तुम दूर चले जाना - भाग 1 Sharovan द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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तुम दूर चले जाना - भाग 1

आवश्यक सूचना-

इस उपन्यास में स्थानों के नाम तो वास्तविक हैं पर इसकी कहानी और पात्र नितांत काल्पनिक हैं.
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प्रथम परिच्छेद
***
'भीख माँगनेवाले की झोली में कोई दया और सहानुभूति के साथ दो पैसे डालता है, तो कोई उसमें छेद भी कर देता है- आपकी खुशियां यदि मेरे मिट जाने में ही सुरक्षित रह सकती हैं, तो फिर अब वही होगा, जो आपने चाहा है- मगर इतना अवश्य ही कहूँगा की चोट मारने के पश्चात तड़पनेवाले का दर्द नहीं पूछा जाता है किरण जी ! केवल उसके झुलसे और तबाह हुए अरमानों की लाश देखकर स्वयं को झूठी तसल्ली देने की एक कोशिश-भर ही की जाती है। उसका अन्तिम अंजाम देखा जाता है। गुजरे हुए दिनों में जब आपकी लालसा होगी, तब आपको इस सूरज के प्यार की बिखरी और उड़ती हुई राख में ना कोई चिंगारी मिलेगी और ना ही कोई शोला ! उस वक्त तक सब कुछ समाप्त हो चुका होगा। मेरा प्यार ! आपकी ताड़नायें … और शायद आपके जीने की ख्वाइश भी… '

- उपन्यास अंश.

***
मथुरा की एक दम तोड़ती हुई संध्या...!

आकाश पर सूर्य की लाली इस प्रकार छिटकी हुई थी कि मानो किसी नयी-नवेली सुहागिन की मांग का सिन्दूर दूर-दूर तक फैल गया हो. हवाओं में हल्की-हल्की ठंडक थी और वातावरण में एक शर्माहट भी. लगता था कि जैसे सारी प्रकृति ही लजा रही हो - दिनभर का थका-थकाया सूर्य का गोला दूर यूक्लैप्टिस के पेड़ो के पीछे छिप रहा था – कभी भी वह अपना मुँह छिपा सकता था।

वातावरण की इस दिन की इस ढलती संध्या को एक युवती अपने मकान की खिड़की से आँखें लगाये बड़ी देर से निहार रही थी. डूबती हुई साँझ के इशारों के साथ-साथ उसकी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी. किरण के दिल में अभी तक अपने पति के आगमन की प्रतीक्षा थी।

वीनस राज मेहता।

एक सुयोग्य व्यक्तित्व – किरण का पति – उसका जीवन-मार्ग – रेलवे की सेवा में इंजीनियर के पद पर कार्यरत था। प्रतिदिन सुबह होते ही वह घर से निकाल जाता और संध्या होते ही वह वापस आ जाता था।

मथुरा से थोड़ा ही दूर लगभग तीस किलोमीटर पर दीनापुर गाँव था, जहां पर भारत सरकार एक छोटा-सा रेलवे स्टेशन बना रही थी- इसी कारण किरण का पति वीनस प्रतिदिन दीनापुर जाता और सारे दिन वहीं कार्य करता, फिर संध्या ढले तक वापस आता था...परंतु आज! आज उसको अत्यधिक देर हो चुकी थी और किरण बड़ी देर से टकटकी लगाये अपने पति के आने की आस में देख रही थी।

सोचों और प्रतीक्षा के इसी उतार-चढ़ाव में शाम बिलकुल डूब गयी। अंधकार बढ़ता करीब आया तो वह चिंतित भी होने लगी। घर में कोई अभी तक संतान भी नहीं थी, जिससे किरण अपना दिल बहला लेती। पिछले वर्ष ही तो उसका विवाह हुआ था। कितनी मुसीबतों और भटकने के पश्चात उसे ऐसे देवतास्वरुप पति के घर में स्थान प्राप्त हुआ था। यह वह खूब अच्छी तरह जानती थी, वरना अपना घर बसाने की चाहत में वह कितनी बार गिरी थी, किसकदर भटकती फिरी थी—प्यार-मुहब्बत के खेल में वह किस प्रकार खोटे सिक्कों में बार-बार अपनी ज़िंदगी हार बैठी थी. दुख और दर्द झेले थे। बेमुरव्वत लोगों से उसकी पहचान हुई थी। यह वह जानती थी, और उसका कोमल नारी मन, तभी ज़िंदगी की एक सीमा तक वह प्रत्येक पुरुष को फरेबी दृष्टि से देखने लगी थी। युवकों से उसे नफरत हो आई थी। सारी उम्र उसने कुँवारी ही रहने का संकल्प कर लिया था, परंतु अपने परिवार और पिता के कहने पर ही वह वीनस के साथ विवाह करने पर सहमत हुई थी। फिर ये उसका भाग्य था कि उसे देवता समान पति मिला था। यहाँ पर वह हर दृष्टिकोण से सुखी थी। घर में आय अच्छी थी। रुपये-पैसों कि कोई कमी नहीं थी। उसके पति को अच्छा वेतन प्रत्येक माह मिलता था...लेकिन फिर भी, वीनस की अनुपस्थिति में किरण अक्सर ही निराश और उदास हो जाती थी.... वह जितनी भी देर के लिए बाहर चला जाता था, उतनी ही देर को किरण भी बेबस हो जाती थी। मायूस। एक मद्धिम ‘किरण’ के समान ही फीकी पढ़ जाती थी।

धीरे धीरे दिन कट जाता...। शाम होती तो वह खिड़की के सहारे आकार खड़ी हो जाती। दीनापुर यहाँ से कोई अधिक दूर नहीं था। वीनस स्कूटर से ही चला जाता था...और शाम ढले जब वह वापस आता तो किरण उसको देखकर फूलों समान खिल उठती थी - प्रसन्नता के कारण।

परंतु आज वीनस को काफी देर हो चुकी थी। शाम जाने कब की रात्री में डूबकर परिणित हो चुकी थी, सारे शहर की विद्दुत बत्तियाँ भी जल चुकी थीं। उसके घर की खिड़की से दिखनेवाली सड़क पर शाम की भीड़ भी अब बढ़कर समाप्त होने लगी थीं...और उसके साथ किरण का दिल भी अब धड़क उठा था। मन में अज्ञात भय की शंका ने अपना ज़ोर दिखाना आरंभ कर दिया था।

फिर जैसे ही दीवार-घड़ी ने रात्रि के घंटे बजाने आरंभ किये तो किरण की तंद्रा भी टूट गयी। उसने चौंक कर पलटते हुए देखा- रात्री के आठ बज चुके थे और वीनस अभी तक नहीं आया था। वह और भी अधिक चिंतित हो गयी। बढ़ती हुई रात्रि के साथ ही पल-पल में उसकी बेचैनी भी तीव्र होने लगी..। निराश होकर वह घर में आ गयी। दरवाजों को बंद किया। खिड़कियों के पर्दे नीचे गिरा दिये। घर की अन्य बत्तियाँ भी जला दीं...और चिंतित-सी बिस्तर पर आकर बैठ गयी। खाना उसने काफी देर का बनाकर तैयार कर लिया था...और वह अब तक ठंडा भी हो चुका था। बैठे-बैठे किरण ने वीनस के लिए सोचा, ‘ना मालूम क्या बात हो? अभी तक नहीं आए? कोई कार्य लग गया होगा? शायद? पर, अब तक तो आ ही जाना चाहिए था उन्हें?’

किरण अभी सोच ही रही थी कि अचानक ही दरवाजे के बाहर स्कूटर के रुकने की आवाज़ आई. ‘शायद आ गये?’ सोचकर वह शीघ्र ही दरवाजे की तरफ दौड़ी. प्रसन्न होकर उसने तुरंत दरवाजा खोला. सामने वीनस खड़ा था। शांत, चेहरे पर हल्की-सी मुस्कुराहट लिए हुए, परंतु थका-थका-सा।

वीनस के आगमन पर उसने दरवाजा पूरा खोल दिया। स्कूटर खड़ा करके वीनस कमरे में अंदर आया, तो किरण को चिंतित-सा पाकर वह कुछ चौंक गया। सोफ़े पर बैठकर उसने किरण को निहारा, तो किरण ने कहा,

“बड़ी देर कर दी, आज तो आपने?”

“हाँ! ऐसे ही एक झंझट पड़ गया था।"

“कैसा झंझट?"

“होगा...आपको तो काम के आगे यहाँ की भी परवाह नहीं रहती है।" किरण ने शिकायत-सी की।

“किरण! इसी का नाम तो नौकरी है, फिर वह केस ही कुछ ऐसा था कि बिना ‘हाइ-अथोर्टीज’ से पूछे बगैर कुछ किया भी तो नहीं जा सकता था।"

कहते हुए वीनस ने बैठे-बैठे अपना कोट उतरना आरंभ किया, तो किरण ने तुरंत आकर उसका कोट उतारने में सहायता की फिर उसे हैंगर में लटकाते हुए बोली,

“फिर भी अंधेरा होने से पूर्व घर आ जाना ठीक रहता है...रात-बिरात यूँ अकेले आना-जाना...? मैं तो सोचकर ही घबरा जाती हूँ।"

“मैं तो वैसे भी जल्दी चलने कि तैयारी कर रहा था, मगर ये केस ही कुछ ऐसा था कि...खैर! अब कोई देर नहीं हुआ करेगी।"

“ठीक है, आप शीघ्र ही हाथ-मुँह धो लीजिए, मैं तब तक खाना गरम करती हूँ।"

कहकर किरण किचिन में घुस गयी। उसको जाते देख वीनस भी बाथरूम में चला गया।

फिर कुछ देर बाद ही दोनों पति-पत्नी खाने की मेज पर बैठे हुए थे। आपस में वे कभी-कभी बात भी कर लेते थे...नहीं तो दोनों ही खाने में व्यस्त थे।

वीनस ने तुरंत भोजन कर लिया और वह हाथ धोने लगा तो किरण उसको देखकर चौंक गयी. आश्चर्य से बोली,

“ये क्या! इतना शीघ्र ही खा लिया?”

“हाँ! कुछ भूख अधिक नहीं थी।"

“आप तो सुबह ही खाकर जाते हैं। दिनभर से क्या भूख ही नहीं लगी है?"

“और तुम जो टिफिन में रोज खाना रख देती हो, वह भी तो मेरे ही पेट में जाता है।"

“उसको तो आप कहते हैं की आपके दोस्त ही हज़म कर जाते हैं?”

“तो आज यही समझो की दोस्तों ने मुझ पर रहम खा लिया था।"

“इसका मतलब?”

“सारे दिन वे सब भी ‘विजी' रहे, इसलिए टिफिन का खाना चलने से पहले ही खाया था।" कहकर वीनस उठ गया। साथ ही किरण ने भी सारे बर्तन समेटे। हाथ धोये और हीटर पर चाय का पानी गरम होने के लिए रख दिया, क्योंकि वीनस खाने के तुरंत बाद चाय अवश्य पीता था।

बर्तन आदि धोकर, और उन्हें यथास्थान कायदे से लगाने के पश्चात उसने चाय बनायी, फिर उसको लेकर वह जैसे ही बेडरूम में वीनस को चाय देने गयी, तो उसे देखकर फिर चकित हो गयी- वीनस बिस्तर पर लेटने के बजाय कुर्सी पर बैठा हुआ कोई फ़ाइल देख रहा था।

किरण ने तुरंत चाय की ट्रे एक ओर स्टूल पर राखी, फिर वीनस के पास आकर शिकायत भरे स्वर में बोली,

“आपने तो हद ही कर दी काम की। ऑफिस में काम तो काम, मगर अब यहाँ घर पर भी चैन नहीं। अब समझी की आपको भूख क्यों नहीं लगी थी?”

“ओफ! किरण, समझने की कोशिश किया करो। ये केस ऐसा आ फंसा है कि बिना तफ़्तीश किये हुए कार्य आगे बढ़ा नहीं सकते हैं, और रेलवे लाइन भी शीघ्र पूर्ण करनी है।"

“तो मैं कब रोकती हूँ, लेकिन अपनी सेहत का भी तो ध्यान रखिए। समझ में नहीं आता है कि ऐसा कौन-सा केस आ पड़ा है कि आपको इस वक़्त भी चैन नहीं है?” इस पर वीनस ने किरण को बताया कि,

“केस क्या है कि जहां से रेलवे लाइन निकली जा रही है, उस स्थान पर, दीनापुर गाँव के बिलकुल पास ही किसी युवक की मज़ार बनी हुई है।“

“मज़ार...।“ किरण अचानक ही चौंक पड़ी।

“हाँ! मज़ार ही...ना मालूम वह किसकी है? उसके ऊपर से रेलवे लाइन निकालने पर कोई आपत्तिजनक स्थिति तो पैदा नहीं होगी। यही सब सोचना और देखना है।" वीनस ने गंभीर होकर ये सब कहा तो किरण कुछ देर को चुप हो गयी।

पहले उसने चाय बनाकर दी, फिर आगे बोली,

“मज़ार पर कुछ नाम व पता तो लिखा ही होगा?”

“वह तो सब है।"

“उससे क्या ज्ञात होता है?” किरण उत्सुक हो गयी।

“उससे तो केवल इतना ही ज्ञात होता है कि वह कोई चौबीस वर्षीय नव-युवक की मज़ार है, जिसने किसी युवती के प्रेम में असफल होकर अत्महत्या कर ली थी और वह दीनापुर गाँव का ही कोई क्रिश्चियन धर्म का लड़का था।"

“उस युवक का नाम क्या था?” किरण ने तुरंत पूछा।

“सूरज।"

‘सूरज...’ किरण माँ-ही-मन यह नाम दोहरा गयी।

“मगर उस पर एक शिलालेख भी लगा हुआ है।" वीनस ने आगे कहा।

“वह क्या है?” किरण ने धड़कते दिल से पूछा।

“उस पर मोटे-मोटे अक्षरों पर लिखा हुआ है कि, "तुम दूर चले जाना!”

‘सूरज’—‘तुम दूर चले जाना’—किरण ने पलभर को सोचा तो वह सोचकर सन्न रह गयी। उसके दिल को एक आघात-सा लगा। दिल को एक बार विश्वास भी करना कठिन हो गया। पलभर में ही उसके मन में सैंकड़ों विचार आये और चले भी गये। वह शंकित हो गयी,...साथ ही भयभीत भी।

उसने फिर सोचा...जी भर के विचारा कि, ‘क्या ऐसा हो गया है? क्या कभी ऐसा संभव भी है? क्या वह किसी के बर्बाद जीवन का कारण बन सकती है? क्या बात यहाँ तक पहुँच चुकी होगी? नहीं! कभी नहीं-भगवान ना करे कि ऐसा हो। वह ‘युवक’ सुरक्षित रहे। उसका जीवन सुरक्षित रहे, वरना, नहीं तो वह मरते दम तक प्रायश्चित नहीं कर सकेगी। उसके मुख की केवल दो-एक दिल तोड़नेवाली बातें ही किसी की बर्बाद हालत का कारण बनें...कोई उसकी वजह से अपना जीवन नष्ट कर ले, ऐसा वह नहीं चाहती है। प्यार करना अलग बात होती है, मगर जिंदगीभर प्यार की यादों को दोहराते रहना एक सजा से बढ़कर और कुछ भी नहीं है।...

वह कभी भी यह नहीं चाहेगी कि केवल उसके कारण किसी की दुनिया नष्ट हो जाये— खुदखुशी कर ले—भगवान कभी भी उसको प्यार-मुहब्बत के खेल का नजराना इस रूप में न दे। कभी भी वह इस मोड़ पर ना पहुँचे कि जहाँ से वह ना आगे जा सके, और ना ही पीछे लौट सके!’

“अरे तुम्हें क्या हो गया यूँ अचानक से?” वीनस ने किरण को गंभीर पाया तो तुरंत टोक दिया।

“कुछ नहीं!” कहकर वह चाय सिप करने लगी।

यह सोचकर भी कि यदि यह बात सत्य निकली, और ऐसा हुआ तो वीनस क्या सोचेगा? उस पर क्या बीतेगी? इसलिए वीनस को यह संदेह ना हो सके...अथवा स्वयं उसको गंभीर देखकर वह अन्यथा ही कुछ और समझने लगे, इससे पूर्व ही वह सारा कुछ पता लगा लेगी। यह सब कुछ मालूम करना बहुत आवश्यक भी है। नहीं तो वह स्वयं को भी कभी समझा नहीं सकेगी।

उस रात किरण एक पल को भी नहीं सो सकी। वह बेचैन रही. सारी रात वह तड़पती रही। एक अजीब-सी कशमकश में ही बनी रही...लगता था कि जैसे सारा शरीर ही टूट रहा हो। पलकें एक मिनट को भी बंद नहीं हो सकी थीं।

फिर जैसी ही सुबह हुई...और भोर की किरण फूट पड़ी, तो उसने शीघ्र ही घर का सारा कार्य समेट लिया...तुरंत चाय-नाश्ता तैयार किया, साथ ही खाना भी बना लिया- ऐसा वह प्रतिदिन ही करती थी, परंतु आज उसने फिर भी जल्दी ही किया था...और जब वीनस चला गया तो वह कुछ निश्चिंत सी हुई, मगर दिल में चोर था। एक भय भी था। इसलिए वह शीघ्र ही इसका समाधान कर लेना चाहती थी।

वीनस के जाते ही वह शीघ्र ही तैयार हो गयी और हाथ में बैग लटकाकर वह दीपक के पास चल दी। बिना दीपक से मिले कुछ भी समाधान नहीं हो सकता था- यह वह अच्छी तरह जानती थी।

फिर जैसे ही वह वृन्दावन में स्थित दीपक के घर पहुँची, तो उसकी बड़ी लड़की तारिका ने उसका स्वागत किया। तारिका को सामने पाकर वह मुस्कुरा दी, इस पर तारिका भी मुसकरा दी- वह हँसकर बोली,

“आंटी आप! आइये?”

“हाँ! मम्मी कहाँ है तुम्हारी?” किरण ने पूछा।

“जी घर पर ही हैं।"

“और डैडी?”

“वे भी घर पर ही हैं।"

“चलो...” ये कहकर वह तुरंत ही घर में प्रविष्ट हो गयी।

किरण को यूँ सुबह-सुबह अचानक-से आया देख दीपक भी एक बार को शंकित हो गया। साथ में उसकी पत्नी चंद्रा भी आश्चर्य करने लगी, मगर किरण ने उन दोनों की चिंतित मुख-मुद्रा को तुरंत ही भाँप लिया, इसलिए शीघ्र ही झूठ का सहारा लेकर बोली,

“आज मुझे हास्पिटल में अपना ‘मेडिकल चैक-अप’ कराना था, इसीलिए आयी थी. फिर सोचा था कि इधर से तो जा ही रही हूँ मैं, फिर क्यों न आप लोगो से भी भेंट करती चलूँ।"

“चलो अच्छा है, इसी प्रकार मुलाक़ात भी हो जाती है।" चंद्रा ने औपचारिकता के साथ उसे बैठने के लिए भी कहा। फिर आगे चंद्रा को देखते हुए किरण ने ही बात आरंभ की। वह बोली,

“और कैसे हाल हैं आप लोगों के?”

“सब ठीक ही है।“

“बच्चे?”

“वे भी तुम्हारी कृपा से सुखी हैं।" चंद्रा ने कहा।

फिर किरण कुछ देर को चुप हो गयी तो चंद्रा को बोलने का अवसर मिला। उसने चुटकी लेकर कहा,

“और तुम्हारे घर कब आ रहा है नन्हा-मुन्ना?”

“...?”

किरण सुनकर लजा गयी...फिर कुछ देर बाद बोली,

“अभी पिछले वर्ष तो विवाह ही हुआ है!”

“तो भाई जल्दी करो। हम तो मिठाई के लिए तरस रहे हैं।"

ये कहकर चंद्रा मुस्कुरा दी। साथ ही किरण भी मुस्कुरा पड़ी।

इसके पश्चात किरण कुछ देर और बैठी। चाय व नाश्ता किया। फिर चलने लगी।

इतने में दीपक भी अंदर से आ गया- किरण उसको देखकर गंभीर हो गयी।

दीपक भी उसे देखकर मौन बना रहा। दोनों में से कोई भी कुछ नहीं बोला। किरण तो चलने को तयार थी ही और दीपक भी अपनी ड्यूटी पर जाने को था- ऐसी स्थिति को देखकर चंद्रा ने अपने पति से कहा,

“सुनिये!”

“...?” दीपक ने उसे खामोशी से देखा।

“आप तो उधर जा ही रहे हैं। इसलिए उधर से किरण को भी बस में बैठा देना- एक से दो रहते हैं, तो ठीक ही रहता है।“

“॥?”

दीपक इस पर कुछ भी नहीं बोला। उसकी मौनता ही स्वीकृति बन गयी थी।

और जब दीपक, किरण के साथ चंद्रा से विदा लेकर जैसे ही बाहर सड़क पर आया तथा दोनों को कुछ एकांत मिला, तो उसने किरण से तुरंत पूछा कि,

“आज मेरे घर की तरफ कैसे आ गयीं तुम?”

“कोई कारण जुड़ गया है इसलिए।" किरण गंभीर होकर बोली।

“क्या मैं जान सकता हूँ?”

“तुम्हारा जानना भी बहुत आवश्यक है।"

“क्या?”

“एक बात बताओगे तुम मुझे?” किरण ने संदिग्ध होकर कहा।

“कैसी बात?”

“सूरज कहाँ का रहनेवाला था?” किरण ने गंभीर होकर सीधे-सीधे पूछा, तो दीपक भी गंभीर हो गया। उसने कुछेक पल मौन होकर किरण को निहारा-एक भेदभरी दृष्टि से, फिर आश्चर्य से बोला,

“ये आज वर्षों पश्चात तुम्हें अचानक-से सूरज की याद कैसे आ गयी?”

“ये मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है!” किरण और भी अधिक गंभीर हो गयी।

इस पर दीपक भी खामोश हो गया। थोड़ी देर को वह सोचता रहा, फिर जैसे उदास होकर बोला,

“ठीक है। तुम सूरज के लिए पूछ रही हो, मगर वह तो...?” कहते-कहते दीपक रुक गया।

“क्या?”

“उसकी तो दो वर्ष पूर्व ही दुःखद मृत्यु हो चुकी है!”

“ओह!”

किरण के दिल में एक टीस उठकर ही रह गयी। फिर भी उसने पूर्णजानकारी ले लेना उचित समझा। अपने दिल के दर्द को दबाते हुए उसने आगे पूछा,

“लेकिन वह कहाँ का रहनेवाला था?”

“मथुरा के पास ही में एक गाँव है- दीनापुर।"

किरण की छाती पर जैसे बम फूट गया। उसके पैर काँप गये। हाथ-पैर सुन्न पड़ गये। शरीर का जैसे सारा रक्त ही जम गया था। पलभर में ही उसके मस्तिष्क में जैसे हथौड़े बजने लगे थे- मानो कोई पत्थर तोड़ने लगा हो। क्षणभर में ही उसकी आँखों में आँसू झलक आये। आँसुओं की कुछेक बूँदें गालों से ढुलककर नीचे गिर पड़ीं, तो वह रो पड़ी- अंदर-ही-अंदर तड़प-सी गयी।

दीपक ने उसको इस मुद्रा में देखा तो चौंक गया। वह बोला,

“किरण! ये क्या?”

“कुछ नहीं!” कहते हुए उसने शीघ्र ही साड़ी के पल्लू से अपने आँसू पोंछे— मुंह साफ किया— फिर दीपक को देखा। कुछ देर तक वह मौन बनी रही, गुमसुम-सी . . .तब अंत में बोली,

“मैं यही सबकुछ जान लेने और पूछने आयी थी। अब मैं चलती हूँ।"

ये कहकर किरण चल दी, तो दीपक ने उसे रोकते हुए कहा,

“चलो मैं छोड़ दूँ तुम्हें! अकेली कैसे जाओगी?”

“अब इसकी आवश्यकता नहीं है। तुम शायद भूल गये हो कि मैं अब किरण नहीं, बल्कि किरण वीनस मेहता हूँ...और ये अधिकार केवल मेरे पति को है।"

तक दीपक उसे रोक नहीं सका। वह उसे ठगा-ठगा-सा जाते हुए देखता ही रह गया- मौन- गंभीर—किंकर्तव्यविमूढ़-सा।

घर आकर किरण बिस्तर पर गिर पड़ी। गिर पड़ी तो वह फूट-फूटकर रो भी पड़ी। बड़ी देर तक आँसू बहाती रही। सुबक-सुबककर अपने दिल की सारी पीड़ा को बहाने लगी। अनजाने में जाने क्या-से-क्या हो गया था? उसकी स्पष्टवादिता ने किसी निर्दोष की जान ले ली थी। सारी ज़िंदगी वह प्यार की तलाश में इधर-से-उधर भटकती फिरी थी। खो गयी थी। सच्चे प्यार की चाह में वह स्वयं भटक गयी, मगर उसको दिल से चाहने-वाला प्राप्त नहीं हो सका था— ऐसी उसकी धारणा थी— परंतु उसे क्या ज्ञात था कि उसकी धारणा गलत भी हो सकती है। कोई उसको इतना अधिक भी प्यार करता करता होगा? इस कदर चाहता रहा...! उस पर मरता रहा और वह उस युवक की कोई कद्र भी नहीं कर सकी। सदैव उसकी अवहेलना ही करती रही। कल तक जिसकी वह नाकद्री करती रही, वही महत्वपूर्ण साबित हो चुका था। जिसको उसने ठुकराया, उसी ने उसके पैर पूजे— उसको चाहा— देवी समझकर उसकी आराधना करता रहा- एक उपासना की— और वह इतनी गिरी हुई निकली कि वह उसका क्षणभर को दिल भी नहीं रख सकी? उसे तिरस्कृत कर बैठी— झिड़क दिया— इतनी बुरी तरह कि***वह आत्महत्या कर बैठा— पलभर को भी वह उसको समझ नहीं पायी। उसका मन नहीं रख सकी। प्यार करना तो दूर बल्कि अपने व्यक्तित्व का वह जहर उसे पिला दिया कि वह समय से पूर्व ही इस दुनिया-जहान से कूच कर गया. . .? रोते-रोते किरण ने इतना सोचा-विचारा तो वह और भी अधिक बिलख पड़ी। बिस्तर पर पड़े-पड़े वह फूट-फूटकर रोटी ही रही।

आज एक लंबे अरसे के बाद कितना बड़ा परिवर्तन अचानक से उसके समक्ष आ गया था। अतीत की हर जी हुई याद फिर नया जन्म लेने के लिए आतुर हो गयी थी। उसकी ज़िंदगी के वे पिछले दिन. . ., वे ढेरों-ढेर बातें- यादें— वे सुंदर और बहुमूल्य क्षण— जिन्हें कभी वह अपने स्वार्थवश केवल स्वयं के लिए ही उपयोग करती रही थी। कुछेक को सदा के छोड़ आयी थी- कुछेक धिक्कार भी दी थीं, वे सब-की-सब अचानक-से उससे प्रश्नों की बौछार कर बैठेंगी? ऐसा तो उसने कभी भी नहीं सोचा था। कभी स्वप्न में कल्पना तक नहीं की थी। प्यार की बातें करके वह भूल भी चुकी थी, मगर इन रास्तों पर चलकर उसने जिसे झुकाना चाहा, जिसको दिल से निकाल दिया, वही आज उससे सारी ज़िंदगी का जैसे हिसाब करने आ गया था। उससे अपने ऋण का तकाजा कर बैठा था। किसी को क्या ज्ञात था कि कल के दिनों में उसके पीछे-पीछे भागनेवाला उसका सूरज— उसका दीवाना— एक दिन निराश होकर चला जाएगा। उसके स्वयं के जीवन से बहुत दूर, परंतु जाते-जाते अपने प्यार की वह वसीयत भी कर जाएगा कि जिसको वह चाहेगी, मगर स्वीकार नहीं कर सकेगी— रोएगी— सिर पीटेगी—उसका शोक मनाएगी, परंतु अपने इस दुख का बखान वह कहीं भी नहीं कर सकेगी। ‘सूरज’ को प्यार करेगी। उसकी एक ‘किरण’ बनकर ही, परंतु फिर भी उसके साथ नहीं रह पाएगी। शायद यही उसकी सज़ा होगी? यही पश्चाताप भी— कि वह सारी उम्र किसी के लिए तरसेगी। ‘सूरज’ की अनुपस्थिति के वियोग में हर पल फीकी पड़ती रहेगी, खुश नहीं रह सकेगी। अपनी किरणों के द्वारा दूसरों को प्रकाश देगी और स्वयं उसके जीवन में अंधकार भरा रहेगा। किरण बिस्तर पर लेटी-लेटी सोचती थी— रोती थी—तड़पती थी— और बस तड़पती थी।

आज उसे जीवन में पहली बार ज्ञात हुआ था— प्यार— प्यार का अर्थ— किसी की जुदाई का गम! सही मूल्यों में वह आज पहली बार प्यार की असली वास्तविकता समझ सकी थी। अपने दिल की चाहत का सदमा आज ही उसको लगा था। दिल की सारी हसरतों का निचोड़ जो मिल गया था। इस प्रकार कि, अपनी एक छोटी-सी भूल, एक लापरवाही के कारण वह अपने वास्तविक प्यार के हकदार की कातिल बन चुकी थी। एक ज़िंदगी के बर्बाद होने का सारा दोष उसके माथे पर एक कलंक बनकर लग चुका था, क्योंकि अपने ‘सूरज’ की एक ‘किरण’ होकर भी उसके मुख पर कालिख जो लग चुकी थी।

किरण बड़ी देर तक रोती रही। बिस्तर पर पड़ी-पड़ी आँसू बहाती रही। उसके आंसुओं से चादर भी भीग चुकी थी। चेहरा सूज आया था। आँखें आँसू बहा-बहाकर लाल पड़ चुकी थीं। सिर के बाल बिखरकर फैल चुके थे। सूरज का वह शोक मना रही थी। उसे बार-बार याद कर रही थी, परंतु इतना करने पर भी उसे तसल्ली नहीं प्राप्त हो रही थी। इस समय उसे किसी भी बात की फिक्र नहीं थी। कहीं का भी होश नहीं था। सारा घर खुला पड़ा था। किचिन में सभी बर्तन पड़े थे, ठीक उसी दशा में जैसे कि वह उन्हें छोड़कर दीपक के पास चली गयी थी। बार-बार उसे सूरज का खयाल आ रहा था। उसकी स्मृतियों में वह हर पल कैद हो जाती थी। अतीत कि हर याद उसके सामने आ रही थी...ऐसे में उसने अपनी बीती हुई स्मृतियों को फिर दोहराया......आज से करीब दो ढाई वर्ष पूर्व का समय . . ., वह दिन ...वे बातें जो आज भूतकाल का एक दर्द बनकर प्रस्फुटित हुई थीं, उन्हें वह फिर से याद कर लेना चाहती थी। उसने सोचा— ऐसा ही कोई दिन था...

आज के समान ही . . . . .'

शेष अगले अंक में...