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गाँव की छोरी

पहली बार इन्हें गाँव से शहर लाया ।

ये शहर देख कर आश्चर्य चकित थीं और मैं इनकी ख़ुशी को देख कर एकदम चित ।

मैं ढाल रहा था इन्हें जीवन शैली में और ये ढल रहीं थी बिना किसी आर्गुमेंट के ।

पर हाँ , सवाल तो थे ही , ये क्या , वो क्यूँ , ऐसा क्यूँ ... हमारे गाँव मे तो..!

इनकी सारी दुनिया इनके गाँव की चकबंदी के अंदर ही सिमट गई थी ।

मेरी बातों को ध्यान से सुनती तब एक हाथ अपने गाल पर टिका कर बैठ जाती और मैं दोनों डिंपल्स में जाता ...फंस ।

इन्हें गहनों से मोह था और मुझे उस मोह से ।

एक दिन पता नही क्यूँ , इन्होंने पूछा ," अपने सूरज के चारो तरफ कौन घूमता है !?".

मैंने कहा .. हमारी धरती , मंगल , शनि , गुरु .. नौ ग्रह , वही जिनका शांति यज्ञ करवाते हैं तुम्हार गाँव मे ..!

इनका अगला प्रश्न , " और पूरी दुनिया किसके चारो तरफ घूमती है ?".. अब मैं चकरा गया ये तो वाक़ई पता नही था मुझे भी ।

ये जोर जोर से हँसने लगीं , " आपको इत्ती सी बात नही पता ! " इनको हँसते देख मैं भी हँसने लगा पूछा " मुझे सच मे नही मालूम , बताओ ?"

इन्होंने हाथ फैलाये और गोल गोल घूमते हुए बोलीं " अरे ये अपना घर ! " मैं देखता ही रह गया ।

कमाल है !

दुनिया कितनी ही बड़ी क्यूँ न हो उसका केंद्र , परिधि और उसकी हद क्या और कितनी ? एक वाक्य में मुझे सिखा गयी छोरी ।

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