तुम दूर चले जाना - 12 Sharovan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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तुम दूर चले जाना - 12

इलाहाबाद में जब किरण का मन अधिक नहीं लग सका तो वह वापस मथुरा आ गयी। आकर उसने अपनी छुट्टियाँ रद्द करवायी और फिर से काँलेज जाने लगी। अपनी दिनचर्या को उसे किसी-न-किसी रूप में सँवारना तो था ही। जो कुछ उसके साथ हो गया था, उसे दिल में ही छुपाते हुए अपने जीवन के शेष दिन व्यतीत करने थे। यूं भी किरण प्यार के नाम पर इस कदर टूट चुकी थी कि वह अब इस बारे में कुछ सोच भी नहीं पाती थी। काँलेज में उसकी साथी-सहेलियाँ अपने-अपने प्यार और प्रेमियों का जब कभी भी चर्चा चला देती थीं तो एक हूक-सी उसके कलेजे में अवश्य उठ जाती थी। दिल के कोने में कहीं ढेर सारा दर्द आकर जम जाता था। आँखें स्वत: ही अपने बेवफा प्यार की स्मृति-मात्र से ही भीग आती थीं। तब ऐसे में वह अपने दिल का दु:ख सबसे छुपाकर बड़ी देर तक अकेले में रो लेती थी। यही वह करती थी- यही कर भी सकती थी- और यूँ ही कर भी रही थी। अपने दुःखों पर अकेले-अकेले ही रो लेना उसके जीवन का एक अंग बन गया था।

दिल के प्यार के इन्हीं हालातों के मध्य जब सूरज ने उसके आगे अपने प्यार का दामन फैलाना आरम्भ कर दिया, तो उसने इस राह पर अब एक कदम भी आगे न बढ़ने का फैसला कर लिया, पंरन्तु वह ये भूल गयी थी कि उसके अकेले इस प्रकार के निर्णय लेने से क्या होता था? प्यार का दीवाना ! उसका चहेता- सूरज, उसको यूँ अकेला नहीं छोड़ सकता था। ये उसने जब महसूस कर लिया और जब सूरज उसको कुछ अधिक ही परेशान-सा करने लगा, तो उसमें अब इस कार्य में अधिक देर करना भी ठीक नहीं समझा। सूरज से उसने स्पष्ट बात करने और कह देने में ही दोनों की भलाई समझी।

… क्योंकि सूरज अब प्रतिदिन ही उसके काँलेज के बाहर बैठा रहता था। अक्सर ही वह उसके सामने किसी-न-किसी बहाने आ जाता था। सूरज के इस प्रकार बार-बार प्राय: ही काँलेज के बाहर बैठने और अधिकांशतय: किरण के आस-पास मण्डराते रहने के कारण काँलेज में भी अब उसकी चर्चा धीरे-धीरे होने लगी थी। फिर जब भी चर्चा होती तो उसके साथ-साथ किरण का नाम अवश्य ही जुड़ता था… और जब बात बढ़ते-बढ़ते काँलेज में प्रिंसिपल से लेकर अध्यापिकाओं तक पहुँची; और जब धीरे-धीरे छात्राओं के मध्य भी गुजरने लगी, तो किरण ने सूरज से स्वत: ही कहना ठीक समझा।

फिर ऐसे ही एक दिन….

सूर्य की अन्तिम लाली ने अपना अस्तित्व समाप्त करना आरम्भ कर दिया था। आकाश में हल्की-हल्की बदलियाँ न जाने कहां से कतरनों के समान आकर बिखर चुकी थीं। यूक्लेप्टिस के पेड़ों की परछाइयाँ लम्बी होकर काँलेज की चारदीवारी से बाहर चली गयी थीं। काँलेज छूटे काफी देर हो चुकी थी- काँलेज के प्रांगण में केवल चपरासी और नौकर इत्यादि ही दिखायी दे रहे थे… ऐसे ही मौन वातावरण में किरण काँलेज के बाहरी गेट पर आकर खड़ी थी। खड़े-खड़े उसे देर भी हो चुकी थी । उसे आज सूरज की प्रतीक्षा थी… । वह जानती थी कि उसके रूप-रंग का दीवाना सूरज उसको तलाश करते हुए अवश्य ही यहां आयेगा- आयेगा, तब ही वह उससे बहुत स्पष्ट बात कर लेगी। आखिर इस प्रकार उसे इस मुसीबत से छुटकारा तो मिलेगा। सूरज को कुछ देर बुरा अवश्य लगेगा, परन्तु अन्त में धीरे-धीरे सब सामान्य हो जायेगा- ऐसा उसका विचार था। तब ही उसकी आशा के अनुकूल सूरज उसको आता हुआ दिखायी दिया। काँलेज के बाहर के गेट पर इस समय पूर्णत: एकान्त था। खामोशी एक अजनबी के समान चारों तरफ छायी हुई थी। कहीं भी, कोई आता-जाता दिखायी नहीं देता था। किरण ने सूरज को आते हुए देखा, तो मन-ही-मन उसको इस बात से प्रसन्नता हुई कि चलो अब उसे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। फिर कल से ये सारा नाटक स्वयं ही समाप्त हो जायेगा- फिर सूरज जब उसके पास आकर ठिठक गया तो उसे देखते हुए किरण ने स्वयं ही प्रश्न कर दिया,

"'सूरज ! तुम?"

"हां ! "

"किसकी तलाश में हो?”

“पता नहीं। “

"तो फिर क्यों आकर खड़े हो यहां?"
"ये भी पता नहीं।"
"अजीब हो तुम ! फिर क्या ज्ञात है तुम्हें?"
"आप यहाँ हैं ! मैं यहां हूँ ! बस इतना ही जानता हूँ मैं … "
"सूरज? "

"किरण जी ! मैं एक लम्बे अरसे से प्रतीक्षा कर रहा हूँ।"
"किसकी? "
"तुम्हारी ! तुम्हारा प्यार पाने की। तुम्हारे बिना मेरा जीवन अन्धकारमय है ! " सूरज बहुत भावुक होकर बोला, तो क्षणेक-मात्र को किरण भी विचलित हो गयी ! उसे सूरज पर दया-सी आयी। तरस आया, परन्तु दूसरे ही क्षण वह गम्भीर हो गयी… फिर सूरज से बोली,
"सूरज ! तुम एक सूर्य हो !"
"जानता हूँ मैं !"
"फिर क्यों अन्धकार में भटकते फिर रहे हो? "
"अपनी 'किरण' की तलाश में। "
"लेकिन मैं तुम्हारी 'किरण' नहीं हूँ ।"
'" 'किरण' तो 'सूरज' की ही होती है।"
"तुम ये क्यों भूलते हो कि 'किरण' 'दीपक' की भी हो सकती है।"
"वह 'दीपक' तो कभी का बुझ चुका है, जिसकी आस तुम लगाये बैठी हो ! '"
"फिर भी मैं उसकी ही 'किरण' हूँ।"
"किरण ! बातों के मध्य यूँ तकरार करके प्यार की इन भावनाओं की इस प्रकार बेकद्री मत करो। मैं बड़ी उम्मीदों से तुम्हारे पास अपने प्यार की भीख माँगने आया हूँ। मुझे यूँ खाली हाथ मत जाने दो। तुम्हारे बिना तो मैं कुछ भी नहीं हूँ, किरण ! प्लीज, मेरी मान लो और मेरे प्यार को अपना बना लो। मैं तुम्हारे बिना एक पल भी नहीं रह सकता हूँ। कैसे जिऊंगा मैं तुम्हारे बगैर?"
भावनाओं के तूफान में बहकर सूरज ने अपने प्यार के लिए इस प्रकार याचना-सी की तो एक बार किरण भी डगमगा-सी गयी… उसे सूरज बहुत ही अधिक भावुक लगा। उसके दिल में एक बार ये आया भी कि वह क्यों न सूरज की बाँहों में समा जाये ! सचमुच यह युवक उसको कितना अधिक प्यार करता है? किसकदर चाहता है, इस बात की साक्षी सूरज की मौन और अपनत्वभरी आँखों की तरसी-तरसी दृष्टि दे रही थीं, परन्तु किरण चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकी। उसने सूरज के महान प्यार को धोखा देना उचित नहीं समझा, क्योंकि जब वह पहले ही दो युवकों से प्यार कर चुकी हैं, तो उसको कोई अधिकार नहीं जाता है कि वह यूँ सूरज को धोखे में रखकर उसके महान प्यार की भावनाओं को अपवित्र कर दे। इसलिए उसने दिल को कड़ा करके सूरज से स्पष्ट कह देने में ही अपनी और उसकी भलाई समझी। बात को पुन: आरम्भ करते हुए उसने सूरज से कहा कि,

"सूरज ! अच्छा हुआ जो तुमने अपने दिल की बात पहले ही कह दी ।" किरण ने खड़े-खड़े कुछेक क्षण सोचा … विचारा.. . गंभीरता से सूरज को निहारा, फिर उससे सम्बोधित होकर उसने आगे कहा कि,

"सूरज ! मैं अपने सूर्य की बिछुडी हुई एक अकेली 'किरण' हूँ जो एक 'दीपक' की हल्की और मद्धिम ज्योति के सहारे की आस लगाये भटकती फिर रही है- जाने कहाँ जा रही हूँ? क्यों जा रही हूँ? मुझे कुछ भी होश नहीं है। कुछ ज्ञात नहीं हैं। मैं खुद नहीं जानती हूँ- शायद खो गयी हूँ। स्वयं में और इस दुनियां के अन्धकार में भी। ये सत्य है कि तुम मेरे सूर्य बनना चाहते हो, लेकिन मैं तुम्हारी 'किरण' नहीं। मैं किरण अवश्य हूँ, परन्तु एक मैली किरण ! मेरा वर्तमान तुमको जितना अधिक पवित्र नजर आता है, मेरा अतीत उससे कहीं अधिक गन्दा भी है और तुम मेरे वर्तमान की स्वच्छता तथा पवित्रता को देखकर मेरे अतीत को सदा-सदा के लिए भूल जाओ- ऐसा कभी भी सम्भव नहीं, क्योंकि 'सूरज' सदैव अपनी 'किरण' को साफ़ देखने का आदी होता है- कल को मैं तुम्हारी नजरों में गिर जाऊँ- एक 'किरण' भी न रह पाऊँ। अपने एक छोटे-से अस्तित्व को भी समाप्त कर डालूं। ऐसा मेरे दिल को कभी भी गवारा नहीं होगा। अच्छा यही है कि तुम मेरी प्रतीक्षा करना छोड़ दो। मेरे मार्ग से हट जाओ। मैं एक अनाथ और अकेली 'किरण' हूँ, जो अपने 'सूरज' से बिछुड़ चुकी है। इस संसार के अन्धकार में भटकने के लिए। मुझे भटकने दो। तुम एक 'सूरज' हो- तुम्हारे पास ऐसी 'किरणों' की कोई कमी नहीं होनी चाहिए… बहुत मिल जाएँगी। जमाना बहुत बड़ा है। मेहरबानी करके मेरे मार्ग में फिर कभी बाधा बनकर आने की चेष्टा न करना। नहीं तो मैं जो कुछ भी हूँ, वह भी नहीं रहूँगी। मुझे भटकने दो। इस संसार के अँधियारे में… एक आवारा बनकर। परित्यागी समान। सताई और दु:खिया बनकर। एक छली गयी युवती की तरह। एक अजनबी जैसी। मैं दूर भागना चाहती हूँ इस संसार से- संसार के प्रकाश से- हर किसी से। स्वयं से और तुमसे भी। जिन मार्गों पर मैं चल रही हुँ मुझे स्वयं भी ज्ञात नही है कि उनकी कोई मंजिल भी है। कोई ठहराव भी हैं। कहीं कोई पड़ाव है भी या नहीं। इतना जानती हूँ कि मेरे इन रास्तों का कोई रुकाव नहीं है मगर भटकाव अवश्य है- और मैं भटक जाना चाहती हूँ- भटककर खो जाने के लिए। शायद समाप्त हो जाने के लिए भी?...

… कल को तुम मेरे 'सूरज' बनकर मेरे साथ खुद भी भटकते फिरो, ऐसा मेरे दिल और जमीर को कभी भी स्वीकार नहीं होगा। तुम एक नये उदय होते हुए सूर्य हो और मैं एक अस्त होती हुई 'किरण'- कल को जमाने को तुम्हारी आवश्यकता पडेगी, मेरी नहीं ! जमाना तुम्हारा इन्तजार कर रहा है और मैं जाने कहां जा रही हूँ? मुझे स्वयं भी ज्ञात नहीं है। मुझे जाने दो। मेरा मार्ग मत रोको। तुम यदि सचमुच मुझे प्यार करते हो और चाहते हों कि मैं खुश रह सकू, तो मेरी तुमसे ये विनती है कि तुम मुझे यूँ ही अकेला छोड़ दो… मुझे बार-बार परेशान करने मत आओ- आज के बाद तुम मेरे रास्ते में कभी नहीं आना। मैं जानती हूँ कि तुमने मुझे अपनी आत्मा की गहराइयों से प्यार किया है, आगे शायद हमेशा करते भी रहोगे, मगर मैं तुम्हारा प्यार स्वीकार करने में असमर्थ हूँ ! हो सके तो मेरी इस विवशता को तुम अपने महान प्यार की कोई कमजोरी समझकर क्षमा कर देना और सदा के लिए मेरे तन्हा मार्गों से ‘तुम दूर चले जाना' इतनी दूर कि जहाँ- मैं चाहकर भी न आ सकूं । मुझे भूल जाना, प्लीज ! "

कहते-कहते किरण अत्यन्त गंभीर हो गयी। साथ ही बहुत उदास भी। बिलकुल खामोश- रात्रि में आकाश से टपटप करके गिरती हुई शबनम की बूंदों के समान- मानो किसी टूटे हुए दिल की आहें छोटी-छोटी कतरनों के समान गिर रही हों !

"?"

सूरज किरण के इस स्पष्टीकरण को सुनकर ज़हाँ-का-तहां जमा-सा रह गया। उसके मुँह से आधी बात भी नहीं निकल सकी। किरण उसे अत्यन्त गम्भीर दिख रही थी। फिर भी उसने चाहा कि एक बार फिर वह किरण से याचना कर ले। दोनों हाथ फैलाकर उससे अपने हाथ से सरकता हुआ प्यार वापस माँग ले, मगर वह ऐसा कर नहीं सका… क्योंकि किरण ने स्पष्ट इनकार कर दिया था। अपनी मजबूरियों और विवशताओं का खाता खोलकर रख दिया था- इसलिए अब कोई भी कोशिश करने से कोई भी लाभ नहीं था, सिवा इसके कि वह बार-बार कहकर उसके दिल को और भी दु:खाये।

सूरज के दिल में आया कि वह चुपचाप उसके सामने से चला जाये। एक शब्द भी न बोले। किरण से कहने के लिए अब उसके पास बचा ही क्या था? फिर भी उसे कुछ तो कहना ही था। किरण ने अपना दु:ख-दर्द और वेदनायुक्त दिल का हाल कह सुनाया था। कितनी उदास थी वह ! उसके चेहरे पर किस कदर दर्द की आभा, उसकी मजबूरियों की झलक बनकर उसके चेहरे से चिपक गयी थी। ये वह अच्छी प्रकार देख रहा था। किरण की सारी खुशियाँ उसके पास से सदा दूर चले जाने में ही सुरक्षित थीं। ये बात वह पहले ही कह चुकी थी। इस कारण सूरज ने चलते-चलते किरण से अन्त में कहा;
"किरण जी ! प्यार एक पवित्र और दिल की खूबसूरत भावना होती है। शायद संसार के सब सच्चों में ये एक बड़ा सच भी होता है। ये किसी की कोई व्यक्तिगत वसीयत या रियासत तो हैं नहीं- किसी से भी हो सकता है। मेरे दिल ने आपको प्यार किया। आपको चाहा। एक देवी समझकर आपकी पूजा की। प्रतिदिन आपकी आराधना में, अपनी आरती के पुष्प अर्पित किये तो इसका दोषी मैं ही हूँ… और मेरे इस प्यार के बदले में आपने मुझे जो कुछ भी दिया है, या चाहा है, उसे मैं अपना गौरव समझता हूँ। ... फिर भी, भीख माँगनेवाले की झोली में कोई दया और सहानुभूति के साथ दो पैसे डालता है, तो कोई उसमें छेद भी कर देता है- आपकी खुशियां यदि मेरे मिट जाने में ही सुरक्षित रह सकती हैं, तो फिर अब वही होगा, जो आपने चाहा है- मगर इतना अवश्य ही कहूँगा की चोट मारने के पश्चात तड़पनेवाले का दर्द नहीं पूछा जाता है किरण जी ! केवल उसके झुलसे और तबाह हुए अरमानों की लाश देखकर स्वयं को झूठी तसल्ली देने की एक कोशिश-भर ही की जाती है। उसका अन्तिम अंजाम देखा जाता है। गुजरे हुए दिनों में जब आपकी लालसा होगी, तब आपको इस सूरज के प्यार की बिखरी और उड़ती हुई राख में ना कोई चिंगारी मिलेगी और ना ही कोई शोला ! उस वक्त तक सब कुछ समाप्त हो चुका होगा। मेरा प्यार ! आपकी ताड़नायें … और शायद आपके जीने की ख्वाइश भी… "
"सूरज प्लीज़? "
"मैं जाता हूँ ! "
“... ?”
कहकर सूरज उसके सामने से चला गया, तो किरण अबाक-सी खड़ी रह गयी। मौन ! निर्वुद्धि ! निलिप्त-सी। … उसे अपलक जाते हुए देखती रही !

सूरज उसके पास से चला गया था। सदा के लिए! शायद वह अब कभी नहीं आयेगा! कभी भी आकर उससे प्यार के दो शब्द नहीं कह सकेगा। उसने उसे अकेला छोड़ दिया था। उसी के आग्रह और जिद पर। उसने अपने प्यार को ठुकरा दिया था। उसने अपनी आरजू को तिरस्कृत करवा लिया था। किरण खड़ी-खड़ी सूरज को जाते हुए देखती रही थी- देखती रही थी- बहुत देर तक।

दूर क्षितिज में सूर्य की अन्तिम लालिमा ने अपना दम तोड़ दिया था। संध्या सिमटकर रात्रि में परिणित हुई जा रही थी। यूक्लेप्टिस के वृक्षों की शाखाओं और पत्तियों ने सिर झुकाकर अपनी पलकें बहुत खामोशी से बन्द भी कर ली थीं। चारों ओर एक खामोशी थी। चुप्पी. काँलेज की लम्बी एकान्त गैलरी में टयूबलाइट का प्रकाश रात के अँधेरों को कम करने का एक असफ़ल प्रयास कर रहा था। प्रतिदिन के समान आज भी काँलेज में वही माहोल था। वही वातावरण- और वही शांति, मगर किरण का दिल जानता था कि प्रतिदिन के समान इस कॉलेज के प्रांगण में छायी खामोशी, शांति, और चैन में भी जैसे किसी टूटे हुए दिल की कराहटें सम्मिलित हो चुकी थीं। सूरज बहुत उदास होकर उसके पास से चला गया था। कितनी बुरी तरह वह टूट गया होगा? कितना अधिक अन्दर-ही-अन्दर वह गल गया होगा? उसके शरीर का सारा रक्त ही फटकर जैसे बाहर आना चाहता होगा?

खड़े-खड़े किरण ने अनुमान ही लगाया। महसूस भी किया, परन्तु इतना नहीं, जितना कि एक टूटे हुए दिल को होता है। शायद इसका कारण भी यही होता है कि दिल टूटने का कोई शोर नहीं हुआ करता है। वह तो टूट जाता है। बस मन-ही-मन बिखर जाता है और मन की इस पीड़ा को वही जानता और महसूस कर पाता है, जिसके साथ ये सब घटित हुआ करता है। सूरज के दिल पर क्या बीती होगी? ये वह जानता होगा और उसका छलनी, घायल, प्यार का मारा उसका अकेला दिल- जिसको उसकी महबूबा ने शिकायत करने का कोई अवसर भी नहीं दिया था।

वह एक 'सूरज' बनकर 'किरण' के पास आया था, परन्तु 'किरण' एक 'दीपक' के हलके प्रकाश के सहारे की तलाश और आस में जाने कहां जा रही थी? जाने कहां? और क्यों जा रही थी? ये कोई नहीं जान सका था। कोई जानता भी नहीं था। सिवा किरण के।

किरण बड़ी देर तक वहीं खड़ी रही। खड़ी-खड़ी सोचती रही और जब रात होने को आयी, तो काँलेज के चौकीदार ने उसको टोक दिया- टोक दिया तो वह बस-स्टेण्ड पर आ गयी- बेमन से।

बस-स्टेण्ड पर अचानक ही उसको दीपक मिल गया, तो वह उसकी उपस्थिति पाकर चौंक गयी। उसका आश्चर्य करना बहुत स्वाभाविक भी था, क्योंकि दीपक से अब उसकी भेंट बहुत कम ही हो पाती थी।

दीपक ने उसको देखा, तो उसके कदम स्वतः ही किरण की ओर बढ़ने लगे। किरण के पास आकर वह खड़ा ही हो सका था कि किरण आश्चर्य से बोली,
"तुम?”
"और तुम भी इतनी देर… आज क्या काँलेज में कोई विशेष कार्यक्रम आदि था?" दीपक ने पूछा।
"नहीं ! वहां सूरज मिल गया। इसी कारण देर हो गयी।"
"सूरज … ओ-अच्छा ! " कहकर दीपक के होंठों पर अचानक ही एक मुस्कान सिमटकर समाप्त हो गयी, तो किरण उसे आश्चर्य से देखकर दंग रह गयी। फिर गम्भीर होकर, दीपक की ओर देखते हुए, भेदभरे ढंग से बोली,
"लेकिन तुम क्यों मुस्कुरा गये?"
"अपनी विजय पर।"
"विजय… ? " किरण और भी आश्चर्य कर गयी।
"हाँ ! मेरी मेहनत सफल हो गयी।" दीपक ने कहा तो किरण उत्सुकता से आश्चर्य करती हुई पूछ बैठी,
"मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी ?"
"मतलब यही कि सूरज वास्तव में बहुत अच्छा लड़का है, उसके साथ तुम हमेशा खुश रह सकोगी। बड़ा ख्याल रखेगा वह तुम्हारा। उसको तुम्हारे पास मैंने ही भेजा था… मेरे ही बहुत आग्रह पर उसने अपने प्यार का इजहार तुमसे किया होगा, वरना वह शायद कभी भी अपनी जुबान नहीं खोलता।"
" … ? " उसके इस अप्रत्याशित कथन पर किरण की दृष्टि तुरन्त ही परिवर्तित हो गयी। उसने दीपक को निहारा। गंभीरता से देखा, फिर जैसे तनिक क्रोध में बोली,
"तुमने कितना ख्याल रखा है मेरा? प्यार तो तुमने भी किया है मुझसे ? "
"ख्याल नहीं होता तो मैं क्यों सूरज को तुम्हारे लिए पसन्द करता?" दीपक जैसे सहमकर बोला।
"ख्याल? ख्याल कर रहे हो या अपनी जिम्मेदारी अपने सीधे-साधे मित्र के कांधे पर डालकर, हमेशा के लिए इस बोझ से बरी हो जाना चाहते हो?" किरण ने उसी मुद्रा में कहा।
"मैं उससे तुम्हारा विवाह करवाना चाहता हूँ।"
"विवाह ! ये जानते हुए भी कि मैं तुम्हारे बदन की उतरन हूँ। तुम मेरा लिहाफ बनाकर अपने दोस्त के ऊपर डालकर, उसमें अपने सारे कर्मबंधन छुपा लेना चाहते हो ! विवाह तो तुमको मुझसे करना चाहिए?"
"तुम अगर सूरज से विवाह कर लोगी, तो इसमें तुम्हारा बिगड़ता ही क्या है? वह तुम्हें प्यार करता है। तुम पर अपनी जान छिड़कता है। एक प्रकार से तुम्हारी वह पूजा करता है। " दीपक ने कहा।
"जानती हूँ, इसीलिए उसकी आत्मा को धोखा नहीं देना चाहती हूँ। उसकी भावनाओं के साथ कोई भी छल-कपट नहीं करूँगी। मैं तुम्हारी खायी हुई थाली का बचा हुआ भोजन हूँ ! चाहो तो जूठन समझकर कुतों के समक्ष फेंक दो, मगर किसी सभ्य इन्सान का धर्म-ईमान भ्रष्ट नहीं करूँगी।”
"किरण ! समझदारी से काम लो- सूरज तुम्हें प्यार करता है। तुम उससे विवाह कर लोगी, तो उसे तो कभी पता ही नहीं चलेगा कि मेरा तुमसे इस हद तक सम्बन्ध भी था। विवाह के पश्चात सब कुछ ठीक हो जायेगा। ''
"दीपक ! … ये तुम … तुम मुझसे कह रहे हो?" किरण के कलेजे में सैकड़ों तीर चल गये। वह आश्चर्य से दीपक का मुँह ताकने लगी। उसे दीपक की इस बात पर विश्वास भी करना कठिन हो गया।
"हां ! लेकिन तुम्हें ये अचानक-से क्या हो गया? क्यों आश्चर्य करती हो इतना? संसार के सारे कार्य ऐसे ही चला करते हैं।" दीपक ने उसे समझाना चाहा।
"इसका मतलब, क्या तुमने मुझे इतना सस्ता और बाजारू समझ रखा है कि अब जहां चाहो, वहीं मेरी कीमत लगाने लगे? दीपक ! मैं तुमको इतना गिरा हुआ नहीं समझती थी, मगर तुम तो …?’'
"किरण ! तुम ही गलत समझ रही हो। सूरज तो तुम्हें बेहद प्यार करता है। वह तुमसे विवाह भी करना चाहता है?" दीपक ने पुन: जोर दिया।
"यही बात तुम मुझसे बहुत पहले भी कह सकते थे। बता सकते हो कि तब तुमने क्यों नहीं कहा था? क्यों सूरज का जिक्र नहीं किया था? वह तो तुमसे मेरी भेंट होने से पूर्व ही मुझको प्यार करता था और अब तुम क्या मुझको उसके लायक समझते हो? प्यार तो मैंने तुमसे किया था। ये जानते हुए भी कि तुम्हारा मित्र भी मेरा उपासक है, मैं आँख बन्द करके तुम पर विश्वास कर बैठी? परन्तु मेरे विश्वास, मेरे प्यार और मेरी सारी हसरतों का तुमने ये सिला मुझको दिया है? एक तो मेरे साथ तुमने फरेब किया। एक शादी-शुदा व्यक्ति होकर मुझसे खेलते रहे। अपनी वासना की हवस मिटाते रहे। मुझे पल-पल पर छलते रहे, परन्तु मैं सब-कुछ इतना फिर भी पचा गयी थी। इस जहर को चुपचाप पी लिया था मैंने। पर मुझे क्या मालूम था कि जिस पुरुष को मैं देवता समझकर पूजती आ रही हूँ, वही सारी जिन्दगी का श्राप बनकर मेरी सारी खुशियों को खा जायेगा। वह मुझे कहीं का भी नहीं छोड़ेगा ? "
"किरण… !”
"मैंने तो सोचा था कि सारी उम्र तुमको फिर भी इसी प्रकार प्यार करती रहूँगी और कभी भी तुम्हारे पारिवारिक जीवन में दखल नहीं करूँगी, परन्तु तुम इस लायक भी नहीं हो ! बेहतर यही है कि तुम भी सूरज के समान सदा के लिए मेरी राहों से दुर चले जाओ… जाओ..... इसी वक्त… अभी…. अभी… कहते-कहते किरण की सिसकियाँ फूट निकलीं। उसकी आँखों में आँसू आ गये। कलेजे में कहीं दर्द उठ आया। दिल में सैकड़ों तीर चुभ गये थे। छाले पड़ गये थे- आँखों से आग निकल रही थी। गले में जैसे किसी ने विष भर दिया था। मुँह पर तमाचे जड़ दिये थे। सैकडों, ताबड़तोड़, एक ही पल में- इस प्रकार कि वह अचानक ही तिलमिला गयी थी।

प्यार के मार्गो पर चलने का सबक उसे दीपक ने उस रूप में दिया था कि जिसकी वह कभी कल्पना भी नहीं कर सकी थी। कभी सोचा भी नहीं था- सोच लेती तो आज शायद वह जिन्दगी के इस दोराहे से भटककर यूँ बदनाम नहीं हुई होती। उसके प्यार की ऐसी दुर्दशा नहीं हुई होती। कहां उसने दीपक के स्वरूप में अपने प्यार का एक रहनुमा देखने का स्वप्न सजाया था, परन्तु बदकिस्मती से उसकी सारी चाहतों और प्यार का यही रहनुमा उसके समस्त जीवन की खुशियों का कातिल साबित हो चुका था। दीपक ने उसके साथ प्यार का खेल इतनी खूबसूरती से खेला था कि वह एक ही दाँव में अपना सब-कुछ हार बैठी थी। हार गयी थी अपनी जिन्दगी- जिन्दगी की सभी खुशियाँ- अपना प्यार- तन-मन-कौमार्य… अपना वह सबकुछ, जिसे सुरक्षित रखकर एक भारतीय नारी अपने पर गर्व करती है।

बस आ गई तो किरण अधमरी-सी होकर उसमें बैठ गयी। कमरे पर आयी तो वहाँ की मनहूस खामोशी ने उसके जख्मों पर और जहर उगल दिया। उस शाम उसने खाना भी नहीं खाया। रात उसने करवटों में ही काट दी। सोचों और विचारों में। आँसुओं और सिसकियों के मध्य। रो-रोकर-वह सारी रात अपने प्यार की बरबादी और साथ ही अपने जीवन की इस भीषण तबाही के बारे में सोच-सोचकर रोती रही।

उसकी हर याद में एक जख्म था- हर जख्म में ढेरों-ढेर पीड़ा। दिल के कोने-कोने में विषाद और मर्म की छाया पड़ गयी थी। गले से निकली हुई प्रत्येक सिसकी में उसके बेवफा प्यार का दर्द उमड़ता था। अपने प्यार की बाजी वह हारी ही नहीं थी, बल्कि उसे बरबाद भी कर चुकी थी। किरण बिस्तर पर पड़े-पड़े रोती थी, और खूब रीती थी- उसके साथ जैसे सारी रात भी अपनी मनहूस खामोशी के साथ अन्धकार के लबादे में धीरे-धीरे सिसक पड़ती थी। वृक्षों और आसपास की छोटी-छोटी प्राकृतिक वनस्पति भी मानो किरण का दु:ख देखकर उदासियों का बुत बन गयी थी। चप्पे-चप्पे में आँसू थे। हर कोना उदास था। सारी बस्ती ही जैसे रो पड़ी थी।

उस रात किरण ने अपने प्रति जी भरके सोचा। भविष्य के लिए विचारा। ये स्वाभाविक ही था। अकेली जिन्दगी में अब उसको स्वयं के अतिरिक्त कोई अन्य उसे अपना महसूस नहीं हो पा रहा था। किरण ने एक-एक करके सबको याद किया। प्लूटो के बारे में सोच-सोचकर वह खूब रोयी- रोयी इसलिए कि प्लूटो ही यदि उसको राह-ए-सफर में यूं रोता-बिलखता हुआ नहीं छोड़ जाता तो क्यों उसको आज़ ये बदनसीब दिन देखना पड़ता। वह क्यों दीपक के चक्कर में पड़ती ? परन्तु शायद कुदरत ने उसके जीवन में आँसू ही लिखे थे। इसी कारण उसने चुपचाप अपने दुखों पर रो लेना ही बेहतर समझा। अपना गम, अपना दर्द उसने किसी से भी कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं समझी। फिर कहती भी किससे? इस भरे संसार में उसका अब बचा ही कौन था, कोई भी तो उसका था नहीं- रिश्ते-नातेदारों ने उसकी पहले ही परवाह नहीं की थी, सो अब क्यों करते? फिर किसी को अब क्या पड़ी थी? क्यों उसका कोई दु:ख पूछने आता?

किरण के कुछेक दिन इसी दुख-दर्द में समाप्त हो गये। काँलेज से उसने फिर छुट्टी ले ली थी। दिन भर वह घर में ही पड़ी रहने लगी। अपनी सुध-बुध ही खो बैठी। समय-असमय खाना खाती। सोने-उठने का कोई समय ही नहीं होता। उसकी इन चार-छ: दिनों में चेहरे की सारी आभा ही उड़ गयी। वह रूठ गयी स्वयं से ही। जिन्दगी उसे एक बोझ लगने लगी। जीवन में कोई आस और आकांक्षा तो अब बची नहीं थी, जिस पर जीवित रहती- ना कोई ऐसी जिम्मेदारी ही उसके कंधों पर थी, जिसके प्रति वह सोचती भी। जो कुछ भी थी, वह स्वयं ही थी। उसे जीना था तो अपने लिए, मरना था तो भी अपने ही लिए। जिन्दगी की हर बात केवल उस तक ही सीमित हो गयी थी।

फिर धीरे-धीरे कई दिन व्यतीत हो गये। कई सप्ताह गुज़र गए। महीना होने को आया तो उसकी छुट्टियाँ समाप्त हो गईं। ऐसी परिस्थिति और इतना दु:ख झेलकर भी वह मरना चाही तो मर नहीं सकी। आत्महत्या करने की कई बार उसने योजना बनायी, मगर एक नारी होकर वह ये साहस भी नहीं जुटा सकी, फलस्वरूप छुट्टियां समाप्त होने पर वह पुन: काँलेज जाने लगी- जाने लगी तो दिन उसका वहां समय कटने लगा। कहते हैं कि जिन्दगी के कटु और कड़वे अतीत कभी भुलाये नहीं जाते हैं। वे अक्सर याद आते ही रहते हैं। यही हाल किरण का भी हुआ। उसके घाव भरे नहीं थे फिर भी समय ने उन पर अपनी पपड़ी अवश्य जमा ली थी। आँखों के आंसू किसी ने पोंछे नहीं थे, मगर वक्त की हवाओं ने उन्हें सुखा अवश्य दिया था। अब वह अपने कड़वे अतीत के बारे में सोचकर रोती नहीं थी। आँसू भी नहीं बहाती थी, मगर तड़प अवश्य जाती थी। परेशान ज़रूर हो जाती थी।

उसकी जिन्दगी इसी प्रकार कटने लगी। एक मशीन के समान, वह सुबह उठती- दिन में काँलेज जाती। शाम को कमरे पर वापस आ जाती। एक मशीनी दिनचर्या-सी उसकी बन गयी। दिन उसके इसी प्रकार कटने लगे। अपना जीवन उसने गुजारने का बहुत प्रयत्न किया था, मगर सफल नहीं हो पायी थी और वह बेबस होकर अपने दिन काटने लगी, जैसे उम्र पूरी कर रही हो !

तभी अचानक उसको वीनस का पत्र प्राप्त हुआ था, साथ ही उसके पिता का पत्र भी संलग्न था। पत्र में वीनस के पिता ने अपने पुत्र से उसके साथ विवाह हेतु गुजारिश की थी; क्योंकि उसके पिता ने भी मरने से पूर्व उसका विवाह वीनस से ही तय किया था। वीनस ने इंजीनियरिग का कोर्स समाप्त कर लिया था, और वह रेलवे में नियुक्त भी हो गया था- एक अच्छे पद पर।

पत्र पढ़कर पहले तो किरण कोई निर्णय नहीं ले सकी। उसने कोई उत्तर भी नहीं दिया, परन्तु जब स्वयं वीनस का पुन: पत्र आया, तो अपने स्वर्गीय पिता की आत्मा की इच्छा पूर्ति हेतु उसने इस विवाह की स्वीकृति दे दी और इस प्रकार वह वीनस से विवाह करके दाम्पत्य-सूत्र में बँध गयी !

इसी बीच वीनस का स्थानांतरण मथुरा हो गया था, क्योंकि मथुरा से थोड़ीदूर दीनापुर एक गाँव था, जिसमें सरकार बांच लाइन का एक रेलवे स्टेशन बनाने जा रही थी। इसी रेलवे स्टेशन के निर्माण हेतु एवं रेलवे लाइन बिछाने के लिए, ये कार्य वीनस के हाथों में सुपुर्द कर दिया गया था .. परन्तु जब वीनस के सामने सूरज की मज़ार एक अड़चन बनकर सामने आ गयी तो वह परेशान हो गया। साथ ही किरण की भी परेशानी बढ़ गयी- इस कदर कि वह टूट गयी। भीतर-ही-भीतर। जैसे किसी ने उसको फिर मार दिया था। किरण के लिए ये आघात था। एक कठोर आघात। दिल पर करारी चोट थी- जिन्दगी के पिछले दो वर्षों के पश्चात सूरज जैसे फिर उससे अपने भूले-बिसरे प्यार का तकाजा करने आ गया था…

. . . .सोचते-सोचते किरण फिर रोने लगी। स्वत: ही उसकी आँखों से आँसू लुढ़क पड़े । दिल में एक टीस-सी उठकर रह गयी। दो वर्ष पहले की एक-एक घटना उसके जहन में चलचित्र के समान आकर चली गयी थी- वह अपने जीवन की पिछली हर याद को यहाँ रो-रोकर दोहरा गयी थी। अतीत की हरेक घटना उसकी नजरों के समक्ष एक याद बनकर आयी थी और जहर बनकर चली भी गयी थी। सूरज एक बार फिर जैसे उससे अपना प्यार वापस माँगने के लिए आ गया था। वही सूरज, जिसको एक दिन उसने ठुकरा दिया था। बुरी तरह लताड़ भी दिया था। जिसके प्यार को उसने स्वीकार नहीं किया था; जैसे आज फिर एक बार अपने प्यार के गीत गा रहा था था- ऐसा गीत-गीतों की वह लय कि जिसके प्रत्येक सुर पर वह तड़प-तड़प जाती थी। बार-बार पछताती थी। पश्चाताप करती थी, मगर फिर भी उसको चैन नहीं था, क्योंकि वह जीते-जी मर गयी थी और सूरज मरकर भी अपने प्यार को अमर कर गया था। ऐसा था उसका प्यार। उसकी पूजा। उसकी आराधना कि जैसा उसने कहा, वैसा ही कर के दिखा भी गया था।

… सूर्य आकाश के बीचों-बीच बडी शान से मुस्कुरा रहा था। आकाश साफ था। खुली धूप पड़ रही थी। किरण अभी तक वैसी ही थी। बिस्तर पर पडी हुई। घर अपनी पूर्व स्थिति में अब तक खुला पड़ा था। किचिन भी अब तक खुली पड़ी थी। बाहर मनुष्यों का शोर-शरावा था- बिलकुल प्रतिदिन के समान ही। हर मनुष्य अपने रोजमर्रा के कार्यों के बीच व्यस्त था।

आज एक लम्बे अरसे के पश्चात किरण का अतीत उसके जीवन की एक कड़वी याद बनकर पुन: प्रस्फुटित हुआ था। उसका वह अतीत, जिस को सुखमय बनाने के लिए उसने प्रत्येक कोशिश की थी। न जाने कितने प्रयत्न किये ये, मगर ये उसके भाग्य का प्रतिफल था कि खुशियाँ उसे मिल न सकी थीं। जीवन में वह सच्चे प्यार की तलाश में भटकती फिरी थी। लुटी थी। छली गयी थी, मगर उसे दिल से चाहनेवाला मिला नहीं था। जो था भी, उसे वह शायद पहचान नहीं सकी थी? उसकी आरजू को कोई महत्त्व नहीं दे पायी थी। सूरज को वह जानबूझकर मृत्यु के मुंह में झोंक आयी थी। इसके साथ ही उसके जीवन के सारे सुख भी जैसे उसके हाथों में आकर दूर सरक गये थे। सूरज को उसने दूर भगाया था जान-बूझकर, मगर वह उसका ऐसा चहेता था कि मरकर भी आज वह उसके बहुत करीब आ गया था। उसके दिल में समा गया था। फिर से प्यार करने के लिए। अपने प्यार की स्मृति को दोहराने के लिए। शायद उसे अपना बनाने के लिए ही!
क्रमश: