प्रेम की सच्ची व्याख्या DINESH KUMAR KEER द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम की सच्ची व्याख्या

छोटे भाई सोहन से पिता की बीमारी का हाल फोन पर सुनकर मोहन तिलमिला उठा...
गला रूंध गया, किसी तरह से इतना ही बोल पाया....
"पिता जी इतने बीमार है और मुझे आज बता रहे हो भाई...
कहां इलाज चल रहा है....
"पिता जी ने ही आपको बताने को मना किया था मोहन भैया ...
आप बेकार में बहुत परेशान हो जायेंगे...
महावीर कैंसर संस्थान में भर्ती कराया था डाक्टरों ने जबाव दे दिया है और घर ले जाने को कहा है....बस दो तीन दिनों के मेहमान है...
"तू महान है ‌सोहन....
मैं तो उनके लिए कुछ भी ना कर सका....
"कहते कहते फोन उनके हाथ से छूट गया और मोहन फूट फूटकर रोने लगा....
"अब रोते कलपते ही रहोगे कि पटना की फ्लाईट भी बुक करोगे... पहुंचने में देर हुई तो सासु मां की सब ज्वेलरी हाथ से जाती रहेगी...
पत्नि सुधा की आवाज मोहन को कही दूर से आती सुनाई पड़ी लेकिन वे होश में आ गया...
बंगलोर से पटना के लिए रात की फ्लाईट पकड़ने के लिए मोहन पत्नी के साथ घर से रवाना हुए तो कार में अतीत ने उन्हें जकड़ लिया....
तीन वर्ष पहले मां की मृत्यु के बाद घर से लौटते समय पिताजी को वह अपने साथ बैंगलोर अपनी नौकरी वाले स्थान पर ले आये थे ताकि कुछ चेंज हो जाएगा ....
उसके घर की साज-सज्जा और शान शौकत देखकर पिता अभिभूत हो गए थे बार बार ईश्वर का शुक्रिया अदा करते...
आखिर मोहन एक मल्टी नेशनल कंपनी में लां अडवाइजर था और दो लाख रुपए प्रतिमाह कमा रहा था...
मोहन की पत्नी सुधा ने पहले सात दिनों तक ससुर की काफी खातिर तवज्जो की ....
फिर आठवें दिन पूछा,
"पिता जी....वो सासु मां के गहनों का क्या हुआ....
मुझे कुछ नहीं मिला ...
वह रत्न जड़ित हार तो मुझे ही मिलना चाहिए ना आखिर बडी बहु हूं घरकी ... .
"बेटी.... छोटी के लाकर में सब रखा है...इस बार आना तो दोनों आपस में बांट लेना....
"बांट लेना......फिर तो मिल चुका वह मन ही मन बुदबुदाई
फिर पूछा,
" पिताजी आप कब तक यहां रहने वाले है....
" यह क्या सवाल है सुधा ...मोहन ने कुछ गुस्से से पूछा
"वो क्या था ना पिताजी कि मेरी मां आबो हवा बदलने के लिए यहां आना चाह रही थी....सुधा ने सहज भाव से उत्तर दिया...
"बस बहू....दो तीन दिन और...अपनी मां को आने के लिए लिख दो....
उसके बाद पिता जी बैंगलोर नहीं आये थे...
पिता की तेरहवीं का काम भली भांति निपट गया था...
पगड़ी की रस्म में छोटे भाई सोहन ने बड़े भाई मोहन के पैर पर पगड़ी रखते हुए उनसे घर द्वार और सारी जायदाद संभालने की विनती की थी लेकिन मोहन ने छोटे भाई सोहन को ही पगड़ी पहना दी थी..
श्राद्ध में भाग लेने खानदानी वकील भी आए थे....
सभी रिश्तेदारों और उपस्थित सज्जनों के सामने मोहन ने वकील साहब से कहा ....
" पिताजी जब तीन साल पहले बंगलोर गये थे तो उन्होंने अपनी वसीयत तैयार कराई थी कृपया सबके सामने उसे खोलकर सबको सुना दे....
कमरे में एकाएक सन्नाटा छा गया था आपसी खुसुर फुसुर शुरू हो गई थी ...रिश्तेदारों और आसीपडोसियो को मोहन की नीयत पर वाजिब शक होना शुरू हो गया था....
तभी वकील साहब की धीर गंभीर आवाज गूंजी
" मैं दया शंकर वल्द प्रभा शंकर अपने पूर्ण होशोहवास में अपने बड़े बेटे मोहन को अपनी पूरी जायदाद और पैत्रिक घर से बेदखल करता हूं और अपनी पूरी चल अचल संपत्ति का वारिस अपने छोटे बेटे सोहन को बनाता हूं....
वसीयत में अन्य गवाहों के अलावा स्वयं मोहन के भी हस्ताक्षर थे...
सुधा सभी के साथ मोहन को आश्चर्य चकित नजरों से देख रही थी...
" यह सरासर अन्याय है मोहन भैया....
मैं इस वसीयत को नहीं मानता... छोटे भाई सोहन ने आवेश में हाथ जोड़कर कहा
" नही सोहन.... जब बेटे का घर पिता का नहीं हो सकता तो पिता की जायदाद मे उस बेटे की कैसे हो सकती है.....ये घर ये जायदाद सब तुमहारी है और ये एक पिता की आज्ञा है .....मे तुमहारा बडा भाई हूं अब पिता तुल्य हूं तुम्हें ये सब खुशी से स्वीकार करना चाहिए ...
कहकर मोहन ने छोटे भाई सोहन को गले लगा लिया ....
वहीं सुधा हैरत भरी नजरों से उन्हें देख रही थी ....अब उपस्थित लोगों मे एक ही स्वर था भाई हो तो ऐसा ....पिता हो तो ऐसा....
घरों को जोडे रखने और प्रेम की सच्ची व्याख्या करती एक सुन्दर और प्ररेणादायक रचना...
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