एक स्त्री वह औरत है जिसे बाकायदा हर महीने माहवारी आती है। वहीं माहवारी जिसको स्त्री अपने 11 साल के उम्र से हर महीने बर्दाश्त करती है। यह माहवारी उनका चॉइस नहीं होता। यह तो कुदरत का दिया हुआ एक वरदान होता है।
वहीं माहवारी जिसमे पूरा शरीर अकड़ जाता है। कमर टूटने लगती है। पेट का दर्द असहनीय होता है। और मानसिक तनाव इतना की सामान्य दिनों में सिर्फ सोच कर ही सिहरन पैदा हो जाती है।
हर महीने के माहवारी के दर्द को बर्दाश्त कर अपने आप को अगले महीने के लिए फिर से दर्द सहने के लिए तैयार कर लेना किसी जंग जितने से कम नहीं।
हर महीने ना जाने कितने वर्षों तक ये जंग हर महीने जीतती है स्त्री। तब जाके किसी पुरुष के चेहरे की लालिमा बढ़ती है, तब जाके कोई परिवार चहकता है। और तब किसी के वंश की वृद्धि होती है।
अरे एक लड़की तो अपने 11 वर्ष की उम्र से ही किसी की बहू किसी की पत्नी बनने कि मोल चुकाती है, हर महीने दर्द सहकर, ताकि किसी दिन वो वंश की वृद्धि की गौरव बन सके।
गर्भधारण के बाद 3-4 महीने तो अपने आप से ही परेशान। मूड स्विंग, उल्टी, थकान, मानसिक तनाव, और कमर दर्द तो हिस्सा बनने लगता है जिंदगी का।
बढ़ते महीने के साथ उस खुद को उस इंजेक्शन के लिए भी तैयार करना पड़ता है जिसे देखकर ही कभी घर में छुप जाया करती थी।
और जब बारी आती है बच्चे को जन्म देने की तो वाहा भी असहनीय दर्द से होकर गुजरती है। 9 महीने तक शारीरिक और मानसिक रूप से तैयार करती है खुद को, परम्परा को आगे बढाने के लिए।
प्रसव पीड़ा 6-8 घंटे। और कभी कभी तो 2- 3 दिन तक। अगर फिर भी नॉर्मल डिलीवरी संभव ना हो तो गर्भ चिर के भी बच्चे को बाहर लाने कि हिम्मत रखती है।
शरीर पर स्ट्रेच मार्क्स और ऑपरेशन के निशान तक ताउम्र ढोने को तैयार हो जाती है। जो चेहरे पर एक पिंपल आ जाने से पूरा घर सिर पर उठा लेती थी।
एक स्त्री की मनोदशा एक पुरुष कभी नहीं समझ सकता।
और जो अपनी पत्नी की ये मनोदशा भर बस समझ ले तो वो भगवान का ही रूप होता है।
लड़कों के कंधा से कंधा मिलाकर चलना बहुत आसान है।
पर लड़कियों की बराबरी कर पाना उतना ही मुश्किल।
हर महीने खून पानी की तरह बहाना पड़ता है एक स्त्री होने के लिए।
हर दर्द को हंसते हुए सहना पड़ता है एक स्त्री होने के लिए।