नि:शब्द के शब्द - 19 Sharovan द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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नि:शब्द के शब्द - 19


नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक / उन्नीसवां भाग

***

लोग तो मर कर जलते होंगे . . .


मोहिनी का जीवन रेगिस्थान की गर्म, आँधियों में उड़ती हुई धूल से बने हुए 'सिंकहोल' की गहराइयों में दब कर रह गया. इस प्रकार कि, जितना ही अधिक वह उसमें से बाहर आने के लिए अपने हाथ-पैर मारती थी, उससे भी अधिक वह उसके अंदर धंसती चली जाती थी. उसे मालुम था कि, एक समय था जबकि, वह इसी संसार में कितना अधिक खुश थी. उसका सारा जीवन ज़माने कि मस्त हवाओं का दामन थामकर खुशियों के रेले में उड़ा फिरता था. उसके पास अपना घर था. मां-बाप थे. उसके अपने दोनों वे छोटे भाई-बहन थे, जिन पर वह अपनी बड़ी बहन और 'दीदी' का अधिकार जताकर खुशियों से फूली नहीं समाती थी. और इससे भी अधिक, उसकी मन पसंद का, सुंदर व्यक्तित्व का, अपना होने वाला मंगेतर मोहित भी था. उसके पास अपनी सरकारी नौकरी थी. सब कुछ ठीक-ठीक चल रहा था. उसे अपने जीवन में कहीं भी, कोई भी रिक्तता दिखाई नहीं देती थी. मगर किसे मालुम था कि, वक्त का एक तेज झोंका-सा आया और एक ही पल में उसकी सारी खुशियों पर बे-दर्दी से लात मार कर चलता बना.

मगर आज, जब वह दोबारा अपना जीवन भीख में मांगकर वापस इस संसार में आई तो, उसके अपनों ने ही उसे गले लगाने से मना कर दिया. आज उसके पास कुछ भी नहीं बचा था. हाथ खाली थे. उमंगे मर चुकी थीं. जीने की लालसा भी समाप्त होने की कगार पर थी. इस संसार में रहते हुए लोगों के दिलों में हमेशा से एक सवाल, एक संशय और एक अजीब-से रहस्य का कंकाल जब देखो तब ही उन्हें कुरेदता रहता है. एक प्रश्न के घेरे में वे उलझे रहते हैं कि, 'मरने के बाद मनुष्य का क्या होता है?', 'वह कहाँ चला जाता है?', 'अपना सुंदर-सा शरीर छोड़कर, उसके अंदर निवास करने वाली अदृश्य आत्मा कौन-से लोक में जाकर खो जाती है?', 'क्या आत्माओं की भी कोई दुनियां होती है?' 'अगर होती है तो उस दुनियां में यह आत्माएं क्या करती हैं?', 'क्या ये आधी-अधूरी जीवन की आत्माएं, 'क्या फिर से वापस इस संसार में आ जाती हैं', 'क्या ऐसी आत्माएं संसार में भटकती भी हैं?', 'क्या यह आत्माएं मनुष्यों से भी अधिक ताकतवर होती हैं?', 'क्या यह बदला भी ले लेती हैं?'- इन समस्त प्रश्नों के जबाब मोहिनी के पास थे. उसने संसार वालों को इनके बारे में अवगत भी कराया था. उन्हें आत्माओं के संसार के बारे में अपनी पूरी व्यथा भी सुनाई थी, उन्हें बार-बार विश्वास दिलाने की कोशिशें की थीं; मगर अफ़सोस कि, उसकी बातों को, बातों की सच्चाई को, आज का मानव विश्वास ही नहीं कर सका था. विश्वास तो करना अलग, उल्टी उस पर मानसिक रोगी की छाप भी लगा दी थी. 'इसका दिमाग खराब हो गया है,' 'मस्तिष्क चल उठा है,' 'यह पागल हो चुकी है,' 'भला, मर कर भी कोई वापस आ सकता है?', 'न जाने कौन-सी दुनियां की बातें किया करती है?', 'यह तो कोई बला है,' 'प्रेतनी है,' 'किसी जिन्न और पिशाच का इसके ऊपर डेरा है,' आदि तमाम इस तरह के लांछनों से युक्त बातों के द्वारा उसको बदनाम किया करते हैं. उस पर हंसते हैं और मज़ाक उड़ाते हैं.

जब उपरोक्त सारी समस्याएं, मनुष्यों के विरोध और अविश्वास में लिप्त मनुष्यों के नापसंद विचार मोहिनी के सामने आये तो उसे वह घटना और शब्द याद आये जबकि, उसने फिर से इस संसार में मोहित के पास जाने की याचना आसमान के राजा से की थी और तब उन्होंने कहा था कि, 'मैं तुम्हें दोबारा संसार में भेज तो दूँ, लेकिन तुम्हें वहां कष्ट बहुत उठाने होंगे,' तब मोहिनी सोचने पर विवश हो गई कि, कितना सच कहा था, उस शान्ति के राजा ने? वह ऊपर वाली शांतिमय दुनिया को ठोकर मार कर दुःख और कष्ट उठाने की याचना कर रही थी? इसमें कौन से आश्चर्य की बात थी? वह सचमुच दुःख, कष्ट और अपनों के ताने तो ही उठा रही है, इस धरती पर? क्या, इसी प्रकार से जीने की आस रख कर वह दोबारा, इस संसार में आई थी?

शायद, उस आसमानी शान्ति के राजा का यही कहना था कि, अगर एक बार को वह भी दोबारा, मनुष्य बनकर नीचे धरती के संसार में चला जाए और ईश्वरी जैसे कार्य करे तब भी यह दुनियां उसे कबूल नहीं करेगी. इसका कारण है कि, चाहे किताबों में लिखा हो, चाहे धर्म-ग्रन्थ ही इस बात की गवाही दें अथवा कोई भी आसमान से आकर वहां की सच्चाई को यहाँ आकर बताये; तौभी, संसार के मनुष्य की फितरत ही ऐसी है कि, वह शैतानी बातों पर तो तुरंत विश्वास करता है, मगर आसमान के फ़रिश्तों/देवदूतों को भी धरती पर आया देखकर वह उसे झूठा ही कहेगा. पहले, ईश्वर की तरफ से, मनुष्यों को संदेश देने के लिए, आकाश-वाणियां हुआ करती थी, मगर आज इस परिवर्तित ज़माने में झूठी वाणियां मनुष्यों के द्वारा हर रोज़ प्रसारित की जाती हैं- और मज़े की बात देखो कि, वर्तमान का मनुष्य उन पर शीघ्र ही विश्वास भी कर लेता है.

इसलिए मोहिनी को जब सभी ने ठुकरा दिया, उसे उसके अपने ही नहीं अपना सके, मोहित ने भी उसके अंदर किसी प्रेतनी के प्यार की हानिकारक खोट समझी, तो मोहिनी अपने-आप में टूटने भी लगी. वह खुद को तन्हा और अकेली समझने लगी. रोशनी से अधिक उसे अँधेरे पसंद लगे. दिन होता तो वह अपना मुंह छिपाने लगती. लोगों के सामने आने से वह बचने लगी. शाम होते ही अन्धकार में सिसक-सिसककर, दम तोड़ते हुए दिए उसे अच्छे लगते. रात के सन्नाटों से भरी अकेली रातों में उसे टहलते हुए बहुत अच्छा लगता. क्योंकि, वह जानती थी कि, उससे आगे ना कोई है, उसके पाछे भी अब कोई नहीं रहा है और इधर-उधर से किसी के आने की गुंजाईश भी अब बाक़ी नहीं रही थी. अब ना तो कोई उसका था और ना ही वह किसी की रही थी. वह अकेली, जिस राह पर वह चलती, वह राह भी अकेली- अपने दिल में सजाकर रखी हुई ढेर सारी हसरतों, चाहतों और प्यार से भरी कसक की किताब को वह जब भी खोलकर पढ़ती तो उसमें लिखे हजारों शब्दों में से किसी एक में भी कोई शब्द ऐसा नहीं मिलता कि जिसमें उसके प्रति मोहित की तरफ से अपनत्व और प्यार का एक भी कतरा चाहत का दिखाई दे जाता. उसके प्यार की हसरतों और चाहतों के वे ढेर सारे शब्द, जिनको उसने अपने निस्वार्थ प्यार की पुकारों की आवाजों से सजाया था, आज वे सबके सब नि:शब्द हो चुके थे. 'नि:शब्द के शब्द'- जिनमें ढेर-सारी उसके दिल की आवाजें भरी हुई थीं, उसके प्यार के तरसे हुए, अफ़साने लिखे हुए थे, आसमान और आसमान के नीचे, इस धरती पर उसके जिए हुए दिनों की कहानी थी, उसका अपना सारा रोना भरा हुआ था; मगर कितने अफ़सोस की बात थी कि, आज उसका रोना चुप कराने के लिए कोई भी उसका अपना नहीं था- कोई भी उसके आंसू पौंछने के लिए, सामने नहीं खड़ा था.

मोहिनी का जीवन, अपने आधे-अधूरे प्यार की कहानी को दोहराते हुए, ज़िन्दगी के उस मोड़ पर आकर ठहर चुका था, कि जहां पर आकर इंसान यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि, 'वह यहाँ क्यों है? क्यों जीवित है? वह किसके लिए जी रहा है? उसका इस संसार में आने का उद्देश्य क्या था? अब कौन है उसका कि जिसके सीने पर अपना सिर रख कर, उसे अपना समझ कर वह अपनी हरेक दुःख-सुख विस्तार से कह सके. अपने मातम के दिनों में उसके सामने जी-भर कर वह रो सके. फिर जब उसे कोई भी नज़र नहीं आता तब वह सिवाय अपना विवशता में सिर धुनने के अतिरिक्त कुछ और नहीं कर पाती. जिस घर में वह रह रही थी, उसकी एक-एक वस्तु उसे काट खाने को दौड़ती नज़र आती. सारे घर की दीवारें भी जैसे आपस में ही उसके प्रति उपहास करती हुई प्रतीत होतीं. तब ऐसे में उसका मन फिर से अपने आत्मिक संसार में वापस लौटने का करने लगता. वह 'शान्ति के राजा' और 'मनुष्य का पुत्र' कहलाने वाले से फिर से कहने लगती, उसको याद करके अपने किये पर क्षमा मांगती और यही याचना करती कि, 'अब बहुत हो गया. इस पापी संसार में लोग तो मर कर जलते हैं, लेकिन, मैं तो जीते-जी जल रही हूँ. अब सहा नहीं जाता. अब यह संसार उसकी बर्दाश्त के बाहर है- मुझे फिर से अपनी दुनियां में वापस बुला ले. वहीं, जहां पर कोई भी अपना सगा नहीं था, मगर सब अपने ही लगते थे. कितनी, सुंदर, सुलभ और मनप्रीत जैसी शान्ति थी, वहां पर. मुझसे भूल हो गई, जो अपने प्यार पर आँखें बंद करके फिर से इस जालिम संसार में आने की याचना की थी. मुझे, एक बार फिर से वापस बुला ले- अपने पास- अपने शांति से भरे संसार में.'

सो, मोहिनी अपनी ज़िन्दगी से परेशान और हताहत, जब भी अपने कमरे में या किसी भी एकांत में होती तो मोहित उसकी यादों की खिड़कियाँ बहुत आसानी से खोलकर उसके सारे सोये हुए प्यार के तारों को झनझना देता था. वह सिर्फ एक बार ही मोहिनी के नैनों का द्वार खोलता था और फिर मोहिनी परेशान हो जाती थी. परेशान होकर वह कभी सोचती कि, वह इकरा की परेशान रूह का सहारा ले और मोहित को बांधकर अपने पास ले आये. उसको, जबरन विवाह करने के लिए मजबूर करे. मगर फिर बाद में यही सोचकर शांत हो जाती थी कि, प्यार जैसी चीज़ कभी खरीदी नहीं जाती है और ना ही जबरन हासिल की जाती है- यह तो मन और आत्मा के अंदर से उपजी हुई वह हरियाली होती है जो एक बार उपज जाए तो फिर जीवन भर अपनी सुगंध से समस्त प्यार के बसेरे को महकाती रहती है.

इस प्रकार से मोहिनी अपनी पिछली बातों को याद करती थी और आंसू बहाती थी. वह जानती कि, अपने प्यार की डगर पर चलते हुए वह एक ऐसे मोड़ पर आकर ठहर चुकी थी कि, जहां पर आकर उसे ना तो खुदा मिला था और ना ही बिसाल-ए-सनम. ना वह इस दुनियां की रह सकी थी और ना ही आसमानी दरबार की. फिलहाल, अपनी उम्र के पूरे होने तक, उसके लिए अब आसमान के शहंशाह के दरबार में भी जाने की इजाजत नहीं रही थी.

अपनी सोचों और विचारों की दुनिया में जीते-भटकते, एक दिन जब वह बैठी हुई थी और मन मारकर सुबह की नाजुक धूप में बैठी हुई सुबह की गर्म-गर्म कॉफ़ी पी रही थी कि, तभी उसे अचानक से महसूस हुआ कि सचमुच कोई उसके आस-पास खड़ा हुआ है. मोहिनी को जब इस प्रकार से महसूस हुआ तो वह ज़रा भी डरी नहीं. ना ही, संकुचित ही हुई. वह अपने जीवन में इस प्रकार की भटकी हुई आत्माओं के कार्य-कलापों से बाकायदा स्वभाविक और परिचित हो चुकी थी. केवल एक विस्मय से वह अपने चारों तरफ निहारने लगी. उसने जब पीछे पलटकर देखा तो वहां भी कोई नहीं दिखा. लेकिन, जब उसने सामने पड़ी छोटी-सी मेज पर देखा तो वहां से उसका काफी का मग नदारद था. यह सब देखकर वह तुरंत ही खड़ी हो गई. और पीछे मुड़कर सन्नाटे में ही बोली,

'अब तुम जो भी, अब सामने आ जाओ?'

'?'- तभी अचानक से उसका कॉफ़ी का मग सामने दोबारा आ गया. जैसे ही मग सामने दिखा तभी उसको, किसी स्त्री के मुस्कराने और हल्के-से हंसने जैसी आवाज़ सुनाई दी. वह कुछ और कह पाती कि, उसको किसी ने सम्बोधित किया,

'डरो और घबराओ नहीं. मैं इकरा हामिद हूँ.'

'?'- तब मोहिनी अपने स्थान पर दोबारा बैठ गई.

'मेरा, इस दुनियां में भटकने का समय पूरा हो चुका है. आज मेरा यहाँ पर आख़िरी दिन है.' इकरा की आत्मा ने उसे बताया.'

'?'- बेचारी, मोहिनी क्या कहती. वह केवल सुनकर ही रह गई.

'इसलिये, आज के बाद मैं तुम्हारी मदद नहीं कर पाऊँगी. अपना ध्यान रखना.'

'यह, अच्छी खबर नहीं है.' मोहिनी बोली.

'जानती हूँ. मगर, मैं क्या करूं. मैं, कुछ भी तो नहीं कर सकती हूँ.'

'?'- सुनकर मोहिनी की आँखें भर आईं.

'तुम, निहायत ही बहुत नाज़ुक और सीधी लड़की हो.'

'?'- मोहिनी के आंसू नीचे फर्श पर गिर पड़े.

'ऐसे रोने-से काम नहीं चलेगा. दुनियां में रहते हुए, दुनियांदारी सीखो. बदमाश और नालायक मनुष्यों से लड़ो. खुद तबाह मत होओ, जालिमों को तबाह करना सीखो.'

'?'- मोहिनी ने अपने आंसू साफ़ किये तो इकरा आगे बोली,

'अगर अपने कोम कमजोर समझती हो तो मैं किसी दूसरी आत्मा का इंतजाम कुछ वक्त के लिए कर सकती हूँ. वह तुम्हारी हिफाज़त करती रहेगी.'

'नहीं. अब इसकी जरूरत नहीं है. वैसे भी अब मैं और जीना भी नहीं चाहती हूँ.'

'फिर क्या करोगी? क्या, खुद्कशी? देखो, भूलकर भी ऐसा मत करना, वरना हमेशा के लिए इस जुर्म में ज़ह्न्न्म में पहुंचा दी जाओगी?'

'?'- मोहिनी, फिर से रोने लगी तो इकरा ने उसे एक सलाह दी. वह बोली कि,

'एसा क्यों नहीं करती हो कि, कोई दूसरा मोहित ढूंढकर उससे अपना निकाह पढ़ा लो और फिर बड़े आराम से, मज़े के साथ यह ज़िन्दगी, जो तुम्हें एक नियामत में मिली है, इसका सफर पूरा करो. इतना ध्यान रखना कि, कोई भी कायदा-क़ानून, वह चाहे इस दुनियां का हो या फिर आसमानी; उसके तोड़ने पर सजा बहुत सख्त होती है. आसमान के सरकारी दरबार में गलती मॉफ कर दी जाती है, लेकिन गुनाह की सज़ा जरुर होती है. इंसान के जीने और मारने का अधिकार ऊपरवाले ने इसीलिये अपने हाथ में रखा है. अगर तुमने खुद को मारा या अपने किसी स्वार्थ के लिए किसी अन्य को मारा तो सज़ा बहुत सख्त होती है.'

'ठीक है, मैं ध्यान रखूंगी और तुम्हारी सलाह के लिए भी सोचूंगी.' इकरा की बात पर मोहिनी ने कहा और फिर अपनी आँखें साफ़ करने लगी.

'?'- खामोशी. काफी देर तक मोहिनी के आस-पास का वातावरण जैसे किसी अज्ञात शक्ति के प्रभाव के सबब से तनावपूर्ण-सा बना रहा. मोहिनी कभी अपने काफी के मग की तरफ देखती थी तो कभी अपने सामने खड़ी किसी अदृश्य, चलती-फिरती हुई जीवन-छाया को सम्बोधित हो जाती थी.

'अपनी हिफाज़त करना. ध्यान रखना. इस दुनियां का आदमी निहायत ही बहुत जालिम है. अब मैं जाती हूँ. खुदा हाफ़िज़.'

'?'- मोहिनी ने सामने फिर से देखा तो अचानक ही उसके सामने कोई अदृश्य छाया, पसरती हुई, तुरंत ही लम्बी हुई और अपनी आत्मा को जैसे खींचती हुई-सी, आकाश की ओर, ऊंचाइयों की तरफ, बढ़ती चली गई और दो पल नहीं हुए होंगे, कि वह अदृश्य छाया, जैसे सफेद बादलों के शरीरों में प्रविष्ट होकर लुप्त हो गई. मोहिनी आश्चर्य से, अपने सामने ही, भटकती हुई इस इकरा की आत्मा का कमाल देखती ही रह गई- विधाता ने बादलों में शायद दूधिया जैसी सफ़ेदी को इसीलिये भरा है ताकि, आकाश में रहनेवाली आत्माओं को इस धरती का इंसान देख न सके?

मोहिनी ने बाद में, सामान्य होकर फिर एक बार देखा तो, उगते हुए सूर्य की रश्मियाँ उसके बरामदे की छत के ऊपर चढ़ती हुई, सामने लगे नीम की कड़वी पत्तियों में उलझ गई थीं और उसकी कॉफ़ी का मग उलटा पड़ा था, तथा उसमें से कॉफ़ी की बची हुई बूँदें नीचे, फर्श पर एक-एक करके, अपनी ज़िन्दगी का आख़िरी दम तोड़ रही थीं.

मोहिनी- अब वह अकेली थी. बिलकुल अकेली, असहाय और बे-सहारा. ज़िन्दगी का एक, अकेला सहारा, बिन मांगे उसे मिला था- इकरा हामिद; अब उसकी भी रूह उसे अलविदा कह कर शान्ति के संसार में जा बैठी थी. कितना अधिक अंतर होता है, आकाश और इस धरती के चाल-चलन में? दोनों ही के जीवन में- आसमान में रहनेवाली आत्माएं, अपनी मर्जी से सारी दुनियां में उड़ती-फिरती और कलाबाजियां करती रहती है, और धरती पर रहनेवाले मानव शरीर, टूटे-फूटे, लंगड़े, अपनी बीमारियों में उलझे हुए मानो चलते नहीं हैं, बल्कि खुद को घसीटते रहते हैं.

इस संसार में, गरीब, अपनी गरीबी की बजह से अपना शरीर दिखाता है और अमीर लड़कियां, अपनी अमीरी के कारण अपने बदन की नुमायश लगाया करती हैं. यहाँ की सरकार में गुंडे, बदमाश और सजा-याफ्ता लोग देश चलाते हैं और सच्चे, ईमानदार जेल के सींखचों के पीछे कर दिए जाते हैं. यहाँ के गली-कूंचों और खेतों में, गरीब, असहाय, बेबस, कमजोर और सीधी-साधी बालाओं की अस्मतें लीलाम होतीं हैं और शिकायत करने पर प्रशासन इन्हीं बेबसों पर लाठियां बरसा देता हैं. आज का इंसान किस पर विश्वास करे और किस पर नहीं? ईश्वर और इस दुनियां बनानेवाले का संदेश देनेवालों और उसके बारे में बतानेवालों की बातों को लोग उपहास और ठठ्ठों में फूंक मार कर उड़ा देते हैं और शैतानी चालों तथा उसके मार्ग पर चलने पर अपना गौरव समझते हैं.

कहते हैं, समय, मनुष्य के दर्द का, उसके आंसुओं का, उसके दुखों का, गले से निकलने वाली चीखों और चिल्लाहटों का, उसके बेसहारा जीवन का; सबसे बड़ा इलाज है. कभी भी न रुकने वाली, वक्त की घड़ी और उसकी घूमती हुई सुइयों ने चक्कर पे चक्कर लगाये तो मोहिनी के दुःख के दिन, महीनों, साल और फिर दूसरे साल के मौसम में परिवर्तित हो गये. बसंत का पतझड़ आया और धरती के आंचल पर सूखी, पीली और मृत पत्तियों का बिस्तर सज़ा कर चला गया. फिर गर्मियाँ आई तो हरे खेतों की बालें सूखकर खलियानों में पहुंच गई. सावन के दिन आये तो वृक्षों पर झूले झूमने लगे और बादल भी गड़-गड़ाकर, भिगोकर जाते बने- इसी तरह ठंड आई और पूस के माह में, खेतों में बैठे हुए किसान सर्दी से कांपने लगे- मोहिनी के आंसू रुके नहीं, थम जरुर गये थे. दिल में जो ढेर सारा वह दर्द था जो उसे ज़माने की रुसवाइयों ने दिया था- अब वह बाहर आना बंद हो चुका था. अब वह रोती नहीं थी. अपना दुखड़ा भी किसी को नहीं सुनाती थी. कार्यालय में चुपचाप अपना काम करती- साथ के लोगों से भी वह केवल काम की ही बात करती और काम समाप्त करने के पश्चात, अपने समय पर, कमरे में जाकर बंद हो जाती थी.

वह अपना जीवन एक सामान्य स्त्री के समान व्यतीत कर रही थी, मगर यह उसकी कोई विडम्बना ही थी कि, इतना सब कुछ होने के बाद भी, उसके कार्यालय में उसे अभी तक एक सामान्य, 'नार्मल' स्त्री की नज़र से नहीं देखा जा रहा था. जो भी उसको देखता, जिससे भी वह बात करती; उन सबकी आँखों में उसके लिए एक भयानक सवाल, एक कोतुहूल और एक अजीब-सा भय भरा हुआ दिखता था. जिस किसी से भी वह आँखें मिलाकर बात करती थी, देखने वाले की आँखों की पुतलियाँ अपने आप ही झुक जाया करती थीं. यह उसके बॉस रोनित की ही मेहरबानी थी कि, उसने उसे अपनी फर्म में नौकरी दे दी थी, वरना कानूनी तौर पर उसके पास 'मोहिनी' नाम से अपनी कोई भी वैद्द पहचान नहीं थी. वह कौन थी? क्या थी? कहाँ की थी? कहाँ उसने जन्म लिया था? इन बातों के लिए, जैसा वह बताती थी; कोई भी मानने के लिये तैयार नहीं था. सो, मोहिनी का जीवन, अपनी इन्हीं मुसीबतों और परेशानियों का साथ पाकर तन्हाइयों के सन्नाटों में व्यतीत हो रहा था. दिन में वह अपने कार्यालय के काम में व्यस्त रहती और फिर जैसे ही रात का अन्धकार सन्नाटों का साथ पाकर उसके एकान्तमय कमरे में भी प्रविष्ट हो जाता तो वह फिर से परेशान होने लगती. कभी वह रो लेती, कभी करबटें बदलतीं तो कभी कमरे से बाहर आकर, खुले आकाश की तरफ आँखें बिछाकर वापस अपने को बुलाने के लिए दुआएं करने लगती थी.

और, तब एक दिन जब मोहिनी अपने कमरे में बिस्तर पर पड़ी हुई चुपचाप कमरे की मूक छत से बातें कर रही थी. अमावस्या की काली रात थी. जब भी कभी बिजली ज़रा भी देर को नदारद हो जाती थी तो पल भर में ही सारे आलम पर घटाटोप अन्धकार छा जाता था. मोहिनी, अभी भी लेटी हुई अपने जीवन के बारे में ही सोच रही थी कि, तभी अचानक से उसका कमरा एक पाले से भी अधिक स्वच्छ और सफेद, तीव्र प्रकाश से भर गया. इस प्रकार कि, मोहिनी की आँखें उस प्रकाश की चौंधिया देनेवाली रोशनी को देख नहीं सकीं. वह तुरंत ही घबराकर उठ कर बैठ गई और अपनी आँखें उस झल-झलाते हुए तीव्र प्रकाश को न देख पाने के कारण बंद कर लीं.

तभी उसको एक बहुत ही कोमल और नम्र आवाज़ सुनाई पड़ी,

'तेरा, दुःख और आंसूं देखकर मुझको आना पड़ा है, बेटी.'

'?'- मोहिनी ने सुना तो तुरंत ही समझ गई कि, यह तो वही आवाज है जो उसने कभी 'शान्ति के सोने से बने राज्य' के राजा, 'मनुष्य के पुत्र' के मुख से जब वह आसमान में आत्माओं के संसार में थी, सुनी थी. उस आवाज़ को सुनकर मोहिनी को एक तसल्ली-सी प्राप्त हुई. मोहिनी कुछ कहती कि, तभी उसे फिर से वही आवाज़ सुनाई दी,

'तू, रोती है?'

'हां, प्रभु.'

'इसीलिये, मैंने तुझसे कहा था कि, मैं तुझे वापस दुनियां में भेज तो दूँ, मगर तुझे कष्ट बहुत उठाने पड़ेंगे.'

'मैं, शर्मिंदा हूँ.'

'तुझे, अब और रोना नहीं पड़ेगा. मैं कुछ करता हूँ तेरे लिए. सब्र कर. मेरे यहाँ देर तो हो सकती है, पर अंधेर नहीं.'

'?'- मोहिनी ने देखा कि, उपरोक्त शब्दों की समाप्ति के बाद कमरे में भरा हुआ लबालब, उफनते हुए दूध के समान दूधिया प्रकाश धीरे-धीरे कम होता गया और फिर थोड़ी ही देर के पश्चात सारा कमरा फिर से अँधेरे की चपेट में आ चुका था. ऊपर वाले से हुई यह दो क्षणों की मुलाक़ात समाप्त हो चुकी थी. आने वाला, अपना संदेश देकर, आने वाले दिनों में जीने का संदेश देकर जा चुका था. मोहिनी, बड़ी देर तक बैठी हुई, पल भर के लिए हुए इस सारे माजरे के बारे में सोचती रही. रात का अन्धकार इसकदर काला स्याह था कि, कमरे के सूनेपन के अँधेरे में मोहिनी को परछाइयों की झाइयाँ-सी नज़र आती दिखाई देती थीं. उसने चुपचाप अपनी आँखें बंद की और करबट लेकर सोने की कोशिश करने लगी.

-क्रमश: