आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा नीतू रिछारिया द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा

“धरती आबा” बिरसा मुंडा (Birsa Munda) का भूमि से लेकर धर्म संबधी तमाम समस्याओं के खिलाफ समस्याओं के खिलाफ जनसंघर्ष था तथा उन समस्याओं के खिलाफ राजनितिक समाधान का प्रयास भी | वह आदिवासी और खासकर मुंडा समाज की आन्तरिक बुराइयों को दूर करने का सामूहिक अभियान भी था | उन्होंने मुंडा समाज को पुनर्गठित करने का जप प्रयास किया वह अंग्रेजी हुकुमत के लिए विकराल चुनौती बना | नये बिरसाइत धर्म की स्थापना की तथा लोगो को नई सोच दी जिसका आधार सात्विकता , परस्पर सहयोग ,एकता एवं बन्धुता थी |

समस्या के कारण को दृढ़ “गोरो वापस जाओ” का नारा दिया एवं परम्परागत लोकतंत्र की स्थापना पर बल दिया ताकि शोषण मुक्त “आदिम साम्यवाद” की स्थापना हो सके | उन्होंने कहा “महारानी राज जायेगा एवं अबुआ राज आएगा” | 1857 का विद्रोह शांत होने के बाद सरदार आन्दोलन संगठित जन आदोलन के रूप में शुरू हो गया | 1858 से भूमि आन्दोलन के रूप में विकसित यह आन्दोलन 1890 में राजनितिक आदोलन बन गया जब बिरसा मुंडा (Birsa Munda) ने इसकी कमान सम्भाली |

बिरसा (Birsa Munda) का जन्म 15 नवम्बर 1875 को खूंटी जिले के अडकी प्रखंड के उलिहातु गाँव में हुआ था | व्यक्तित्व निर्माण और तालीम इसाई मिशनरियों के संरक्षण में हुयी | स्कूली शिक्षा के दौरान बिरसा के विद्रोह के लक्षण प्रकट होने लगे | उस समय ईसाई पादरी आदिवासियों की जमीन पर मिशन का कब्जा करने की कोशिश करते थे | बिरसा (Birsa Munda) ने इसका विरोध किया जिस कारण वो स्कूल से निकाल दिए गये | इसके बाद वो सरदार आन्दोलन में शामिल हो गये | इसाई मिशन की सदस्यता छोडकर 1890-91 से करीब पांच साल तक वैष्णव संत आनन्द पांडे से हिन्दुओ के वैष्णव पन्थ के आचार-विचार का ज्ञान प्राप्त किया और व्यक्तिगत एवं सामजिक जीवन पर धर्म के प्रभाव पर मनन किया | परम्परागत धर्म की ओर उनकी वापसी हुयी और उन्होंने धर्मोपदेश देना तथा धर्माचरण का पाठ पढाना शुरू किया |

ईसाई छोड़ने वाले सरदार सरदार बिरसा (Birsa Munda) के अनुयायी बनने लगे | बिरसा का पंथ मुंडा जनजातीय समाज के पुनर्जागरण का जरिया बना | उनका धार्मिक अभियान प्राकान्त्तर से आदिवासियों को अंगेजी हुकुमत और इसाई मिशनरियों के विरोध में संघठित होक आवाज बुलंद करने को प्रेरित करने लगा | उस दौर में उनकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ गयी कि उनके अनुयायी “बिरसाइत” कहलाने लगे | उन्होंने मुंडा समाज में व्याप्त अन्धविश्वास और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया | वह जनेऊ ,खडाऊ और हल्दी रंग की धोती पहनने लगे | उन्होंने कहा की इश्वर एक है | भुत-प्रेत की पूजा और बलि देना निरर्थक है | सार्थक जीवन के लिए सामिष भोजन और मांस -मछली का त्याग करना जरुरी है | हंडिया पीना बंद करना होगा |

बिरसा के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण सरदार आन्दोलन में नई जान आ गयी | अगस्त 1895 में वन संबधी बकाये की माफी का आन्दोलन चला | उसका नेतृत्व बिरसा ने किया | अंग्रेजी हुकुमत ने बिरसा की मांग को ठुकरा दिया | बिरसा ने भी एलान कर दिया कि “सरकार खत्म हो गयी अब जंगल ,जमीन पर आदिवासियों का राज होगा “| 9 अगस्त 1895 को चलकद में पहली बार बिरसा को गिरफ्तार किया गया लेकिन उनके अनुयायियों ने उन्हें छुडा लिया | 16 अगस्त 1895 को उन्हें गिरफ्तार करने की योजना के साथ आये पुलिस बल को बिरसा के नेतृत्व में सुनियोजित ढंग से घेरकर खदेड़ दिया | इससे बौखलाई अंग्रेजी हुकुमत ने 24 अगस्त 1895 को पुलिस अधीक्षक मेयर्स के नेतृत्व में पुलिस बल चलकद रवाना किया तथा रात के अँधेरे में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया | उन पर यह आरोप लगाया गया कि लोगो को ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ विदोह करने के लिए उकसा रहे थे |

मुंडा और कौल समाज में बिरसाइतो के नेतृत्व में सरकार के साथ असहयोग का एलान कर दिया व्यापक विरोध के कारण मुकदमा चलाने का स्थान रांची से बदलकर खूंटी कर दिया गया लेकिन विरोध के तेवर में फर्क नही पड़ने के कारण मुकदमे की कारवाई रोककर तुरंत जेल भेज दिया गया और उन्हें दो साल सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी | उन्हें रांची से हजारी बाग़ जेल भेज दिया गया | 1897 में झारखंड में भीषण अकाल पड़ा तथा चेचक की महामारी फ़ैली | आदिवासी समाज , बिरसा के नेतृत्व के अभाव में भी दामन -शोषण अकाल और महामारी से झुझता रहा | 30 नवम्बर 1897 को बिरसा जेल से छुटे तथा चलकद लौटकर अकाल तथा महामारी से पीड़ित लोगो की सेवा में जुट गये | उनका यह कदम अपने अनुयायियों को संगठित करने का आधार बना |

फरवरी 1898 में डोम्बारी पहाडी पर मुंडारी क्षेत्र से आये मुंडाओ की सभा में उन्होंने आन्दोलन की नई निति की घोषणा की तथा खोये राज्य की वापसी के लिए धर्म और शान्ति का मार्ग अपनाने का आह्वान किया | उनके अभियान के तहत सामजिक एवं सांस्कृतिक पक्ष को केंद्र में रखकर आदिवासी समाज को मजबूत तथा संगठित करने का सिलसिला जारी रहा | 1889 के अंत में यह अभियान रंग लाया और अधिकार हासिल करने , खोये राज्य की प्राप्ति का लक्ष्य ,जमीन की मालगुजारी से मुक्त करने तथा जंगल के अधिकार को वापस लेने के लिए व्यापक गोलबंदी शुरू हुयी |

24 दिसम्बर 1899 को रांची के तोरपा ,खूंटी , तमाड़ ,बसिया आदि से लेकर सिंहभूम से रांची तक 500 वर्गमील क्षेत्र में सेना और पुलिस की कम्पनी बुलाकर बिरसा की गिरफ्तारी का अभियान तेज किया | आन्दोलन का साथ देने वालो को गिरफ्तार एवं आत्मसमर्पण न करने वाले विद्रोहयो को घर-सम्पति कुर्क करने की योजना को अमलीजामा पहनाया जाने लगा | सरकार ने बिरसा की सुचना देने वालो और गिरफ्तारी में मदद करने वालो को पुरुस्कार देने का एलान किया परन्तु सरकार बिरसा को गिरफ्तार नही कर पायी |

बिरसा ने आन्दोलन की रणनिति बदली , 60 स्थानों पर संघठन के केंद्र बने | डोम्बारी पहाडी पर मुंडाओ की बैठक में “उलगुलान” का एलान किया गया | बिरसा के इस आन्दोलन की तुलना आजादी के आन्दोलन में बहुत बाद 1942 के अगस्त क्रांति के काल से की जा सकती है जब महात्मा गांधी ने “करो या मरो” का नारा दिया था | बिरसा के नेतृत्व में अफसरों ,पुलिस ,अंग्रेज सरकार के संरक्ष्ण में पलने वाले जमींदारों और महाजनों को निशाना बनाया गया |

खूंटी , तोरपा , बसिया ,तमाड़ ,सर्बादा , मुरुह ,चक्रणपुर , पोड़ाहट रांची और सिंहभूमि में गोरिल्ला युद्ध ने हुकुमत की चूले हिला दी | आन्दोलन को कुचलने के लिए रांची और सिंहभूमि को सेना के हवाले कर दिया गया | 8 जनवरी 1900 को डोम्बरी पहाडियों पर जमे बिरसाइतो के जत्थे पर सेना ने आक्रमण कर दिया और युद्ध के दौरान लगभग 200 मुंडा मारे गये | सैलरकब पहाडी पर भी संघष हुआ | इसके बाद भी बिरसा पकड़ में नही आये | आन्दोलन की रणनीति के तहत अपने आन्दोलन के केंद्र बदले और घने जंगलो में संचालन एवं प्रशिक्ष्ण केंद्र बनाये |

3 फरवरी 1900 को सेंतरा के पश्चिमी जंगल में बने शिविर से बिरसा को उस समय गिरफ्तार किया गया जब वो गहरी नींद में सोये हुए थे | पुलिस का भारी बन्दोबस्त के साथ उन्हें तत्काल खूंटी के रास्ते रांची कारागार लाकर बंद कर दिया गया | बिरसा (Birsa Munda) के साथ 482 आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया | उनके खिलाफ 15 आरोप दर्ज किये गये | शेष अन्य गिरफ्तार लोगो में सिर्फ 98 के खिलाफ ही आरोप सिद्ध हो पाए | बिरसा के विश्वासी गया मुंडा और उनके पुत्र सानरे मुंडा को फांसी दी गयी | गया मुंडा की पत्नी मांकी को दो वर्ष सश्रम कारावास की सजा दी गयी |

1 जून को जेल अस्पताल में चिकित्सक ने सुचना दी कि बिरसा को हैजा हो गया और उनके जीवित रहने की सम्भावना नही है | 9 जून 1900 की सुबह सुचना दी गयी कि बिरसा जीवित नही रहे | इस तरह एक क्रांतिकारी जीवन का अंत हो गया | बिरसा (Birsa Munda) के संघर्ष के परिणामस्वरूप छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 बना | जल ,जंगल और जमीन के पारम्परिक अधिकार की रक्षा के लिए शुरू हुए आन्दोलन एक के बाद एक शृखला में गतिमान रहे तथा इसकी परिणिति अलग झारखंड राज्य के रूप में हुयी |

बिरसा (Birsa Munda) द्वारा स्थापित बिरसाईत पन्थ आज भी कायम है | खूंटी जिला मुख्यालय से पांच किमी दूर जंगल में बिरसाईतो का गाँव है अनिग्डा | बिरसाइत सम्प्रदाय से जुड़े लोग मॉस-मछली नही खाते ,तुलसी की पूजा करते है | अनगिड़ा में ही उदय मुंडा को फांसी दी गयी | उनका परपौत्र मगर मुडा आज भी जीवित है | उनके मुताबिक़ गाँव में बिरसाइतो की संख्या 50 थी | अब ये नाममात्र के रह गये है | ये अपनी गरीबी और मुश्किलों से नाराज नही है पर सरकारी उपेक्षा से ज्यादा दुखी है | मगर मुंडा के अनुसार यदि अंग्रेजो ने शोषण किया तो आजाद भारत की सरकार ने भी कम धोखा नही दिया | आजादी के बाद भी लगान ,सूद से मुंडाओ को मुक्ति नही मिली | जल ,जंगल ,जमीन का अधिकार नही मिला |