तुम दूर चले जाना - 13 Sharovan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

तुम दूर चले जाना - 13

द्वितीय परिच्छेद

***

सूरज का संसार उजड़ गया। दुनिया जल गयी। सपने नष्ट हो गये। वह तबाह-सा हो गया। किरण की बेरुखी देखकर वह बुरी तरह टूट भी गया। दिल में जैसे किसी ने तेज कटार घोंप दी थी- फाड़ दिया था। चिथड़े-चिथड़े कर दिया गया था, इस कदर कि उसको अब एक पल भी मथुरा में ठहरना मुश्किल हो गया। स्वत: ही यहां से नफरत हो गयी ! घृणा ! दिल की जब आरजू ही टूट गयी, तो उसको हर कोई दुष्ट नज़र आने लगा। ऐसी परिस्थिति में वह मथुरा में एक पल भी नहीं ठहरना चाहता था। जिस शहर में उसका प्यार जला था- सपने बरबाद हो गये थे- उसको तिरस्कृत किया गया था, ऐसे स्थान पर वह अब ठहर भी किस प्रकार सकता था? किस-किस आस पर? और क्यों?

किरण ने यद्यपि उसके प्यार की बेकद्री नहीं की थी, परन्तु स्वीकार भी नहीं किया था। शायद चाहकर भी वह अब आगे बढना नहीं चाहती थी ! वह उसकी विवशता समझता था। उसकी मजबूरियों को महसूस भी कर रहा था। वह समझ रहा था कि किरण ने क्यों उसके प्यार की अवहेलना की है? क्यों उसके दिल की आरजू को ठुकराया है? शायद इसीलिए कि वह उसको तो जानती ही है और दीपक को भी पहचान गयी है। कायदे से उसने प्यार तो दीपक से किया है। कोई उसको तो नहीं और दीपक ने उसके प्यार का नाजायज लाभ उठाया है। ये जानते हुए भी कि उसका मित्र भी किरण का उपासक है। सब कुछ जानते और समझते हुए भी दीपक ने दोनों ही को भ्रम में रखा था। इसलिए सूरज को जहाँ किरण की मजबूरियों पर दया आ रही थी, उसकी परिस्थिति पर तरस आ रहा था, वहीं दीपक पर क्रोध भी आ रहा था। दीपक के प्रति बार-बार उसे ग्लानि और घृणा होती थी। दीपक ने ना तो मित्रता का ही खयाल रखा था और ना ही एक निदोंष भोली-भाली लड़की की प्यार भरी भावनाओं की कद्र की थी। इस कारण सूरज ने मथुरा छोड़ने से पूर्व एक बार दीपक से मिलना उचित समझा। इसलिए वह उसके कार्यालय में ही जा पहुँचा। उस समय दीपक अपनी फाइलों से चिपका हुआ था तथा कार्यालय में उसके केबिन में उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं था।

सूरज के अचानक आगमन और बिना कहे उसके कार्यालय में आने पर दीपक चौंका अवश्य, लेकिन अधिक आश्चर्य नहीं कर सका ! शायद इसलिए कि वे दोनों मित्र थे, परन्तु कार्यालय में दोनों को अपने-अपने पद का एहसास रहता था। दीपक जहां विद्युत विभाग का सहायक अभियंता था, वहीं सूरज उसी के यहां एक दैनिक लिपिक; इसलिए सूरज सदैव कार्यालय में दीपक को वही सम्मान देता था, जो अन्य कर्मचारी दिया करते थे, परन्तु इस समय सूरज शायद सब कुछ भूल गया था? इसीलिए दीपक का चौंकना और आश्चर्य करना स्वाभाविक ही था।
"अरे सूरज’’ ! कहो कैसे आना हुआ?" दीपक ने उसकी ओर विस्मय से देखते हुए पूछा।
"तुम्हें तो वैसे भी मालूम होना चाहिए कि मैं क्यों आया हूँ?" सूरज ने उसके प्रश्न में प्रश्न किया तो दीपक सुनकर दंग रह गया। उसने सूरज के चेहरे की बदली मुद्रा और भावों को पढा, तो संदेह से घिर गया। फिर उसकी ओर देखते हुए कुर्सी की ओर हाथ से इशारा करते हुए बोला,
"बैठो पहले। "
"नही। बैठने की जरूरत नहीं है।" सूरज ने कहा।
“... ?”
दीपक पुन: चौंक गया। उसने एक बार फिर सूरज को निहारा। उसके चेहरे के हर पल बदलते हुए भावों को समझने की कोशिश की। फिर असमंजस की स्थिति में बोला,
"फिर क्या बात है?"
"ये सब क्या किया हैं तुमने?" सूरज ने पूछा।
"क्या किया है मैंने? " दीपक ने पुन: आश्चर्य किया।

"ऐसे मत बनो, जैसे मेरी बात का मतलब नहीं समझ रहे हो?" सूरज बोला।
“... ?”
इस पर दीपक पुन: आश्चर्य से भर गया। उसने थोड़ी देर सोचा। कुछ याद करने की चेष्टा की। फिर उसे जैसे सबकुछ याद आ गया, वह एक हलकी-सी मुस्कान चेहरे पर लाकर सूरज से बोला,
"ओह ! अच्छा … वह किरण .. क्या हुआ उसका? बात कहां तक पहुँची हैं तुम्हारी? "
"क्या हो सकता था उसका? " सूरज ने उल्टे उससे ही प्रश्न कर दिया, तो दीपक आश्चर्य भरे स्वर में बोला,
"तुम्हारा मतलब क्या ?"
"किस स्थान पर ला पहुंचाया है तुमने उसे ?"
"जहाँ पर भी वह इस समय है। ठीक है। अच्छी भली है। क्या बिगड़ गया है, उसका?

"तुम्हें शर्म आनी चाहिए।"
"शर्म ! किस बात की ?"
"तुम विद्युत विभाग के अभियन्ता हो ! आवश्यकतानुसार जनता के घरों में प्रकाश, और सूखे में ठण्डे जल से उन्हें तृप्त करने का कर्तव्य बनता है तुम्हारा, पर एक अबला के जीवन में अन्धकार करने से बाज नहीं आ सके ?"
"तमीज़ से बात करो ! जानते हो कि किससे और किस स्थान पर बात कर रहे हो ?" दीपक ने सूरज को जैसे चेतावनी दी।
"जानता हूँ कि किससे बात कर रहा हूँ। "
"फिर भी … ? "
"तुम्हें भी मालूम होनी चाहिए कि किससे सम्बोधित हो?"

"जानता हूँ ! इसीलिए कहता हूँ कि बात को इतना मत बढ़ाओ कि और भी बढ़ जाये। मैं तुम्हारा बॉस हूँ। चाहूँ तो तुम्हारा स्थानांतरण कर सकता हूँ- तुम्हें निलम्बित करवा सकता हूँ?" दीपक ने उसे फिर धमकी दी।
इस पर सूरज ने भी उसी लहज़े में कहा,
"मैं भी तुम्हारा मित्र रहा हूँ, तुम्हारी रग-रग से वाकिफ हूँ, अगर चाहूँ तो तुम्हारे इस सफेद पोश चेहरे के पीछे छिपी कीचड़ को उछालकर जनता को दिखा सकता हूँ ।"
"तुम मेरी दोस्ती का अनुचित लाभ उठा रहे हो?"
"अनुचित लाभ ? अपने दिल पर हाथ रखकर पूछो कि ये बेईमानी मैंने की है या तुमने ?" सूरज बोला।
"देखो सूरज, तुम मेरे दोस्त हो, इसीलिए तुम्हारी इतनी बातें सुन रहा हूँ, वरना अब तक तो… ? " दीपक कहते-कहते रुक गया।
"सुनना तो तुम्हारी तकदीर है अब। जैसा किया है, वैसा तो मिलेगा ही। शुक्र करो कि अब तो मैं ही सुना रहा हूँ। कल को अगर सारी दुनियां ने कहा, तो फिर क्या करोगे? "
"?"

इस पर दीपक जैसे झुँझलाकर बोला,
"क्या किया है मैंने?"
"क्या नहीं किया है तुमने? एक देवी जैसी लड़की की भावनाओं से खिलवाड़ की है तुमने। उसकी इज्जत को बे-आबरू किया है। ये जानते हुए भी फि तुम तीन बच्चों के बाप हो। उसका पति बनने का झाँसा दिया है तुमने ?"
"सूरज ! होश में आकर बात करो। ये मत भूलो कि इस कार्यालय में मेरे-तुम्हारे अतिरिक्त और लोग भी कार्य कर रहे हैं। वे सब भी ये सब सुन सकते हैं। मेरे सम्मान पर आँच आ सकती है? " दीपक कुर्सी से उठकर बोला।
दीपक की इस बात पर सूरज ने आगे कहा,
"अपने मान-सम्मान की इतनी चिन्ता है? अरे, तुम्हारा सम्मान तो उसी दिन खाक में मिल गया था, जिस दिन तुमने उस अबोध लड़की को अपने खोखले प्यार के झूठे सपने दिखाये थे। अपनी रेत की नींव पर उसके भावी जीवन का घर बनाने की झूठी कसमें खायी थीं । जरा सोच सकते हो कि अब वह कहां जायेगी? क्या करेगी?"
"तुम उसका हाथ क्यों नहीं पकड़ लेते हो ? " दीपक ने जैसे ताना दिया।
"यही तो मुश्किल है।"
"क्या मुश्किल है?"
"मेरे हाथ की हथेली में उसे तुम्हारी परछाईं नजर आती है। तुम्हारा फरेबी रूप दिखायी देता है। फिर भी गर्व आता है उस देवी पर, जो तुम जैसे स्वार्थी इंसान को अभी तक देवता समझकर पूजा करती है और शर्म आती है तुम्हारी नियत पर, जो उसकी भावनाओं की कद्र नहीं जानते हो !"
"तो मैं अब क्या कर सकता हूँ ?" दीपक ने पूछा।
"तुम अगर कुछ कर सकते तो इतना कुछ भी नहीं करते, जितना कि कर चुके हो?"
"मतलब क्या है तुम्हारा ?" दीपक ने कहा ।
"जाकर सारी दुनिया के समक्ष सम्मान के साथ उसका हाथ पकड़ लो। विवाह कर लो उससे। उसे अपना लो। कर सकते हो इतना सब ?"
"ये कैसे हो सकता है। मैं अफसर आदमी हूँ- पहले ही से विवाहित हूँ?”
"तो फिर … फिर डूब मरो चुल्लू-भर पानी में। कम-से-कम दुनियां तो यही समझेगी कि कितना नाकवाला अफसर था। नाक न कट जाये, इस कारण डूब मरा… ।"
“... ?”
सूरज की इस बात पर दीपक फिर झुँझला गया। वह क्रोध में आँखें दिखाकर बोला,
"अच्छा ! अब बहुत हो चुका है। बहुत बातें सुन ली हैं मैंने तुम्हारी। बेहतर है, तुम यहां से चले जाओ ?"
"मुझे मालूम था कि तुम यही कहोगे ! "
"तुम जाते हो या चपरासी को बुलवाऊँ?"
"जाता हूँ, लेकिन इतना याद रखना कि जो कुछ किया है तुमने, उसका परिणाम तुम्हें अवश्य ही भुगतना पड़ेगा। तुम सारी जिन्दगी चैन से नहीं रह सकोगे। हर पल तुम्हें उस निर्दोष लड़की की आहें काटती रहेंगी?"
“सूरज… ! "
इतना सब कुछ कहने-सुनने के पश्चात् सूरज अपने गाँव आ गया…

दीनापुर ।
दीनापुर एक छोटा-सा गाँव था। एक छोटी-सी बस्ती। गिने-चुने परिवार यहां रहते थे। यहां पर उसका अपना पैतृक घर था। अपनी सम्पत्ति थी। उसके खेत, घर-बार सभी कुछ था, परन्तु अपने घर में वह यहाँ नितान्त अकेला ही था। घर की इकलौती सन्तान होने के कारण, वही अकेला अपनी सारी सम्पत्ति का मालिक भी था। उसके माँ-बाप एक महामारी में उस समय चल बसे थे, जबकि वह बहुत छोटा था। इसलिए उसके पीछे उसके घर की देखभाल और खेतों की निगरानी आदि उसके घर का पुराना नौकर लहरी किया करता था।

लहरी उम्र में उसके पिता समान था- वयोवृद्ध। बुढ़ापे के कारण वह शरीर से भी दुर्बल हो चुका था। अपने घर की ऐसी परिस्थिति और गुजरे हुए हालातों में जीने के कारण सूरज एक लेखक बन चुका था। जिन्दगी को शायद उसने बहुत करीब से देखा था- दुख और कष्ट झेले थे। इसी सबब से वह एक कलाकार का मन प्राप्त कर सका था।

दीनापुर में उसके अपने परिचित थे। यहाँ की मिट्टी में वह खेला था, लोटा और फला-फूला था। यहाँ के तिनके-तिनके से उसे प्यार था। अपनत्व और लगाव था। इसी कारण जब किरण ने उसके दिल को तोड़ दिया, उसके अरमानों पर आग बरसा दी तो वह मन का मारा, उदास होकर यहां आ गया, यही सोचकर कि यहां उसका अपना घर है। अपने लोग हैं। उसका अपना गाँव है। उसकी जन्म-भूमि है। यहां के चप्पे- चप्पे पर उसका एकछत्र अधिकार भी है। हो सकता है कि उसका यहां दर्द बँट जाये। वह अपने प्यार की कटु स्मृति को भुला ले !

… परन्तु लाख प्रयत्न करने के उपरान्त भी, वह ऐसा कर नहीं सका। किरण का जुनून उसके दिमाग से समाप्त नहीं हो सका। हर पल उसको किरण के शब्द परेशान करने लगे। उसने किरण को प्यार किया था। उसको दिल से चाहा था। उसकी पूजा की थी और किरण का सुख उसके दूर चले जाने में ही था, ये बात वह स्वयं अपनी जुबान से कह भी चुकी थी, इसीलिए सूरज यहाँ आ गया था। शायद सदा के लिए? अब उसने जीवन में कभी भी मथुरा न जाने का संकल्प भी कर लिया था। फिर उस शहर में अब जाने का औचित्य भी क्या था, जहां पर उसका प्यार इसकदर जला था, कि बेमुरब्बत हवाओं ने उसकी बे-दर्दी से मसली हुई हसरतों में से राख की एक ढेरी भी नहीं छोड़ी थी।

… लेकिन इस तरह सूरज के दिन तो कटने लगे, पर जिन्दगी गुजर नहीं सकी। किरण के कहे हुए शब्दों के विषय में वह जब भी सोचता तो तड़पकर ही रह जाता। फिर बार-बार यही विचारता कि उसने तो किरण को प्यार किया था। दिल से चाहा था। वह तो उसे अपनी बनाना चाहता था, परन्तु किरण को क्या हो गया था, जो वह उससे इस तरह पेश आयी? उसके प्यार, उसकी आराधना और उसकी तपस्या का ये प्रतिफल? ऐसा परिणाम कि प्यार की आरती उतारने में उसकी देवी ने वरदान के स्थान पर उसे जीवन-भर तड़पने के लिए शाप दे दिया था ! वया यही उसका प्यार था? यही उसके नि:स्वार्थ प्रेम का सिला था?

दिन तो सूरज का किसी भी तरह कट जाता था, मगर जैसे ही रात की कालिमा अपना लबादा ओढ़कर आ जाती तो सूरज के दिल का दर्द भी बढ़ जाता। बढ़ती हुई रात में वह बेचैन हो जाता। इसकदर कि परेशान होकर वह घर से बाहर निकल पड़ता। फिर कहीं भी एकान्त में बैठकर अपने गम के घूँट भरता रहता। किरण के विषय में ही सोचता रहता- घण्टों। सारी-सारी रात गुज़र जाती। चन्द्रमा उसके प्यार की दुर्दशा को देख-देखकर मलिन पड़ जाता। बड़ी देर बाद जब रात समाप्त होने लगती, तो वह भी बहुत उदास होकर छुप जाता। तारिकाएँ ठंडी पड़ जाती। आकाश शबनम के आँसू बहा-बहाकर सारी वनस्पति को तर कर देता, मगर सूरज फिर भी नहीं उठता। वह एक ही स्थान पर बैठा रहता। बैठा-बैठा रात्रि की ओस से भीग भी जाता। फिर जब सुबह के कोहरे में लहरी की आँख खुलती, तो वह अपने मालिक को यूँ परेशान देखकर टोक देता। उसे उठा देता। सूरज को जब होश आता, तो वह उठकर अपने घर में आ जाता। उल्टा-सीधा बिस्तर पर जा पड़ता। फिर सुबह जब उषा की किरणें पूर्णत: दिन होने का संकेत कर देतीं और सूर्य काफी चढ़ जाता, तब भी वह नहीं उठता- उठता तभी जब लहरी आकर उसे जगाता।

ये थी उसकी दिनचर्या। उसके प्यार का प्रतिफल। किरण की बेरुखी का परिणाम कि एक अच्छी-भली जिन्दगी उसके चंदेक कड़वे और स्पष्ट स्वरों के फलस्वरूप स्वाह होने को बेताब थी।

कुछेक दिन सूरज का यही हाल रहा। यही दशा बनी रही। वह स्वयं से रूठा-रूठा रहने लगा, तो लहरी को उसकी बिगड़ती दशा तथा चुपचाप घुटते रहने और सदैव खामोश, गुमसुम, उदास रहने पर सन्देह हो गया… । इस पर उसने सूरज से पूछा भी। कई बार उसके दिल का भेद उगलवाने का प्रयास भी किया, परन्तु वह सफल नहीं हो सका- नहीं हो सका तो उसने आगे कुछ कहा भी नहीं और इस प्रकार 'सूरज' दिन-ब-दिन ढलता गया। दिन-रात, अकेले-अकेले चुपचाप घुटते रहने के कारण उसका स्वास्थ्य भी गिरने लगा। चेहरे की काया ही बदल गयी। मुख पर झाड़ियों समान दाढ़ी उग आयी। कई…कई हफ्तों तक उसने दाढ़ी बनायी भी नहीं। आँखों में खेलने से पहले ही हारी हुई प्यार की बाजी और बेवफा दोस्ती का दर्द जमा होने लगा ! चेहरा ही डूब गया ! वह उदास हो गया। इस प्रकार कि उसे अपना ही होश नहीं रह सका। कई-कई दिन गुजर जाते और वह एक ही कपड़े पहने रहता। उसका लेखन-कार्य भी बन्द हो गया। अपनी कलम के प्रति वह बेवफा हो गया। वह कहीं भी निकल जाता, तो वापस आने का कोई समय ही नहीं होता। एक स्थान पर यदि वह बैठा है, तो बैठा ही रहता। समय-असमय खाना खाने के कारण वह शरीर से भी दुर्बल हो गया- और इस प्रकार वह बहुत ही अधिक परेशान रहने लगा। किरण के शब्द और उसकी बेरुखी की लताड़ ने उसे अत्यन्त झकझोरना आरम्भ किया तो वह और भी अधिक टूट गया। इसकदर कि उसे अपना महत्व ही नजर नहीं आया। वह अपने को इस संसार में एक बोझ समझ बैठा। जीवित रहना निरर्थक लग उठा। जिन्दगी उसके लिए एक आफत बन गई. तब अन्त में हारकर उसके मस्तिष्क में इस संसार से सदा के लिए दूर चले जाने का एक खतरनाक ख्याल पनपने लगा… । किरण ने तो उससे अपने पास से दूर चले जाने को कहा था, मगर उसके मस्तिष्क में इस संसार से ही दूर भाग जाने का विचार उठ आया। वह आत्महत्या की योजनाएँ बनाने लगा।

तब एक दिन …
जब उसको अपनी जिन्दगी एक कड़वा अतीत बनकर प्रतिदिन ही उसे डसने लगी, तो वह अपना आत्मसयम खो बैठा। सोचा कि इस मनहूस जीवन से तो मर जाना ही बेहतर है। ऐसे जीवन से लाभ भी क्या, जो किसी काम का नहीं … किसी के काम आ भी नहीं सका !

इस प्रकार फिर एक दिन, उसको जब सारी रात नींद नहीं आ सकी और आत्महत्या का जुनून उसके सारे जहन पर एक भूत की मानिंद चढ़ बैठा, तो उसने विष खा लिया- खाकर वह अपना घर छोड़कर बाहर निकल आया। स्वत: ही उसके कदम अपने खेतों की ओर बढ़ने लगे- रात काफी गुज़र चुकी थी। सुबह होने में कुछ ही घण्टे शेष थे। उसकी दशा जब अधिक बिगड़ने लगी, तो वह अपने खेतों के बीच में लगे हुए वर्षों पुराने नीम के वृक्ष के नीचे आ गया और उसके तने से पीठ टिकाकर बैठ गया।

जब उसके सारे शरीर में विष का असर फैलने लगा, तो उसको आँखें स्वत: ही बन्द होने लगी, परन्तु फिर भी अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक वह अपनी किरण के प्रति ही सोचता रहा। उसे जी भरके स्मरण करता रहा- स्मरण करता रहा- बार-बार- हर पल- हर क्षण- और फिर अपने प्यार की याद में कब उसकी सोचते-सोचते यादों की कड़ी टूट गयी, उसे ज्ञात भी नहीं हो सका। किरण का नाम दोहराते हुए, वह अपने प्यार की बलि चढ़ गया था। इस प्रकार कि एक नि:स्वार्थ भावना से प्यार करता हुआ, वह इस संसार से भी उठ चुका था- सदा के लिए !

… और फिर दिन के प्रकाश के फूटते ही जब उसके मरने की खबर गाँव में पहुँची, तो सारा गाँव ही उमड़ पड़ा। सब ही, उसके इस आकस्मिक निधन पर आश्चर्य कर रहे थे। मौन और भौंचक्के थे।

फिर तुरन्त ही पंचायत बैठी और पंचों के निर्णय के अनुसार पुलिस को खबर की गयी। पुलिस ने आकर लाश का पंचनामा तैयार किया। उसकी जेबें देखी गयी, तो एक छोटा-सा पत्र मिल गया, जिसमें उसने आत्महत्या का दोषी स्वयं को ही ठहराया था… और मरने के पश्चात उसने अपने गाँववालों से विनती की थी कि यही इसी नीम के वृक्ष के तले उसे दफन किया जाये, तथा उसकी मजार पर ये शब्द लिखे जायें कि "तुम दूर चले जाना".

गाँववालों के पास जब पोस्टमार्टम के पश्चात् उसका शव आया तो उन्होंने उसी की इच्छानुसार वही किया, जो उसने चाहा था। उसकी एक सुन्दर-सी मजार बना दी गयी तथा उसके ऊपर उसका नाम, जन्म-तिथि तथा वह अभिलेख भी लगा दिया गया, जो उसने चाहा था। इस प्रकार सूरज के दु:खद निधन पर समाप्त हो गयी उसकी जिन्दगी। उसके प्यार की कहानी और उसका अनकहा वह दर्द, जिसके प्रति वह अकेला ही घुटता रहा और कभी भी उसने अपने इस दर्द का किसी से बखान तक नहीं किया।

उसने शायद कभी भी अपने लिए जीना नहीं सीखा था। वह सदैव दूसरों के लिए जीता रहा… और मर भी गया, परन्तु अमर नहीं हो सका। शायद यही उसके प्यार की सबसे बड़ी विडम्बना थी। एक दु:खद गाथा, करुणा और मर्मभरी। दुख और दर्दों से युक्त। अनूठे प्यार की एक अनोखी रचना। एक मिसाल। एक ऐसी जिन्दगी, जो जीवित रहने पर भी कभी जी नहीं सकी थी, परन्तु मरणोपरांन्त उसको एक जीवन प्राप्त हो चुका था। शायद फिर कभी कोई प्यार की कहानी दोहराने के लिए? होंठों पर एक ही नाम सजाने के लिए-प्यार ! प्यार- एक नि:स्वार्थ प्यार- बस, और कुछ भी नहीं !

X X X

सूरज की यही वह मजार थी, जो किरण के पति वीनस के मार्ग में एक बाधा बनकर आ गयी थी। इसी के कारण रेलवे-लाइन का निर्माण कार्य कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया गया था, क्योंकि किसी भी मजार को तोड़ने अथवा हटाने से पूर्व उसकी पूर्व अनुमति ले लेनी अत्यन्त आवश्यक थी।

और जब किरण को ये सारी बातें याद आईं, मजार और उस पर लिखे अभिलेख का उसे ख्याल और मतलब समझ में आया, तो वह शीघ्र ही समझ भी गयी। पहचान गयी कि उसके पति वीनस के मार्ग में एक अड़चन बनकर आनेवाली मजार किसी अन्य की नहीं, बल्कि उसके भूतपूर्व उस प्रेमी की है, जिसने कभी अपने हाथ फैलाकर उससे प्यार की भिक्षा माँगी थी, परन्तु वह सूरज को ये सब दे नहीं सकी थी। देना तो दूर, उसको इस कदर बुरी तरह उसने निराश किया था कि वह चुपचाप वहाँ से चला आया था और आकर खुदकुशी कर बैठा था। केवल उसके चंदेक कटु और स्पष्ट शब्दों ने ही उसको मृत्यु-शैया पर ला पटका था। यदि वह उससे ऐसा नहीं कहती- केवल चुप ही रह लेती, तो शायद आज उसे ये दिन नहीं देखना पडता? सूरज यूँ मौत के मुँह में नहीं जा पहुँचता ! समय से पूर्व ही वह इस संसार से कूच नहीं कर जाता ! वह सूरज- उसके रूप का दीवाना, जो अपनी सारी उम्र उसके प्यार में अपनी खामोश मुहब्बत के दीप जलाता रहा, उसे प्यार करता रहा, देवी समझकर उसकी तपस्या करता रहा, एक प्रकाश बनकर उसको उजाला देता रहा, उसी को वह गलत समझ बैठी। इतना अधिक कि जो उसके जी में आया, वह कह बैठी और उसका परिणाम ये हुआ कि वह निराश होकर आत्महत्या कर बैठा। कितना बुरा उसके प्यार का हश्र हुआ था? किसकदर दर्दभरा ! सूरज ने एक ही पग में प्यार की सारी सीमायें लाँघ ली थीं और वह अपनी एक छोटी-सी भूल के कारण, किसी की मृत्यु की जिम्मेदार साबित हो चुकी थी। शायद अपराधियों की पंक्ति में भी आ चुकी थी… ऐसा अब वह सोचती थी।

किरण यही सब-कुछ सोचती थी-म सोचती थी और रोती थी। सिर धुनती थी। आँसू बहाती थी, परन्तु आज उसके आँसू पोंछने के लिए कोई भी उसके करीब नहीं आ सकता था। ना प्लूटो, ना ही दीपक, ना ही सूरज और ना ही उसका पति वीनस, जिस पर उसका हक भी था। ‘प्लूटो’, ‘दीपक' और 'सूरज', ये तीन युवक … तीन हृदय… तीन आत्मायें, उसके जीवन में आयी थीं, परन्तु ये उसके भाग्य की विडम्बना थी कि वह इनमें से किसी की भी नहीं हो सकी थी। इन तीन युवकों में ही उसने जिन्दगी के प्यार के सारे गुण सीख लिए थे। एक उसका प्रथम प्रेमी था, जिसको काल ने छोना था- प्लूटो. दूसरा, दीपक, जिसने उसका रहा-बचा सब छीन लिया था और तीसरा- सूर, जिसका उसने स्वयं एक नारी होकर, उसका जीवन ही छीन लिया था। फिर भी इन तीनों से अलग एक चौथा युवक भी था- वीनस, जिसने अंत में उसे सब कुछ दिया था। अब इसी वीनस की छत्र-छाया में उसे अपना जीवन गुजारना था- अपना पति-धर्म निभाना था, जीना था, और सँवारना भी था। यही सोचकर कि जो कुछ उसका खो गया था यह उसका अपना नहीं था, परन्तु जो खोने से बच गया था, वही उसका था और उसी को उसे संजोकर रखना भी था। फिर कभी भी यूँ न खोने देने के लिए ही। दुनियां की भीड़ में कभी भी न भटकने के लिए।

… क्योंकि, प्यार के रास्तों पर लापरवाही से भटके हुए कदम बरबाद जिन्दगियों का एक तोहफा बनने पर मजबूर हो जाते हैं। शायद यही सत्य है। एक कड़वा विश्वास। एक यथार्थ। भावनाओं का तूफान, जो एक ही पल में इन्सान को कहीं का भी नहीं छोड़ता है। न इस संसार का… और ना ही उस दुनिया का, जिसे जानते सब हैं, मगर उसे एक बार देखने के पश्चात फिर वहाँ से कोई पुन: लौटकर नहीं आ पाता है। सूरज भी उसी दुनियां में जाकर अस्त हो चुका था। शायद फिर कभी भी उदय न होने के लिए- और ढलते तथा अस्त होते हुए सूरज को कभी भी, कोई प्रणाम नहीं करता है। ये आज की नहीं, जमाने की रीति है- सदियों पुरानी।

क्रमश: