नन्हा आशिक़ DINESH KUMAR KEER द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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नन्हा आशिक़

नन्हा आशिक़


पिता से चिपका अंश सिसक पड़ा।जगमोहन बाबू और अथर्व कुछ समझ न पाएं।

थोड़ी देर में अंश पहले की भांति दादा साथ खेलने लगा।

इधर अथर्व एक दो बार खिड़की से झांका पर उसे कुछ समझ न आया।

इधर अंश के व्यवहार में बदलाव साफ झलकने लगा।पहले जहाँ अपनी नन्हीं जरूरतों के लिए दादा या पिता की ओर भागता था वहीं अब वो खिड़की पर बैठने की जिद्द करता।

एक दिन अंश पिता के पीछे-पीछे चल रहा था,अथर्व को दफ्तर की देर हो रही थी ,वो आलमीरा से अपने कपड़े निकाल ज्यों ही मुड़ा अंश टकरा कर धम्म से गिर पड़ा। पास ही रखे मेज के पाए से उसका पैर रगड़ा गया।दर्द व लहर से बच्चा बेचैन हो गया।अथर्व जल्दी से मेज खिसका अंश को गोद में उठा पुचकारने लगा.....

जगमोहन बाबू भी अपने कमरे से निकल कर आये।अथर्व की गोद से अंश को लेते हुए....

जाओ तुम तैयार हो!!

दफ्तर को देर हो जाएगा!!

अथर्व डेटॉल से उसके रगड़ा गए पैर को पोंछ उस पर मरहम लगा दिया।

जलन थोड़ी कम हुई तो दादा को उंगली के इशारे से खिड़की की तरफ ले जाने बोलता है। जगमोहन बाबू अथर्व को घूरते हुए....

का करें इसको?

अथर्व.....

जिद्दी हो गया है ये,

बिन बैठे मानेगा न?

अथर्व तैयार हो अंश का माथा प्यार से चूम घर से निकला।

दादा की गोद में बैठा हाथ हिला पिता को ....

ता ता!!

बदले में अथर्व ....

बाय बेटा!!

पिता के जाते अंश फिर से खिड़की पर बैठने की जिद्द करने लगा।

इसके इस व्यवहार से दादा थोड़ा चिंतित तो हुए पर ये सोचकर निश्चिन्त भी कि यहाँ यह शांति से बैठता है कम से कम गिरने पड़ने का डर तो नहीं।

जगमोहन बाबू अभी तक अंश के वहाँ बैठने के असली कारण न जान पाए थे।

बस उन्हें लगता कि खुले आसमान का टुकड़ा,चिड़ियों की चहचाहट और फूलों की खुशबू से बच्चा सुकून महसूस करता है बस यही सोच अंश को खिड़की पर बिठा देते।

कितनी बार तो खिड़की पर बैठा अंश ऊंघने लगता,यदि जगमोहन बाबू ध्यान न दें तो वो गिर जाय।

विद्योत्तमा घर के काम व कॉलेज के चक्कर में व्यस्त हो भूल भी जाती कि कोई बेसब्री से उसकी राह भी देखता है,पर ज्यों ही अपने कमरे में दाखिल होती उसके कदम खुद ब खुद बालकनी की ओर बढ़ जाते।

रोज की तरह आज भी कॉलेज से आई तो बिस्तर पर न पड़ ,उधर का दरवाजा खोल बालकनी में गई।

दो चेहरे एक ही बार खुशी से खिल उठे।

नन्हा अंश.....

हाथ से बुलाने का इशारा करते हुए....

मम्मा!!

मम्मा!!

विद्योत्तमा भी इस ढाई अक्षर के शब्द को सुनने को जैसे बेचैन थी।

मुस्कुराते हुए उसके करीब जा उसके नन्हें हाथों को थाम प्यार से चूम ली।

अंश खिड़की से लटके अपने पैरों को दिखाते हुए....

मम्मा ई!!

विद्योत्तमा अंश के पैरों को देखी जहाँ रगड़ाने की वजह से कोमल त्वचा छिल सी गई थी।

विद्योत्तमा....

ओहह!!

आज फिर!!

कैसे गिर गया बच्चा!!

विद्योत्तमा उसके पैरों पर फूंक मारती है....

फुऊऊऊ!!

फुऊऊऊ!!

अंश दोनों हाथों से विद्योत्तमा के चेहरे को छूता है।कोमल हथेलियों का स्पर्श से विद्योत्तमा का मन भींग गया।

आह!!

कितना प्यारा बच्चाहै!!

विद्योत्तमा खिड़की से झांकने की कोशिश करती है पर उसे कोई न दिखता है।शायद जगमोहन बाबू शांत बैठे अंश को देख किसी काम से दूसरे कमरे में गए थे।

विद्योत्तमा के पास बहुत सारे सवाल थे जिसका उत्तर अबोध न दे सकता था।

पर दोनों को ही एक दूसरे के सानिध्य के प्यासे थे।

विद्योत्तमा हर बार पूछती.....

बेटा मम्मी कहाँ हैं?

अंश खिलखिला उसकी ओर उंगली दिखा...

मम्मा!!

बच्चे के मुंह से अपने लिए यह सम्बोधन सुन वो ऐसे खुश होती जैसे वो सच में माँ बन गई।

जगमोहन बाबू के घर का पिछला हिस्सा होने की वजह से दोनों घरों में एक दूरी सी थी भले उनकी खिड़कियां इधर बालकनी तरफ क्यों न खुलती हो।

अबोध की खुशी के इस खजाने का राज न जगमोहन बाबू जान पाए न ही अथर्व। अब तो अंश नित्य ही खिड़की पर घण्टों बैठता।

कभी क्षणिक इंतजार में भी विद्योत्तमा दिख जाती तो कभी घण्टों इंतजार के बाद भी (विद्योत्तमा की अनुपस्थिति में ) बन्द दरवाजे न खुलते।

शाम में अथर्व दफ्तर से लौटा तो लाइट न थी। पिताजी और अंश दोनों गर्मी से परेशान लगे।आया खाना बनाकर जा चुकी थी। ऐसे में वो निश्चय किया कि पिताजी और अंश को कहीं बाहर घुमाने ले जाय।

जगमोहन बाबू.....

तुम बाबू को घुमाकर ले आओ।

तब तक लाइट भी आ जायेगा।

अथर्व अंश को गोद में ले बाहर निकला।

बाहर की खुली हवा थोड़ा राहत दे रही थी।बाहर ठंढी हवा लगी तो अंश पिता की कंधे पर सर टिका दिया।

अथर्व.....

क्यों बाबू!!

निंदी आ रही है?

पिता की बातें सुन .....

नींद से बोझील पलकें खोल पिता को देखा।

अथर्व .....

मेला बाबू त्या थायेगा?

अंश नींद में है फिर भी अथर्व एक दुकान से उसके लिए ब्रिटानिया मिल्क बिकीज़ बिस्किट का एक पैकेट खरीदा और एक अमूल का चॉकलेट।

सोने पर बच्चा भारी हो जाता है इसलिए अथर्व अंश को बातों से बहलाते हुए....

देखो तो बाबू!!

ई बिस्किट!!

अंश आंखे खोल हाथ बढ़ा एक में बिस्किट व दूसरे में चॉकलेट पकड़ लिया।बाएं हाथ में चॉकलेट ले सीने चिपका लिया तो बिस्किट वाला दायां हाथ पिता की पीठ पर झूला कंधे पर सर रख दिया। अथर्व उनींदी अंश से बोलते बतियाते वापस घर आया।

सुबह आया कि रसोई की खटपट से अथर्व की नींद खुली।अंश दादा साथ सुबह से ही जगा था।

रात का चॉकलेट, बिस्किट बिस्तर पर ही था। अथर्व उठा तो देखा कि पिताजी घोड़ा बने अंश को पीठ पर घुमा रहें,हिलते डुलते पीठ पर बैठा नन्हा खिलखिला रहा।

अंश पिता को देख दादा की पीठ से उतरा,पिता के हाथों में चॉकलेट ,बिस्किट देख लेने को हाथ बढ़ाया।

अथर्व बिस्किट का पैकेट खोल दो बिस्किट हाथ में थमा दिया।दूसरे हाथ में चॉकलेट लिए अंश फिर से खिड़की पर बैठने को मचलने लगा।

हाथ गन्दा न हो ये सोचकर अथर्व ने चॉकलेट का रैपर बिन फाड़े पकड़ाया था।

अंश को रुलाने से बेहतर खिड़की पर बिठाना ही समझा।

अंश हर रोज की तरह खिड़की पर बैठ नजरें विद्योत्तमा की बालकनी में टिकाए बिस्किट खाने लगा।अथर्व भी दफ्तर जाने की तैयारी में लग गया।

विद्योत्तमा भी सुबह के काम से निवृत हो कॉलेज जाने को तैयार हो बालकनी तरफ का दरवाजा बंद करने को आगे बढ़ी तो खिड़की पर मासूम दिख गया। दोनों ही एक आकर्षण में बंध से गये थे।विद्योत्तमा अंश के करीब जा....

क्या बाबू!!!

क्या खा रहा है?

अंश दांत कटी बिस्किट को विद्योत्तमा की ओर बढ़ा....

मम्मा!!

अच्छा!!

मम्मा को खिलायेगा मेरा बाबू!!

विद्योत्तमा उसके हाथ से बिस्किट ले उसे खिलाते हुए....

बिस्किट तो बाबू खायेगा!!

बिस्किट खत्म हुआ तो नन्हा दूसरी हाथ का चॉकलेट आगे बढ़ाया.....

विद्योत्तमा हंसते हुए.....

सुबह सुबह चॉकलेट भी!!

विद्योत्तमा चॉकलेट का रैपर फाड़ उसके हाथ में चॉकलेट पकड़ा दी।

गर्मी से चॉकलेट पिघलने लगा था।

अंश चॉकलेट वाला हाथ विद्योत्तमा की मुंह की ओर बढ़ाता हुए....

मम्मा!!

विद्योत्तमा बच्चे का चॉकलेट न खाना चाही तो उसकी आंखें डबडबा गई।

दोनों दिन दुनिया से अनजान एक दूसरे को चॉकलेट खिलाने में व्यस्त थे तभी अथर्व तैयार हो दफ्तर को निकलता उसके पहले खिड़की पर बैठे अंश को गोद में लेना चाहा।

वो ज्यों ही खिड़की के करीब गया उसे महसूस हुआ कि खिड़की के बाहर कोई है जो अंश से बात कर रहा।

अथर्व अंश के पीछे खड़ा दूर से ही खिड़की के बाहर देखा कि अंश के करीब प्यारी सी एक लड़की खड़ी है जिसके हाथ और मुंह में चॉकलेट लगा है वहीं अंश भी चॉकलेट से सनी अपनी पांचों उंगलियां मुंह में डाले है।

अथर्व बिना किसी का ध्यान भंग किये वहाँ से खिसक गया। बस जाते-जाते पिता से....

पापा!!

अंश खिड़की पर ही है,जरा ध्यान दीजियेगा।

विद्योत्तमा भी अब कॉलेज को निकली। जगमोहन बाबू बहुत देर से बैठे अंश को अब खिड़की से उठाये तो हांथ मुंह चॉकलेट से सने देख....

ये अथर्व भी न!!!

क्या जरूरत है बच्चे को चॉकलेट देने की!!

आया भी जा चुकी थी।जगमोहन बाबू छोटा तौलिया भींगा उसके हाथ मुंह साफ करने लगे।

अथर्व दफ्तर तो गया पर उसे किसी काम में मन न लग रहा।अथर्व का खिड़की पर बैठने की जिद उसकी बेवजह न थी ये बात आज उसे समझ आई।

दफ्तर की व्यस्तताओं के बीच दिन भर उस लड़की और अंश का चॉकलेट से सने चेहरे नजरों के सामने दृश्यमान होते रहे।