कृष्ण भक्त मीरा बाई नीतू रिछारिया द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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कृष्ण भक्त मीरा बाई

भक्तियुग की सर्वश्रेष्ठ कवियत्री कृष्णभक्ति में पुरी तरह रंगे हुयी मीरा बाई (Meera Bai) 16वी सदी की महान विभूतियों में से एक थी | बचपन से ही कृष्ण से प्रेम करने वाली मीरा को संसार कृष्णमय लगता था | कृष्ण के अतिरिक्त उन्हें कुछ भी अच्छा नही लगता था | उनका रोम रोम कृष्ण-मय था | उनका मन संत-समागम , संगीत , भगवत चर्चा ,कृष्ण लीला में ही लगता था | वे सांसारिक सुखो से सदा दूर रहती थी | उन्हें राजसत्ता का कोई मोह नही था |

कृष्णभक्त मीराबाई (Meera Bai) का जन्म मेड़ता (राजस्थान) के राठौड़ राजा रावदूदा के पुत्र रतनसिंह के घर गाँव “कुडकी” में 1498 में हुआ और उनका विवाह 1516 में राणा सांगा के जयेष्ट पुत्र युवराज भोजराज के साथ हुआ था | मीराबाई के विवाह के सात वर्ष के पश्चात ही युवराज भोजराज की मृत्यु हो गयी तथा मीराबाई युवावस्था में ही विधवा हो गयी | मीराबाई बचपन से ही कृष्ण-भक्त थी | उनका अधिकाँश समय भजन-कीर्तन में ही व्यतीत होता था |राणा सांगा के द्वितीय पुत्र विक्रमादित्य को मीरा बाई का साधू संतो के साथ उठाना बैठना पसंद नही था |

बचपन में पडोस की एक कन्या के विवाह के समय मीराबाई (Meera Bai) भी अपनी माँ ले साथ उस विवाह में गयी थी | घर वापस आकर मीराबाई ने अपनी माँ से पूछा कि “माँ मेरा दूल्हा कौन है ?” माता ने हसंकर कोने में रखी हुयी कृष्ण भगवान की मूर्ति की ओर इशारा करके कहा “यह है तेरा दूल्हा ” | बस मीराबाई ने अपनी माता के इस कथन को ही अपने भावी जीवन का आधार बना लिया और भगवान श्रीकृष्ण को अपने पति के रूप में तन-मन से स्वीकार कर लिया |

अब तो उन्होंने “मेरे तो गिरधर गोपाल दुसरो न कोई” की रट लगानी शुरू कर दी और अपने को कृष्ण के रंग में इस प्रकार डुबो दिया कि उन्हें लोक-लाज , तन-मन की भी सुध नही रही | वे कृष्ण-भक्ति धारा के रस में निरतर डूबती चली गयी | इधर मेवाड़ के राज परिवार ने मीरा बाई को समझाने बुझाने का प्रयास किया किन्तु सब कुछ व्यर्थ | बाद में राजपरिवार ने मीराबाई को डराने , धमकाने का प्रयास किया परन्तु मीरा की कृष्ण-भक्ति बढती ही चली गयी |

राजपरिवार ने इसे अपना अपमान समझा तथा मीरा बाई की जीवन लीला को समाप्त करने का निर्णय लिया | मीराबाई (Meera Bai) के देवर विक्रमादित्य ने उन्हें मारने के लिए जहरीले साँपों के विष की व्वयस्था की तथा विष के प्याले को मीराबाई के पास भेजा | कृष भक्त मीरा हर वस्तु को कृष्णमय मानते थी अत: उन्होंने विषय के प्याले में भी श्रीकृष्ण का रूप देखा और हंसते हंसते विषपान कर गयी | भक्ति की प्रतिमूर्ति मीरबाई के लिए साँप “शालिग्राम ” के रूप में तथा “विष” अमृत के रूप में परिवर्तित हो गया |

कुछ दिन बाद मीराबाई (Meera Bai) ने अपनी ससुराल और मायके को छोडकर ब्रजभूमि की यात्रा पर निकल पड़ी तथा मथुरा-वृन्दावन के मन्दिरों के आगे “म्हाने चाकर रखो जी” का गीत गाते हुए भगवान कृष्ण को रिझाने लगी | इस प्रकार मीराबाई बहुत समय तक ब्रजभूमि के गिरधर नागर का गुणगान करती रही | मीरा के इस भक्ति संगीत का ब्रजवासियों पर मार्मिक प्रभाव पड़ा | मीराबाई अनेक स्थानों तथा तीर्थस्थलों का भ्रमण करती हुयी सांवरे की लीला स्थली पहुची |

एक दिन मीराबाई (Meera Bai) प्रसिद्ध भक्त जीव गोस्वामी जे एके दर्शनो के लिए उनके यहाँ पहुची | मिलने की आज्ञा देने की मीराबाई की प्रार्थना पर जीव गोस्वामी ने मिलनर से मना करते हुए कहलवा दिया कि “मै स्त्रियों से नही मिलता”| इस पर मीराबाई ने संदेश भिजवाया कि “मै तो ब्रजभूमि में केवल एक ही पुरुष को जानती हु यह दूसरा पुरुष कहा से आ गया” | मीराबाई के ऐसे तात्विक तथा ज्ञानमय शब्दों को सुनकर जीव गोस्वामी जी नंगे पैर मीराबाई से मिलने के लिए दौड़ पड़े |

इस प्रकार कुछ समय तक ब्रज-भूमि के भक्ति-संगीतमय प्रवास के पश्चात मीरा बाई अनेक स्थानों पर भ्रमण करती हुयी अपने चाचा वीरमदेव के पास द्वारिका पुरी चली गयी | वही मीराबाई रणछोड़ जी के मन्दिर में नृत्य गान एवं कीर्तन करने लगी | इधर मीराबाई के मेवाड़ छोड़ते ही उस क्षेत्र की प्रकृति का भयंकर प्रकोप हुआ | प्रजा जन विक्रम देव की निंदा और भर्त्सना करने लगे | दुसरी ओर मीरा बाई की ख्याति चारो ओर धीरे धीरे फैलती जा रही थी |

अत: राजा विक्रमदेव ने एक दिन अपने राज्य के कुछ प्रतिष्टित व्यक्तियों को भेजकर मीराबाई को वापस आने का संदेश भिजवाया | किन्तु मीराबाई ने अपने ईष्ट देव रणछोड़ जी को छोडकर वापस जाने मना कर दिया | जब ब्राह्मणों ने उनसे वापस चलने का आग्रह किया तो उन्होंने शांत स्वर में उन ब्राह्मणों से कहा कि “मै भगवान रणछोड़ जी से आज्ञा ले आऊ” और वे अंदर चली गयी तथा प्रभु की मूर्ति मे सदा-सर्वदा के लिए विलीन हो गयी | यह घटना वर्ष 1538 की है |

इस प्रकार मीराबाई (Meera Bai) 16वी शताब्दी के महान संतो में से एक थी | एक कवियत्री के साथ साथ एक सफल गायिका एवं संगीतज्ञ भी थी | जो संगीत परम्परा उनके राजवंश में चालु की , उसका उन्होंने भरपूर लाभ उठाया |कृष्ण प्रेम से परिपूर्ण संगीत धारा ,मीराबाई के पदों और भजनों के रूप में आज भी सम्पूर्ण भारत में गुंजायमान है | भाव , भाषा तथा शिल्प की दृष्टि से मीराबाई की पदावली आज भी विश्वविख्यात तथा हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है |