उजाले की ओर –संस्मरण Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर –संस्मरण

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स्नेहिल नमस्कार

साथियों

इस अधाधुंध दौड़ में भागते हुए अक्सर हम अपने जीवन की कुछ महत्वपूर्ण बातों को भुला देते हैं जिनमें प्रमुख हैं अपने बच्चों को समय न दे पाना, अपने माता-पिता को समय न दे पाना | हम देख ही रहे हैं कि बच्चों को जैसे-तैसे करके हम पाल लेते हैं तो बच्चे भी पिंजरे से उड़ने को व्याकुल रहते हैं और जैसे ही उन्हें समय मिलता है, वे उड़कर बहुत दूर चले जाते हैं | फिर हम उनको दोष देते हैं कि वे पास नहीं रहते, परवाह नहीं करते |

समय परिवर्तित हो रहा है, स्वाभाविक है हममें भी परिवर्तन आएगा ही | संसार की हर वस्तु परिवर्तनशील ही तो है, इसलिए हमारे अंदर समयानुसार बदलाव आना ही है | सवाल यह है कि बदलाव सकारात्मक रूप में आए तो जीवन में बहुत सी समस्याओं का समाधान मिल सकता है,जीवन है तो मोड़ भी हैं हीं | ऐसा नहीं है कि आज लोग बिलकुल ही असंवेदनशील हो गए हैं लेकिन यह भी सच है कि संवेदनात्मक स्तर पर सोचने वाले लोग कम होते जा रहे हैं |

"वी आर प्रेक्टिकल :का नारा ज़ोर पकड़ रहा है |

"अरे! प्रेक्टिकल बनो न,मारो गोली ---" कितनी बार यह सब सुनने को मिलता है और सोचने के लिए बाध्य करता है कि 'प्रेक्टिकल' व्यवहारिकता की कोई परिभाषा सोचें,कोई सीमा बनाएं जिससे हर कोई बात-बेबात जीवन की खूबसूरती न खो दे |रिश्तों की खूबसूरती न चली जाए, जो दरअसल विलुप्त होती जा रही है |

एक बेटा अपने बुजुर्ग पिता के साथ रेस्टोरेंट में गया और खाना आर्डर किया । पिता और बेटा खाना खाते हुए बातें कर रहे थे । पिता ने बेटे से पूछा," बेटा क्या तुम्हें पता है, जब तुम छोटे थे तो मैं, तुम और तुम्हारी माँ यहाँ अक्सर खाना खाने आते थे?"

बेटे ने पिता को बताया कि उसे अच्छी तरह से याद है, इसलिए वह उन्हें वहाँ लेकर आया है | माँ के न रहने से पिता उदास रहने लगे थे । बेटे ने सोचा था कि उसके पिता की पुरानी यादें ताजा हो जाएगी और उसके पिता थोड़ा प्रसन्न हो जाएंगे । इसीलिए वह माँ के बाद अक्सर अपने पिता को लेकर कहीं न कहीं निकल जाता |

पिता अपने बेटे की बातें सुनकर बहुत प्रसन्न हुए । खाने का ऑर्डर दिया गया और खाना आने पर दोनों खाना खाने लगे। खाना खाते समय पिता के हाथ से खाना गिर गया और उनके कपड़े गंदे हो गए। ये देखकर वहाँ बैठे हुए लोग हँसने लगे लेकिन बेटे को कोई फर्क नहीं पड़ा।

जब दोनों का खाना पूरा हुआ तो बेटे ने बड़े आदर के साथ पिता का हाथ पकड़ा,उन्हें वाशरूम में लेजाकर उनके कपड़ों में लगे दाग धब्बे साफ किए और उन्हें हाथ पकड़कर आराम से बाहर लाया । वहाँ बैठे युवाओं को अजीब लग रहा था, वे नाहक-मुँह सिकोड़ रहे थे | कुछ फुसफुस भी कर रहे थे |

मैनेजर दूर से देख रहे थे | बैरे ने इनकी टेबल पर बिल रखा | बेटे ने बिल पे किया और पिता का हाथ पकड़कर जाने लगा |

"साब ! आपने शायद गलती से रुपए छोड़ दिए हैं " बैरे ने कहा |

"नहीं, मुझे मालूम है, मैंने आपके लिए टिप में क्या रखा है ?"और वह पिता का हाथ पकड़कर बाहर की ओर चलने लगा |

"साब ! मैं कुछ हैल्प कर दूँ ?" बैरे के हाथ में पकड़ा, उसे टिप में दिया गया 500 का नोट कुछ अधिक ही कड़कड़ा रहा था |

"नहीं, थैंक यू --अपने पिता के लिए मैं काफ़ी हूँ ---दोस्त चिंता मत करो, वह नोट तुम्हारे लिए ही है |"

"आज पिता जी का जन्मदिन है | हम दोनों के सिवा और केवल हाऊस-हेल्प्स घर में हैं, और कोई नहीं है | मैं चाहता हूँ कि कम से कम किसी विशेष दिन तो मैं अपने पिता के पास रहूँ, रोज़ तो मैं व्यस्त रहता हूँ इसलिए पापा को कम समय के लिए मिल पाता हूँ |"

मैनेजर दूर से सब कुछ सुन,देख रहे थे | वे इनके पास आए और हँसने वाले युवाओं की ओर देखकर ज़ोर से बोले ;

" साहब आप यहाँ इन लोगों के लिए एक सीख छोड़कर जा रहे हैं कि कभी भी बूढ़े माता-पिता के लिए शर्मिंदगी महसूस नहीं करनी चाहिए और हमेशा उनका सहारा बनाना चाहिए।"

युवक ने उनको धन्यवाद दिया लेकिन यह सोचने के लिए बाध्य हो गया कि आज की युवा पीढ़ी में कैसे चेतना लाई जाए कि क हमारे माता-पिता ने जो कुर्बानियाँ हमारे लिए दीं हैं क्या उनका नाखून भर भी हम उनके लिए कर सकते हैं ?

पिता-पुत्र के साथ मैनेजर और बैरे की आँखें भी सजल थीं | सामने मज़ाक उड़ाने वाले लड़के चुप हो गए थे | संभवत: उनके मस्तिष्क में अपने परिवार के बुजुर्गों के लिए कोई सकारात्मक विचार आया था |

मित्रो! लगता है न कि हमें अपनी पीढ़ियों को रिश्ते व जिम्मेदारियों के बारे में समझाना चाहिए |

सस्नेह

आपकी मित्र

डॉ.प्रणव भारती