थोड़ी शर्म करो जी...
कहते हैं... किसी के घर की साफ़ सफाई के बारे में जानना हो तो उसका वाशरूम देखिये। और किसी के दिल को देखना हो तो उसके घर के बर्तनों और खिलाने के अंदाज को देखिये।
अपने घर के पुराने बर्तनों को देख कर अक्सर मुझे बहुत हैरानी होती है। थाली , चम्मच, गिलास, कटोरी, तवा, परात, छन्ना |
सब कुछ बड़े आकार में। माना कि पहले संयुक्त परिवार थे। खाना बनाने के लिए बड़े बर्तनों की जरुरत थी।
लेकिन खाना खाने के लिए भी बड़े बड़े बर्तन किसलिए? इन बर्तनों में तो आज के आदमी को शायद दुबारा खाना मांगने की जरुरत ही ना पड़े।
"क्या पहले के लोग राक्षस थे" – एक दिन मैंने माँ से पूछ लिया।
माँ हंस कर बोली …"नहीं!..पहले के लोग देवता थे। इतना बड़ा दिल उन्ही का होता था।"
उसी दिन से मुझे दिल, बर्तन और देवताओं में एक सम्बन्ध सा लगने लगा |
बचपन में जब किसी सम्बन्धी के यहाँ खाना खाते हुए मै माँ से शिकायत करता ...."माँ दाल सब्जी तो ख़त्म हो गयी है , मै रोटी कैसे खाऊं।" माँ सकुचाते हुए, दायें बाएं देखते हुए मुझे हलके से डपटते हुए कहती ....
"ये अपना घर नहीं है।"
आधा पेट खा कर उठते हुए एक बात मै समझा जाता कि इस घर में कोई देवता नहीं रहता। बचपन में ऐसे ही कई घर मैंने चिन्हित कर के रखे थे। मै ये अच्छी तरह जानता था कहाँ कहाँ देवता रहते हैं और कहाँ नहीं।
लेकिन जैसे जैसे मै बड़ा हुआ देवताओं की संख्या घटने लगी | समय के साथ साथ बढती महंगाई ने शायद लोगों के दिलों के साथ उनके बर्तनों को भी छोटा कर दिया। पर इससे एक मुश्किल हो गयी। पहले के बर्तनों में दुबारा खाना मांगने की जरुरत ही नहीं पड़ती थी और आदमी की इज्जत बची रहती थी। लेकिन अब कितनी बार खाना मांगिएगा, आपकी इज्जत आपके हाथ है।
अब तो भई देवता.. बस कहीं कहीं नज़र आते है।
ज्यादा खाने वाले अब पेटू कहलाते हैं।
वैसे पहले भी जो ज्यादा खाते थे। लोग उनका मजाक बनाते थे, हंसी उड़ाते थे। लेकिन उन्हें ठूंस ठूंस कर खिलाते भी थे। खिलाना पिलाना सौभाग्य समझा जाता था और मेहमान को देवता।
पंजाबी में एक कहावत है.......
"तवा, परात वेख के बैजा बेईमान, घड़ी भर दी शर्मिदगी..... सारे दिन दा राम"
( मतलब किसी के घर में तवा परात की आवाजे आने पर थोडा ज्यादा देर तक बैठे रहें। थोड़ी देर की शर्मिंदगी जरुर होगी, लेकिन फिर सारे दिन का आराम हो जाएगा )
आज इस तरह ताने मार मार कर खिलाने वाले लोग कहाँ हैं। अब तो ज्यादा खाने वालों को लोग राक्षस कहते हैं।
समय सचमुच में बहुत बदल गया है। लेकिन अफसोस समय के साथ मेरी आदतें नहीं बदली। वो कभी कभी मुझे परेशानी में डाल देती हैं।
एक बार एक नये पड़ोसी के यहाँ हम पति पत्नी शाम का नाश्ता कर रहे थे। उनका प्यारा सा छोटा बेटा पास ही बैठा चुपचाप सब देख रहा था। मैंने प्यार से बच्चे को कुछ नाश्ता देने की कोशिश भी की तो उसने इनकार कर दिया। मैंने कहा भी ..."भाभी जी ...मान गए ... आपने बच्चे को बहुत अच्छी ट्रेनिंग दे रखी है। बड़ा समझदार है आपका बच्चा।"
नाश्ता खत्म कर जैसे ही मैंने चाय के कप की तरफ हाथ बढ़ाया। बच्चा जोर जोर से रोने लग गया। मै थोडा हैरान होता हुआ चाय के कप और बच्चे के रोने में सम्बन्ध तलाशने लगा। शायद बच्चे के खास कप में मुझे चाय दे दी गयी है।
बच्चा रोते रोते माँ के पास गया और बोला …"मम्मी अंकल ने तो सारा नाश्ता खत्म कर दिया है, अब मै क्या खाऊंगा? आपने तो कहा था। अंकल जो छोड़ेंगे वो सब तुम खा लेना"
दोस्तों मुझे जोर का झटका जोर से ही लगा। वैसे इस झटके के बाद मै अपने आप को बदलने की पुरे दिल से कोशिश कर रहा हूँ। इसके लिए मै अपनी पत्नी का बहुत आभारी हूँ। जो कहीं भी कुछ खाते वक्त, पास बैठी आँखे तरेरती हुई, मेरे कानों के पास बहुत धीरे धीरे... बस एक ही बात कहती रहती है ...
थोड़ी शर्म करो जी !
और मै खाते खाते शर्माता रहता हूँ ...