयं भेजने गईं। तन्नी टैक्सी पर बैठ गई तभी वे लौंटी ।
परीक्षा कक्ष में समय से पहुँच गई तन्नी । विश्वास जमा पर्चा मिला । उसके पढ़े हुए कुछ प्रश्न आ गए हैं। उसने लिखना शुरू किया। थोड़ी देर बाद प्रताप जी आए। पूछा, 'तुम पास नहीं होना चाहती हो?" तन्नी ने एक बार उन्हें देखा । धीरे से कहा, 'मैं रुपये नहीं दे पाऊंगी। मेरे पास.. ।' कहते हुए रो पड़ी। 'ठीक है। इसका नुकसान तुम्हें ही उठाना होगा। फिर शिकायत न करना।' वे आगे बढ़ गए। लगता है अधिकांश परीक्षार्थियों से रुपये वसूल लिए गए हैं। तन्नी को सामान्य होने में कुछ समय लगा। उसके बापू होते तो वह इतनी निराश न होती । वह तो कहो वत्सला जी का सहारा मिल गया है।
वत्सला जी कालेज चली गईं।
माँ अंजलीधर आज तन्नी के बारे में ही सोचती हैं। उसका पर्चा ठीक हो जाए। सकुशल वह घर आ जाए। बारह बजे से पहले उसे आ जाना था। बारह पाँच हो गया तो अंजलीधर की चिन्ता बढ़ गई। वे उठकर गलियारे में टहलने लगीं। उसे आ जाना चाहिए। दुखियारी बच्ची है । पाँच मिनट और बीता। हर मिनट उन्हें भारी लग रहा था। बारह पन्द्रह पर वत्सला जी ऊपर आईं, उन्हीं के पीछे-पीछे तन्नी । 'बेटी कैसे देर हुई?' 'माँ जी टैक्सी देर से मिली।'
'बच्ची को गेट पर खड़ा रहना पड़ा होगा। माँ जी कुर्सी पर बैठ गईं। वे भी तो पन्द्रह मिनट से चहलकदमी कर रही हैं। 'पर्चा ठीक हुआ बैटी?' 'हाँ माँ जी।' रुपये की बात तन्नी ने बताना उचित नहीं समझा। 'जो कुछ होगा देखा जाएगा। बापू हैं नहीं। अब वह अपने आप ही निपटेगी।'
कपड़े बदलकर वत्सला जी रसोई में आ गईं। चावल-दाल चढ़ा दिया। तन्नी आटा गूंथने लगी। तीन लोगों का भोजन वत्सला जी ने तरोई काटा। चावल की सीटी बजते ही उसे उतारा। भगोने में तेल डालकर लहसुन मिर्चा गरम किया। तरोई धोकर छौंक दिया। गलने में कितनी देर लगती ? दाल की दूसरी सीटी पर उतार लिया। उसी पर तवा रख दिया। गिनकर सात रोटियाँ सेंकी। सब्जी हो गई तो उसे उतार लिया। चालीस मिनट में भोजन तैयार । तन्नी ने प्याज, टमाटर काटकर सलाद बनाया। 'माँ भोजन तैयार है।' वत्सला जी ने कहा । 'ठीक है । थोड़ा सुस्ता लो। पसीना सूख जाए। भोजन इत्मीनान से करना चाहिए।' माँ जी बताती रहीं ।