मासूम बचपन DINESH KUMAR KEER द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मासूम बचपन

1
मासूम बचपन

मेरे मन में यदा - कदा यह सवाल उठता कि ,
" क्या बचपन बिल्कुल ही होशमंद नहीं होता या चालाकी की हद तक होशमंद होता है ?"
मैं अपने माता - पिता की सबसे छोटी संतान था। वैसे अगर बड़ी संतान होने के फायदे हैं तो छोटे होने के भी कुछ कम नफे नहीं हैं।
पेशे से हमारे पिता विद्यालय में प्राध्यापक थे। और इस नाते उनका व्यवहार अधिकतर सबसे छात्र एवं शिष्य का ही रहता।
जबकि मुझसे वे हमेशा नरमदिली से ही पेश आते रहे। मेरे परीक्षा फल के दिन वे बहुत खुश रहते और उस दिन शाम में हमारे घर में गरमागरम समोसे और जलेबी जरूर मंगवाई जाती। पिता बचपन से ही मुझे दुलार करते। और इसी वजह से वे मेरी घोर गलतियों पर भी मुझे सजा देनें के वक्त खुद को कमजोर बना लिया।
इस से संबंधित एक मजेदार वाक्या जिसे आप सबसे शेयर करना चाहता हूं।
उन दिनों फिल्मों की सचित्र कथा पुस्तकों में छप कर आया करती।
कड़े अनुशासन वाले हमारे घर में खुलेआम वैसी पुस्तकों को पढ़ना तो क्या लाना भी दंडनीय अपराध की श्रेणी में आता था।
लेकिन एक दिन किसी सखा से मांग मैं चोरी - छिपे वैसी ही एक पुस्तक पाठ्यक्रम की पुस्तक के बीच में दबा कर पढ़ने में इतना लीन हो गया था।
यह भी ध्यान में नहीं रहा कि पिता के विद्यालय से आने का समय हो गया है।
घर में प्रवेश करते ही मुझे अध्यनरत देख कर पिता बहुत प्रसन्न हुए थे।
वे मेरी पीठ थपथपाने के लिए मेरी ओर बढ़ आए।
उन्हें अपनी ओर बढ़ते देख कर मैं हड़बड़ा गई और झटक कर खड़े होने की कोशिश में किताबों के बीच में छिपी वह रंगीन किताब मेरे हाथों से छूट कर सीधी उनके पैरों पर ही गिर पड़ी।
उन्होंने झुक कर किताब उठा ली ' तीसरी कसम ' और अपने होशों-हवास खो बैठे। मैं दोनों हाथों से अपने सिर को छिपाए नीचे की ओर झुका जा रहा था यह सोच कर कि ,
" अब पड़ी कि तब पड़ी "
अचानक ही उनका मूड बदल गया ,
" फिल्म की किताब पढ़ना तो बहुत गलत है पर तुम अच्छा उपन्यास पढ़ रहा हो इस लिए… " बोलते हुए वापस पलट गए थे।
मैं आज भी सोचता हूं,
क्या सच में फिल्मी गानों वाले उस सचित्र रंगीन किताब को वे उपन्यास समझ रहे थे।
या मुझे कम शर्मिन्दा करने के लिए खुद ही जानबूझ कर भूल कर रहे थे ?



2
फैसला
रात के बारह बज रहे थे। मोहन की अचानक नींद खुल गई। उन्हें प्यास महसूस हुई अतः पानी पीने कमरे से बाहर आए।
उन्होंने रात को अपने तेरह वर्षीय बेटे को उसके कमरे में सिगरेट पीते देख लिया। मोहन से रहा नहीं गया। एक थप्पड़ जड़ते हुए कहा-" अभी से सिगरेट पीते हो। जरा भी शर्म बाकी नहीं रही?"

बेटे ने कहा-" पिताजी! मैं सिगरेट शौक से नहीं पी रहा था। वह तो आपको प्रायः रात में शराब और सिगरेट पीते देखता हूँ, तो मेरे भी मन में आया कि एक बार सिगरेट और शराब पीकर देखूँ कि इसमें कैसा आनंद आता है। वह महसूस कर रहा था।"

मोहन सन्न हो गए और बिना कुछ कहे कमरे से बाहर आ गए। रात की उनकी करनी के सच का दर्पण अनायास ही उनके बेटे ने उन्हें दिखला दिया।

सोते वक्त पत्नी ने कहा-" आज आपने जवान होते बेटे पर हाथ उठाया। आखिर बच्चा वही सीखता है जो देखता है। जैसे संस्कार मिलेंगे वैसा ही स्वभाव हो जाएगा। यदि बुढा़पा सुधारना है तो उसे अच्छे संस्कार दीजिए।"

पत्नी सो गई लेकिन मोहन जागते रहे। सोचते रहे। कानों में रात भर पत्नी की यह बात की "बुढा़पा सुधारना है तो बच्चे को अच्छे संस्कार दीजिए"- गूँजते रहे। सारी रात निकल गई। सुबह ब्रह्म मुहूर्त आ चला। अचानक मोहन ने एक फैसला लिया।

उठे और अपनी अलमारी खोली। उसमें दो बोतल शराब और तीन पैकेट सिगरेट के पडे़ थे। उन्होंने दोनों बोतल और तीनों पैकेट उठाये और धीरे से घर का दरवाजा खोल बाहर आकर बाहर पडे़ कचरे के डिब्बे में उन्हें डाल वापस घर आकर चैन की नींद सो गए।

आखिर सद्गुणों ने दुर्गणों पर विजय प्राप्त कर ही ली।