नि:शब्द के शब्द - 18 Sharovan द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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नि:शब्द के शब्द - 18

नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक

अठारहवां भाग

***

दुष्ट-आत्माओं का लश्कर

मोहिनी का जीवन, इकरा के बदन का साथ लेकर, बरसात में भीगी हुई लकड़ियों के समान सुलगते हुए हर वक्त धुंआ देने लगा. इस तरह कि, वह ढंग से ना तो जी सकी और ना ही दुखी होकर मर ही सकी. अपनी अकेली, तन्हा और परेशान ज़िन्दगी के साथ वह अपनी नौकरी तो कर ही रही थी, रोनित, जो उसका एक प्रकार से बॉस और मालिक भी था, वह भी उसका ख्याल हर तरह से रखता ही था, मगर फिर भी, जब कभी वह अपने जीवन के अतीत के बारे में सोचती थी तो खुद ही उसका सारा दर्द उसकी आँखों से आंसुओं की झड़ी के रूप में बाहर आकर बहने लगता था. कभी वह सोचती थी कि, शायद उसने दोबारा इस संसार में, मोहित को पाने की जो भूल की है, वह उसे कभी भी नहीं करनी चाहिए थी. गलती उससे हुई है या फिर मोहित ही उसे ठुकराकर सदा के लिए उससे दूर हो जाना चाहता है? अपनी ज़िन्दगी के सामने लगे हुए इस बड़े-से प्रश्न-चिन्ह को वह जब भी देखती थी तो सिवाय इसके कि, वह जी-भरकर रो ले; कोई दूसरा विकल्प उसको दिखाई नहीं देता था.

अपने सांसारिक जीवन के पहले दौर में सचमुच उसके साथ अच्छा नहीं हुआ था. मोहित के चाचा और उसके रिश्तेदारों ने जिस निर्ममता से उसका गला घोंटकर हत्या कर दी थी, उसकी स्मृति मात्र से ही मोहिनी के रोंगटे खड़े हो जाते थे. इतना सब कुछ उसने फिर भी बर्दाश्त कर लिया था- एक बार को उसने इन सारी कटु स्मृतियों को अपने दिल-दिमाग से निकाल भी दिया था, यही सोचकर कि, चाहे उसका सब कुछ लुट जाता और अगर उसे मोहित भीख में भी मिल जाता, तब भी वह खुश रहकर अपना बचा हुआ जीवन इस धरती पर व्यतीत कर लेती. लेकिन, जब खुद मोहित ही उससे दूर हट गया, सब कुछ जानने और समझने के बाद भी वह उसे दिल-से कबूल नहीं कर पाया तो मोहिनी टूटी ही नहीं बल्कि, बुरी तरह से बिखर भी चुकी थी. इतना अधिक वह अपने-आप में छिन्न-भिन्न हो चुकी थी कि, कहीं से भी उसे अपने आपको समेटने का मार्ग नज़र नहीं आ रहा था. इतना बुरा हश्र उसके प्यार की डगर का हुआ था? कभी उसने सपने में भी नहीं सोचा था. वह डगर, वह राह, जिस पर चलते हुए वह मोहित के साथ-साथ परवाह में एक नदी बनकर बहुत दूर निकल जायेगी. मगर क्या जानती थी कि, मोहित खुद एक झील के समान, एक ही स्थान पर ठहर कर उसके सारे सपनों पर पानी भी फेर देगा. वह झील के ठहरे हुए पानी में, एक पत्थर बनकर केवल पानी की धाराओं से अपना सिर फोढ़ता रहेगा और कुछ भी नहीं करेगा; उसने कभी सोचा भी नहीं था.

इसलिए, रात हो अथवा दिन, धूप हो या छाया, सुबह हो या शाम की धुंध, वह भीड़ में हो या फिर अकेली- उसे जब भी अवसर मिलता वह जी-भर कर रो लेती थी. आंसू, उसके जीवन का वह हमसफर बनकर उसके साथ चलने लगे थे कि, जिन्हें वह जब चाहे, कहीं भी, किसी भी एकांत में चुपचाप बैठकर एकत्रित करने लगती थी. वह अक्सर ही सोचती थी कि, दुनियां ने चाहे लाख उसके साथ बुरा किया था, परन्तु मोहित तो उसका अपना था; उसने क्यों उसके साथ अच्छा नहीं किया? क्यों वह मुकर गया? क्यों वह उसे अपना नहीं पाया? क्यों वह उसकी सारी हसरतों की सजी हुई खुशियों पर ठोकर मारकर चलता बना? बे-मुरब्बत और बे-वफाओं की दुनियां जरुर होती है, पर क्या सारी दुनिया में केवल यही एक प्यार का असली धोखेबाज़ बनकर उसकी शान्ति से भरी हुई ज़िन्दगी में दखल देने के लिए रह गया था? इससे तो भला था कि, वह हमेशा के लिए मर ही जाती और कभी भी इस संसार में आने की जुर्रत ही नहीं करती.

फिर एक दिन, मोहिनी जब अपने काम से वापस आई तो अपने निवास के बाहर अपनी मां और अपने पिता के साथ सफेद लम्बे चोगे में किसी ईसाई प्रीस्ट को सामने देखकर चौंक गई. वह उन्हें सबको देखकर कुछ कह पाती, इससे पहले ही उसकी मां ने, उसे अपने गले से लगाया और फिर वह लिपटकर रोने लगी.

तब काफी देर की खामोशी के बाद मोहिनी की मां उससे बोली,

'बिटिया, मैं जानत हूँ कि, तुम हमारी बिटवा हो. मेरा दिल काहत है कि, तू ही हमार मोहिनी हो, पर का करें कि, ना मालुम किस चुड़ैल ने तोय अपने वश में कर रखो है?'

'?'- मैं, समझी नहीं अम्मा?' मोहिनी ने आश्चर्य से अपनी मां की बात सुनकर कहा.

'हम समझाबत हैं.' उसकी मां से पहले ही उसके पिता ने कहा तो मोहिनी, उनका मुख ताकने लगी.

तब मोहिनी के पिता, अपने साथ लाये हुए प्रीस्ट की तरफ इशारा करते हुए बोले,

'जिस आसमानी राजा की तूने बातें हमको कही हैं, ये ये ईसाई पंडित उसी संस्था के बहुत पहुंचे हुए संत हैं. ये केवल अपने प्रवचन और प्रार्थना से ही तेरे अंदर समाई हुई चुड़ैल, पिशाचनी अथवा दुष्ट-आत्मा को भगा देंगे. जब वह दुष्ट, बद-रूह तुझमें से निकल जायेगी, तब तू बिलकुल ठीक हो जायेगी और फिर तू अपने वास्तविक रूप में, हमारी मोहिनी बनकर आ जायेगी.'

'?'- अपने पिता की इस बात पर पहले तो मोहिनी ने सबको गम्भीरता से देखा. फिर कुछ देर तक सोचा और तब वह प्रीस्ट की तरफ देखकर उनसे बोली,

'अच्छा ! तो आपका ख्याल है कि, मेरे अंदर कोई दुष्ट-आत्मा का निवास है?'

'हां, अब तक का मेरी बीस वर्षों की इस सेवा का अनुभव यही कहता है.'

'और, मेरी खुद की आत्मा? उसके बारे में आप क्या सोचते हैं? वह कहाँ है?'

'उसे, इसी दुष्ट-आत्मा ने दबाकर, बांधकर, अपने वश में किया हुआ है और वह अब तुम्हारे शरीर पर नियन्त्रण रखने लगी है.' प्रीस्ट महोदय ने कहा तो मोहिनी ने आगे कहा कि,

'तो फिर आप उस दुष्ट-आत्मा को मेरे अंदर से कैसे निकालेंगे?'

'दुआ से, परमेश्वर के वचन से और परमेश्वर के पुत्र के नाम से.'

'परमेश्वर के पुत्र का नाम बता सकते हैं क्या आप?'

'हां, हां, क्यों नहीं- जीज़स.'

'और, क्या आपने 'मनुष्य के पुत्र,' शान्ति का राजकुमार,' तथा उसके राज्य, 'शान्ति का राज्य,' का क्या कभी नाम भी सुना है?'

'?'- मोहिनी ने पूछा तो प्रीस्ट महोदय जैसे घबराते हुए अपने आस-पास बगलें झाँकने लगे. तब मोहिनी ने अपनी बात कही. वह बोली कि,

'पास्टर साहब, आप जिस नाम से डरा-धमकाकर मुझे इस बदन में से निकालना चाहते हैं, तो मैं आपको बता देना चाहती हूँ कि, उसी के दूसरे नाम, 'मनुष्य के पुत्र,' और 'शान्ति का राजकुमार,' ने मुझे इस बदन में दोबारा संसार में भेजा है. अगर यकीन नहीं है तो आप अपनी कोशिश कर लीजिये, मैं यहाँ से जाने वाली नहीं हूँ.'

'?'- प्रीस्ट महोदय सुनकर दंग रह गये तो मोहिनी ने आगे कहा कि,

'मैं, अभी जिसके शरीर में, मोहिनी बनकर रह रही हूँ, उसका नाम इकरा हामिद गुलामुद्दीन है. इसीलिये कोई भी मुझे पहले वाली मोहिनी के तौर पर पहचान नहीं पाता है. इसलिए, मैं आपसे अर्ज़ करती हूँ कि, आप यहाँ से चले जाइए और अपना समय नष्ट मत करिये. कितनी अजीब बात है कि, मेरे अपनों ने जब मेरी आत्मा को ही पहचानने से इनकार कर दिया तो वही लोग किस उम्मीद पर, अगर मेरा असली बदन भी होता तो, कैसे मुझे कबूल कर लेते? यह दुनियां इसकदर पाप में लीन हो चुकी है कि, वह किसी भी कीमत पर सच्चाई को स्वीकार करना ही नहीं चाहती है.'

'?'- मोहिनी के इस अप्रत्याशित कथन को सुनकर प्रीस्ट महोदय सुनकर आश्चर्यचकित रह गये. उसकी कही हुई बात का तब उन पर वह असर हुआ कि, वे तुरंत कुछ कह भी नहीं सके. सो उन्होंने मोहिनी के पिता के कंधे पर अपना दाहिना हाथ रखा और बहाने से मोहिनी से कुछ पग की दूरी पर अलग ले गये. साथ में मोहिनी की मां भी उनके साथ-साथ आ गई. तब प्रीस्ट ने बहुत धीमें स्वरों में अपनी बात यों कही,

'मझे बहुत बड़ा दुःख है कि, आपकी सुपुत्री के ऊपर एक दुष्ट आत्मा का प्रकोप नहीं है, बल्कि एक पूरा लश्कर अपनी छावनी डालकर बैठा हुआ है. यह बिलकुल ठीक वैसा ही है जैसा कि, 'नया नियम' में गिरासेनियों के देश में एक मनुष्य के बदन को घेरे हुआ था. एक लश्कर का मतलब है कि, पूरे छह हजार सिपाहियों का एक दल. इसलिए मैं क्षमा चाहता हूँ कि, मैं केवल आपकी बेटी के लिए दुआ ही कर सकता हूँ, और कुछ भी नहीं. अगर मैंने इसे छेड़ा और भगाना चाहा तो इस लश्कर का क्या भरोसा, कहीं मुझ ही पर चढ़ बैठा तो? न, बाबा न. मैं यह काम नहीं कर सकूंगा.'

'आपकी तारीफ़ और आप क्या काम नहीं कर सकेंगे?' अचानक से किसी तीसरी आवाज़ ने पीछे से उनकी बात का उत्तर दिया तो वे लोग पीछे की तरफ देखने लगे. देखा, तो उनके सामने मोहिनी की कम्पनी का मालिक रोनित खड़ा हुआ था. वह किसी अन्य काम से मोहिनी की तरफ आया था.

'?'- रोनित को यूँ अचानक से आया हुआ देख मोहिनी भी उन सबके बीच आ गई. उसे देख कर रोनित ने मोहिनी से ही पूछा कि, 'यह सब माजरा क्या है?'

तब मोहिनी ने थोड़े से शब्दों में सारी बात स्पष्ट कर दी. उसे सुनकर रोनित ने प्रीस्ट और मोहिनी के मां-बाप, तीनों से बड़ी विनम्रता से कहा कि,

'देखिये, आप सब लोग मोहिनी को अब और परेशान मत करिएगा. मोहिनी जी, मेरी कम्पनी में काम करती हैं और दिमागी तौर पर इन्हें कोई भी बीमारी नहीं है. यह अपना काम बाकायदा, एक सामान्य स्त्री के समान करती आ रही हैं और आज तक इन्होने मुझे किसी भी प्रकार की शिकायत का अवसर नहीं दिया है. बेहतर होगा कि, आप लोग यहाँ से चले जाइए. अगर आप दोनों, इनको अपनी सुपुत्री, अपनी लड़की स्वीकार करते हैं तो मेरे लिए बहुत खुशी की बात होगी. अगर नहीं, तो इन्हें शान्ति से जीने दीजिये. रही बात, दुष्ट-आत्मा की, तो वह अगर है तो इनके बदन में नहीं बल्कि, इनके आस-पास होगी. जहां तक मैंने अपनी आँखों से देखा और सुना है, पुलिस विभाग में, अदालत में और अन्य मामलों में भी- कोई अदृश्य शक्ति तो जरुर है जो मोहिनी की मदद करती आ रही है. इसलिए मैं आप लोगों को चेतावनी देता हूँ कि, अगर आप लोग अपनी खैरियत चाहते हैं तो मोहिनी का कोई भी नुक्सान, किसी भी तरह की हानि करने की कोशिश मत करिएगा, बरना वह अदृश्य शक्ति आपकी भी गर्दन मरोड़ देगी.'

'?'- प्रीस्ट ने सुना तो वे चुपचाप वहां से खिसक गये. उसके बाद मोहिनी की मां भी मोहिनी से लिपटकर, रोकर, अपने आंसू पौंछती हुई चली गई.

देखते-देखते ही पल भर में ही वहां का सारा वातावरण उदास कामनाओं की अर्थी बनकर सुलगने लगा. मोहिनी भी रोनित से बात करने के पश्चात, अपने कमरे में बिस्तर पर गिरकर आंसू बहाने लगी. कौन जानता था कि, अपने पहले जीवन में अपनी आकस्मिक मृत्यु और हत्या का सदमा झेल कर, अपने अधूरे प्यार का दुःख बर्दाश्त करती हुई, आत्मिक रूप से भटकती फिर रही थी और अब इस दूसरे जन्म में एक अबला बनकर, अनाथ बनकर, एक परित्यागी औरत के समान आंसू बहाने पर मजबूर थी. उसकी समझ में नहीं आ पाता था कि, वह अपने पहले जन्म की निर्मम मौत के आंसू अंग्रेज गोरों के कब्रिस्थान की उस कब्र पर जाकर बहाए जिसमें उसे किसी कूड़े के समान दबा दिया गया था अथवा इकरा हामिद के भी बदन को छोडकर फिर से आसमानी दुनियां के उस भटकी हुई आत्माओं के संसार में चली जाए, जहां पर न जाने कितनी ही आत्माएं, खी. . .खी करती हुई, चीं. . .चींचीं. . . चीखती हुई, रिरियाती हुई, बेमतलब ही हंसती, लड़ती हुई, अपने दिन काट कर अपनी वास्तविक उम्र को पूरा कर रही होती हैं? अगर मनुष्य ही मनुष्य की कद्र करे, आपस में एक-दूसरे को चैन और शान्ति से जीने दे और किसी का जीवन उसकी उम्र से पहले न ले तो फिर ना तो आत्माएं भटकती होतीं और ना ही इस धरती के ऊपर कोई भी ऐसी निर्दोष आत्माओं का कोई संसार ही होता.

क्रमश: