सोई तकदीर की मलिकाएं
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जयकौर का वह पूरा दिन सुभाष का इंतजार करते करते बीता । समय काटने के लिए वह सारा दिन खुद को काम में झोंके रही । बस मन में एक उम्मीद थी कि शाम होते होते वह आ जाएगा । आखिर दिन ढल गया । शाम हो गई । शाम बीती फिर धीरे धीरे गाँव के आंगन में रात उतर आई । चारों ओर घना अंधेरा छा गया । अमावस की काली बोली रात थी । चाँद को तो आज आना ही न था । चाँदनी के अभाव मे तारे भी अपना तेज गँवा बैठे थे । हवेली के भीतर बेशक ट्यूबलाइटें और बल्ब जल रहे थे पर गली में हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था । सब लोग खाना खा चुके थे । यहां तक कि सोने से पहले का दूध भी बाँटा जा चुका था और सुभाष का अभी तक कोई अता पता नहीं था । जयकौर का मन बुरी तरह से घबरा रहा था । किससे बात करे । किसे पूछे ? आसमान का सारा अंधकार मानो उसके भीतर उतर आया था ।
वह बार बार याद करने की कोशिश कर रही थी कि सुभाष कहीं जाने वाला था क्या ? उसने ऐसा कुछ तो कहा ही नहीं था । न कोई इशारा किया । दोनों साथ साथ ही सुबह से दोपहर तक इकट्ठे घूमते रहे थे । दोनों सुबह साथ साथ घर से निकले । दोनों ने साथ साथ गाँव पार किया । दोनों ने कम्मेआना के बस अड्डे से बस ली । साथ ही कोटकपूरा के बस स्टैंड पर उतरे । साथ साथ जाकर डाक्टर से मिले । साथ ही वहाँ से रिपोर्टें ली । साथ ही वहाँ से चले । साथ ही संधवा की बस पकङी । साथ ही बस में चढे और साथ साथ बैठ कर सफर किया । साथ ही संधवा के बस स्टैंड पर उतरे । दो कदम साथ चले फिर वह उस लङके के साथ उसकी बाईक पर बैठ कर हवेली आ गई । सुभाष पैदल आ रहा था । इस बीच कहीं जाने की तो कोई बात ही नहीं हुई फिर चला कहाँ गया वह । वह बार बार सारा घटनाक्रम मन ही मन दोहराती पर कहीं कोई सिरा हाथ आ ही नहीं रहा था ।
बसंत कौर चौंका संभालने लगी थी । उसने पोने में लपेट कर पाँच फुलके और कटोरा भर सब्जी निकाली और दोनों चीजें मिट्टी के कूंडे के नीचे रख दी – जयकौर यह सुभाष की रोटी सब्जी मैं ने कूंडे के नीचे रख दी है । आए तो दे देना ।
जी बहन जी ।
वैसे ये लङका रह कहाँ गया । नौ से ऊपर हो रहे है । आधी रात होने वाली है । गाँव में तो आधे से ज्यादा लोग अब तक सो भी गए होंगे । जो लोग अभी तक जाग रहे हैं , वे भी सोने की तैयारी कर रहे होंगे । आखिर सवेरे सबको जल्दी जागना भी तो होता है और ये भला मानुस अभी तक न जाने कहाँ भटक रहा है । भाई कहीं जाना हो तो घर बताना जरूरी होता है या नहीं । मैं अब तक रोटी लिए बैठी थी । ये इतनी कितनी बातें होती हैं जो अभी तक खत्म ही नहीं हुई । दोपहर का भटक रहा है । कोई पूछने वाला नहीं है न । न मां ,न बाप, न कोई भाई बहन , न बीबी । छङा छङाक आदमी जहाँ बैठ गया , गप्प लङाने बैठ गया फिर कोई फिकर ही नहीं पर पिछले एक डेढ महीने से यहाँ है , आज तक तो कहीं रुका नहीं फिर आज ऐसा कहाँ अटका हुआ है । बसंत कौर मानो अपने आप से ही सवाल जवाब कर रही थी ।
सुन मैं तो अब सोने जा रही हूँ । तुम दोनों भी जाकर सो जाओ । और जोरे , तू आज यहीं आँगन में मंजा बिछा ले और यहीं सो जा । अगर वह भटकता हुआ आ गया तो दरवाजा खोल देना ।
जोरे ने कुछ नहीं कहा । चुपचाप पीछे जाकर मंजा उठा लाया और आंगन में बिछा लिया । केसर तब तक भीतर सभात से एक चादर , तकिया और खेस निकाल कर ले आई थी –
ले पकङ , ये बिछा कर सो ।
जोरे ने चादर बिछाई , तकिया सही जगह टिकाया और लेट गया । बसंत कौर चौबारे गई तो केसर भी अपनी कोठरी में चल पङी । जयकौर को भी अपने कमरे में जाकर लेटना पङा पर नींद तो आज बैरन हो गई थी ।
वक्त को अपनी रफ्तार से बीतना ही होता है । वक्त अच्छा हो या बुरा किसी के लिए नहीं रुकता । रात को बीतना था सो बीत गई । गुरद्वारे में माईक पर पाठी जपुजी साहिब का पाठ करने लगे .तो गांव में भी चहल पहल होने लगी । जयकौर को लग रहा था कि आज रात कितनी लंबी हो गई है कि बीतने में ही नहीं आ रही । बाहर कुछ चहल पहल हो तो वह भी बिस्तर छोङ कर बाहर निकले । सारी रात वह बिना पलक झपकाए एक ही करवट लेटी रही । जोरे की नींद खुली । उसने चादर खेस तह करके एक ओर टिकाए और मंजा उठा कर पीछे कोठे में रखने चल पङा । मंजा उठाने की आवाज सुन जयकौर भी बाहर निकल आई । आसमान अभी रात की कालिमा से मुक्त नहीं हुआ था । सूरज अभी अपनी चारपाई पर लेटा हुआ था । सुबह के साढे चार बजे होने है । अभी दिन निकलने में आधा घंटा लगने वाला था । जोरे ने आँगन में लगी नीम से चार पाँच दातुन तोङी और जयकौर को थमा दी और खुद दाँत मांजने लगा । जयकौर जानना चाहती थी , सुभाष रात में आया तो नही पर इतना नीचे होकर एक कमीन से कैसे पूछे कि उसका आशिक इस समय कहाँ है । मन मार कर चुप रहना ही श्रेयस्कर होगा । वह सिर झुकाए चूल्हा चौका लीपती रही ।
जोरे ने बात करने के लिए कहा – बीबी , वो सुभाष तो रात आया ही नहीं , मैं सारी रात बिङक लेता रहा कि शायद अब आ जाए , तब आ जाए । आखिर हार कर एक बजे सो गया कि अब आधी रात को तो क्या आएगा और वह सचमुच नहीं आया ।
जयकौर उसी तरह सिर झुकाए काम में लगी रही । उसने जोरे की बात का कोई जवाब नहीं दिया । पिछले कुछ दिनों से उस पर वैसे ही सुस्ती छाई रहती थी , आज रात के जागरण से उसका सिर दर्द करने लग गया था । पलके भारी हो रही थी । ऊपर से सुभाष की चिंता अलग से जान पर बनी थी । अचानक उसने सोचा कि कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं घट गई । सोचते ही उसका सारा शरीर कांप उठा । उसने अपने आप को तसल्ली दी – नहीं ऐसा नहीं हो सकता । छोटा सा तो गाँव है । एक मिनट में खबर पूरे गाँव में फैल जाती है । अगर सुभाष के साथ कुछ ऐसा वैसा घटा होता तो अब तक सारे गाँव के लोग जान चुके होते और हवेली , हवेली में तो सबसे पहले खबर आ चुकी होती । उसने ईश्वर को याद किया । अपनी बेवकूफी की माफी मांगी और सुभाष की सलामती के लिए मन ही मन प्रार्थना की ।
बाकी फिर ...