नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक
गरीब के घर में छुपी हुई माया
'राजा का गाँव.'
अंग्रेजों के जमाने में, राजा हरिहर सिंह के नाम से बसा हुआ एक पुश्तैनी गाँव. समय के साथ, राजा का वास्तविक नाम तो मिट गया था, पर आज भी इस बड़ी आबादी के गाँव को आस-पास के तमाम इलाकों के गाँव और कसबों में इसे 'राजा का गाँव' नाम से ही जाना जाता है.
शाम का समय था. आकाश में सूर्य की डूबती हुई किरणें, नीचे धरती पर आकर, गाँव की पुश्तैनी राजा हरिहर सिंह की खंडर हुई हवेली के ताल में बिखरती हुई पिघला हुआ सोना बना रही थीं. डूबते हुए सूरज की इस पास आती हुई धुंध को देखते हुए हवेली के खंडरों की मृत होती कीकड़िया ईंट की दीवारों से अबाबीलें और चमगादड़ आकर चिपकने की कोशिशें करने लगे थे. सारे गाँव में शाम की रसोई का धुंआ पसरता हुआ वातावरण में फैल गया था और इसके साथ ही वापस अपने लौटते हुए ढोरों के काफिलों से उठती हुई धूल की धुंध, अपना एक अलग समा बना रही थी.
जिस समय मोहिनी को अपने साथ पुलिस की जीप में बैठाकर, विशिष्ट अधिकारी की जांच टुकड़ी उसके घर पर पहुंची, उसके दोनों भाई-बहन घर के बाहर गाँव के अन्य बच्चों के साथ धूल में खेल रहे थे. पुकिस की चार जीपों और उनमें बन्दूकों के साथ खाकी वर्दी में बैठे हुए सिपाहियों को देख कर मोहिनी के दोनों भाई-बहन, अपना खेल अधूरा छोड़कर, घर के अंदर भागे और हाँफते हुये अपनी मां से बोले,
'अम्मा. . .ओ, अम्मा ! जीजी आई हैं, पुलिस के साथ.'
'काहा कही?' मोहिनी की मां ने सुना तो घबराकर बोलती हुई वह दरवाज़े पर आई और पुलिस के हुजूम को देख कर उसके पैरों के नीचे से ज़मीन ही सरक गई. तभी घबराते हुए उसके मुंह से एक तेज आवाज़ निकली,
'अरे ! ओ, बिटुआ के लाला. देखो तो एक और मुसीबत आही गई.'
मोहिनी का पिता जब तक अपने हाथ का काम छोड़कर दरवाज़े तक आया, तब तक उसके दरवाज़े पर पुलिस आ चुकी थी. अपने घर के दरवाज़े पर पुलिस को फिर से देखकर वह भी घबरा गया. मगर वह कुछ कहता, इससे पहले ही जांच अधिकारी ने उसे सारी बात बताई और मोहिनी के द्वारा घर के अंदर जहां उसने अपनी बचत की सन्दूकची नीचे भूमि में दबाई थी, उसकी जांच करने के लिए कहा.
'?'- बेचारा, मोहिनी का सीधा-साधा, गाँव का किसान आदमी- पुलिस के सामने क्या कहता और क्या कर सकता था? वह चुपचाप दरवाज़े पर से हट गया.
तब जांच अधिकारी ने मोहिनी को आगे किया और उसके साथ पीछे-से पुलिस के चार सिपाही भी अंदर चले गये. बाक़ी के पुलिस के सिपाही बाहर ही अपनी जीपों के आस-पास खड़े रहे.
तब मोहिनी अपने घर में गई.
घर के अंदर जाकर उसने विस्तार से सब कुछ बताया. साथ ही अपने घर की तमाम वस्तुओं, बर्तनों, चारपाइयों और टिन के बक्सों तक को पहचान लिया. फिर वह अपने कमरे में गई. उसके मरने के बाद, उसका कमरा, उसकी छोटी बहन इस्तेमाल कर रही थी. जिस मेज और कुर्सी पर वह बैठकर अपना लिखाई-पढ़ाई का काम किया करती थी, हांलाकि, वह काफी पुरानी हो चुकी थी, मगर मोहिनी ने उसे पहचानते हुए कहा कि,
'यह मेज और कुर्सी, मेरे बिस्तर के सीधी तरफ रहती थी, मगर अब इसे बाईं तरफ रख दिया गया है.'
'?'- इस पर जांच अधिकारी ने मोहिनी की मां से पूछा कि,
'क्या यह सच है?'
यह सुनकर मोहिनी की मां भी रोने लगी. रोते हुए बोली,
'बिटिया, सब कुछ जानत है और सब सच ही बताबत है. पर का करें, जाकी सूरत नाहीं मिलत है.'
'अम्मा ! सूरत से का होत है. कछु तो मान ले कि, मैं तेरी ही मोहिनी हूँ?'
'?'- अरे ! जे तो हमाई ही, बोली बोलत है?'
मोहिनी को घर की बोली में बोलते देख उसकी मां अचानक ही चौंक गई.
उसके बाद मोहिनी ने, अपने पलंग के सिरहाने, दीवार के सहारे, लगभग तीन फीट गहरा तक खोदने के लिए कहा तो उसके पिता ने पूछा,
'यहां क्या है?'
'यहाँ पर मैंने काफी रुपया, पैसा और जेवर छुपाकर रखा था.'
मोहिनी बोली तो उसके पिता के कान जैसे सुन्न पड़ गये.
पलंग के सिरहाने खुदाई हुई. उस जगह को, मोहिनी के पिता ने ही खोदा. और जब उसके अंदर सचमुच एक डेढ़ फीट लम्बी और एक फीट, टिन की जंक लगी हुई सन्दूकची निकली तो उसे देखकर, वहां खड़े हुए सारे लोगों की जैसे आँखें पथरा गईं. सन्दूकची में ताला पड़ा हुआ था. जब उसकी चाबी की बात आई तो मोहिनी ने बताया कि, उसको उसने अपने बक्स में कपड़ों के नीचे रखा हुआ था. मगर, वह चाबी नहीं मिली, क्योंकि उसके वस्त्रों को उसकी मां इस्तेमाल कर रही थी. वस्त्रों और अन्य सामान को इस्तेमाल करने के कारण वह चाबी कहाँ गम हो गई थी, किसी को भी नहीं मालुम था. तब सन्दूकची के ताले को खोलने की कोशिश की गई तो इतने दिनों से पुराना पड़ा ताला तुरंत ही खुल भी गया. उसके बाद पुलिस के अधिकारी ने मोहिनी को ही वह सन्दूकची खोलने को कहा. और जब मोहिनी ने उसे खोला तो प्लास्टिक की थैलियों में छुपाये हुए तमाम नोटों और सोने के जेवर देखकर, पुलिस के साथ-साथ मोहिनी के मां-बाप और उसके दोनों भाई-बहन की आँखें खुली की खुली रह गईं. रकम को जब गिना गया तो वह पांच लाख से भी अधिक निकली. साथ में सोने के जेवर अलग.
गाँव के प्रधान, सरपंचों आदि को बुलाकर सारी नकदी और जेवर का पंचनामा तैयार किया गया और उस को लेकर, मोहिनी के साथ जब पुलिस वाले जाने लगे तो मोहिनी के पिता के अन्य रिश्तेदार, जो अब तक वहां आ चुके थे, उन्होंने उस पैसे के लिए आपत्ति उठाई. वे बोले कि,
'हुजूर, अब इस सारे माल का क्या होगा?'
'जाहिर है, जिसका है और जिसने यह सब बताया है, उसे ही दिया जायेगा?' जांच अधिकारी ने जबाब दिया।
'लेकिन, यह माल तो मेरे भाई के घर में निकला है. इसलिए जिसके घर में निकला है, उसे ही मिलना भी चाहिए?'
'जरुर, मिलना चाहिए. लेकिन, मैं ऐसे नहीं दे सकता. मोहिनी ने बताया है और उसी का है भी, इसलिए आवश्यक कार्यवाही पूरी होने के पश्चात उसी को दे दिया जाएगा. अगर आपको कोई आपत्ति है तो कोर्ट में इसके लिए अर्जी दे सकते हैं.'
इन सारी बातों और पुलिस की बाकायदा जांच के पश्चात, मोहिनी का सारा केस अदालत में गया और वहां पर जब उसके विरोध में कोई भी सबूत नहीं मिले तो कोर्ट की अदालत ने भी उसे बरी कर दिया, क्योंकि जिस आधार, मोहित के पिता की शिकायत और मोहिनी के बयान पर खुद मोहिनी को ही हिरासत में ले लिया गया था, कानूनी तौर पर मृत पाए गये लोगों की आत्माओं के द्वारा किये गये अपराधों की पुष्टि वर्तमान की अदालतें नहीं करती हैं. ना ही, भटकी हुई आत्माओं के बयान और सबूत कोई भी मान्यता रखते हैं. ना ही इन आधारों पर किसी को सज़ा ही दी जा सकती है।
मोहिनी के घर में मिले हुए धन के बारे में भी केवल मोहिनी को ही मालुम था और अगर वह नहीं बताती तो शायद इसके बारे में किसी को कुछ पता भी नहीं चल पाता. इसलिए मोहिनी के पिता व उनके अन्य रिश्तेदारों की कोई भी दलील काम नहीं कर सकी और इस तरह से, एक प्रकार से, मोहिनी का ही पैसा, उसके ही द्वारा एकत्रित करने के कारण, उसी को दे दिया गया. हां, यह और बात थी कि, जमा किया गया पैसा, मोहिनी ने ही जमा किया था, और दूसरी बात थी कि, वर्तमान में मोहिनी अपने किसी दूसरे रूप में आई थी; लेकिन, थी तो वह मोहिनी ही- इसी मुद्दे को सामने रखते हुए कोर्ट के समस्त फैसले मोहिनी की तरफ चले गये थे और पैसे, धन तथा अपने मतलब के लिए जीनेवाले लालची लोग अपने हाथ मलते रह गये थे.
तब कोर्ट, कचहरी और हर तरह की पुलिस कार्यवाही और मुकद्दमों से फुर्सत मिलने के बाद जब मोहिनी एक दिन, रोनित के पास दोबारा गई तो उसने भी सहर्ष मोहिनी को उसके काम पर रख लिया. रोनित भी जानता था कि, मोहिनी बेकसूर है और वह केवल हालात की मारी है। तब मोहिनी, एक बार फिर-से अपनी दुनियादारी के दैनिक कामों में खुद को व्यस्त रखने का प्रयत्न करने लगी.
हांलाकि, मोहिनी के दुःख अभी भी भरे नहीं थे, परन्तु समय की लकीरों ने उन पर सब्र और सहनशीलता की पट्टियां अवश्य ही बाँध दी थीं. उसके आंसू किसी ने भी पौंछे नहीं थे, फिर भी वक्त की रोजाना चलने वाली मौसमी हवाओं ने सुखा अवश्य ही दिए थे. इस संसार में पहले के जीवन में जीते हुए और दोबारा अपना जीवन भीख में मांगने के बाद भी, उसे वक्त की मार ने बहुत कुछ सिखा दिया था. अपनों और गैरों में बाकायदा विभिन्नता, दूरियां और मतलब-परस्ती के दांव-पेचों से वह बहुत अच्छी तरह से वाकिफ हो चुकी थी. प्यार-मुहब्बत के फरेबी आयामों से वह दिन-रात लड़-झगड़कर अपने उस मुकाम तक जा पहुँची थी कि, जहां पर आकर वह यह सोचने को मजबूर हो चुकी थी कि, धर्म-ग्रंथों में जिस प्यार-मुहब्बत और अपनत्व के उपदेश दिए गये हैं, वे सब कम-से-कम इस संसार में तो लागू नहीं होते हैं. प्यार के गीत गाने वाले, प्रेम की वेदी पर स्वाह होने का दम्भ भरनेवाले मजनुओं के किस्से तो केवल किताबों में ही पढ़े जा सकते हैं; इस प्रकार की यह सारी बातें सब कोरी बकवास हैं- झूठ हैं- सच तो वह है जो वह वास्तव में भुगत रही है, अपनी आँखों से देख रही है.
मोहिनी को जो दुःख था, जो सदमा उसे अपने इस प्यार की बाज़ी को दोबारा हार जाने का लगा था, वह यही था कि, उसके जिस निश्छल, निस्वार्थ और अथाह प्यार की महानता को देखते हुए एक बार आसमान की सियासत तक हिल चुकी थी, जिस मोहिनी के प्रेम के टूटते-फूटते आंसुओं की बूंदों को देख कर आसमान के राजा की भी आँखें नम हो गई थीं; उसी प्यार को मोहित ने कितनी बे-दर्दी से ठुकरा भी दिया था? अपने जिस प्रेमी की खातिर मोहिनी दोबारा अपना जीवन भीख में मांगकर इस धरती पर उसके साथ एक नई ज़िन्दगी का सपना लेकर आई थी, उसी की वह कोई कद्र नहीं कर सका था- शायद यह आज के आदमी की फितरत ही थी कि, उसने सदा से स्त्री को अपने मतलब की वस्तु समझ लिया था. अगर मनुष्य को आज भी अपने मनोरंजन, भोग, सृष्टि और वासना की जरूरतें कहीं अन्य पूरी होते मिल जाएँ तो वह शायद दुनियां बनाने वाले की इस अनमोल रचना स्त्री की कोई परवा ही नहीं करेगा.
अपनी इन्हीं समस्त बातों, घटनाओं और भुगती हुई तमाम मुसीबतों के बारे सोच-सोचकर मोहिनी रोती थी और बेबसी में अपना सिर धुनती थी. मजबूर औरत, मजबूरी में, कुछ भी न कर पा सकने की स्थिति में केवल अपने दोनों हाथ मल कर ही रह जाती थी. उसने तो कभी सोचा तक नहीं था कि, अपनी जिस अधूरी प्यार की कहानी को पूरा करने की चाहत लेकर वह एक बार फिर से आसमानी दुनिया में गिड़-गिड़ाकर, बड़ी खुशी-खुशी वापस आई थी, वही अपने प्यार की बे-मुरब्ब्ती और बे-वफाई हरकतें देखकर अब ना तो हंस ही सकी थी और ना ही ज़माने के सामने रो ही सकती थी. अपने प्यार की कहानी के वे फूल जिनसे उसने कभी अपने दिल की सारी गहराइयों से मोहित का नाम अपने दिल की धड़कनों से गुनगुनाकर लिख लिया था, वही फूल आज उसकी उजड़ी हुई ज़िन्दगी के चमन के कांटे बन कर रह गये थे.
क्रमश: