छीतर जी की पत्नी सुशीला देवी जी के गुजर जाने के बाद छीतर जी के जीवन में भी जैसे शांति ही छा गई । अब वह बहुत चुप - चुप से रहते, मुख भी बहुत उदास रहता, ज्यादा किसी से ना मिलते ना बोलते ।
यह देख उनका बेटा प्रमेश चिंतित हुआ और सोचने लगा कि ऐसा क्या किया जाए कि पापाजी कि यह गहन उदासी दूर हो और वह फिर से जीवन के रंग में ढल जाए ...
तभी उसे याद आया कि उसके पापाजी को क्रिकेट खेल बहुत पसंद था और आज भी है । तो उसने सोचा क्यों ना क्रिकेट खेल के सहारे ही मैं पापाजी की यह खामोशी की तंद्रा दूर करूं ।
उसने अपने बेटे तनु को बुलाया और दोनों ने आपसी कानाफूसी कर पापाजी के सामने खेल रचा । जिसमें दोनों एक दूसरे को चैलेंज देने लगे कि मैं तुमसे ज्यादा अच्छा खेलता हूं, हिम्मत है तो जीत के दिखाओ और ऐसे करते हुए दोनों पिता - पुत्र नीचे गली में क्रिकेट खेल खेलने पहुंच गए ।
छीतर जी ने प्रमेश और तनु के खेल की आवाजें सुन कुछ समय तक तो धीरज धरा । पर जब ना रहा गया तो खिड़की से झांक कर देखने लगे ।
धीरे - धीरे गली के बाकी लोग भी खेल में शामिल हुए और मोहल्ले में खूब मौज - मस्ती और धमाल - चौकड़ी मच - सी गई । कोई प्रमेश की टीम के लिए हौसला अफ़ज़ाई करते, तो कोई तनु की टीम के लिए ।
जब छीतर जी से भी ना रहा गया तो वो भी नीचे आ गए और कभी प्रमेश को तो कभी तनु को आवाज लगाकर बताने लगे कि ऐसे खेलो ... बैट को ऐसे पकड़ो ... बॉल को ऐसे फेंको ... बस इसी तरह करते करते छीतर जी भी कब खुद ही बैटिंग करने लगे उन्हें खुद ही पता ना चला ।
सब मोहल्ले वासियों को इस खेल में इतना मजा आया कि अब तो मोहल्ले में रोज ही क्रिकेट खेला जाने लगा । जिसमें छीतर जी भी अवश्य भाग लेते ।
इस तरह प्रमेश और तनु के द्वारा चढ़ाए गए क्रिकेट का चस्का ने छीतर जी के जीवन में आए उदासी और ठहराव के बुखार को दूर किया और उन्हें फिर से जीवन के रंग में रंग दिया ... !