ये मेरे पैरेंट्स के स्कूल फ्रेंड्स थे. जो कभी हमारे पड़ोसी हुआ करते थे. इनफैक्ट उनकी एक बेटी भी थी जो अक्सर मेरे साथ खेलने हमारे घर आया करती थी. तब मैं शायद 5..6 साल की थी. काफी याद करने पर भी मुझे उसका नाम याद नहीं आया. मगर एक दिन अचानक वो न जाने कहाँ गायब हो गयी. फिर उसे किसी ने नहीं देखा. उसके कुछ ही वक्त बाद वो शहर छोड़ कर चले गए थे. मुझे भी नहीं मालूम था वो यहां कुपवाड़ा में आ बसे हैं. अच्छी बात ये थी कि जब सारे नाते रिश्तेदारों ने हमसे मुंह मोड़ लिया था तब एक वही थे जो मुझे और मेरे भाई को अपने साथ रखने को तैयार थे.
आशीष को मैंने समझा दिया था कि मां पापा कहीं दूर चले गए हैं इसलिए हमें कुछ दिन के लिए नए घर में अंकल आंटी के साथ रहना पड़ेगा. दिन ढल चुका था और शाम होते होते हम कश्मीर के कुपवाड़ा रीजन में पहुंच चुके थे. गाड़ी सीधे कावोलकी हाउस के सामने जाकर रुकी. मैंने गौर से इस घर को देखा. चारों तरफ फैली धुंध के बीच वो हवेली नुमा घर बेहद अजीब और डरावना से लग रहा था. बाहर से देख कर कोई नही कह सकता था कि इस घर में कोई रह भी सकता है. ताज्जुब है अंकल कोवालकी ऐसे घर में रहते हैं?
हम सब गाड़ी से बाहर निकल कर घर को देख रहे थे. अंधेरे और धुंध ने इस घर को जरूरत से ज्यादा ग्रे शेड दे दिया था. वातावरण में हड्डियों को कंपा देने वाली ठंढक थी. हमारे साथ जो पुलिस ऑफिसर आया था उसने कॉल कर मिस्टर कोवालकी को हमारे आने के बारे में इन्फॉर्म किया. और लगभग 5 मिनट के इंतजार के बाद दो लोग हाथ मे रोशनी लिए उस हवेली नुमा घर से बाहर आये.
हल्के अंधेरे के कारण हालांकि उनके चेहरे बहुत ज्यादा क्लियर नहीं थे. मगर उनकी उम्र और पहनावे से ही साफ पता लग रहा था कि वही मिस्टर एंड मिसेज कोवालकी हैं.
इससे पहले कि मैं कुछ रिएक्ट करती मिसेज कोवालकी तेजी से आगे बढ़ीं और मुझे और आशीष दोनों को गले से लगा लिया.
मिसेज कोवालकी - आमी तोमाके माशी मां होते हाबे... सुनयना माशी. तुमि दुइ जने केतो बायसा हायछे ... कम ..कम..कम इनसाइड.
उनकी आवाज में खुशी साफ साफ झलक रही थी. अंकल कोवालकी ऑफिसर्स के साथ कुछ फॉर्मेलिटीज पूरी करने और हमारा लगेज लेने के बाद हमारे साथ अंदर की तरफ आ गए. घर से निकलने से पहले मैंने सारी जरूरत की चीजें, मां के गहने, कैश , कपड़े वगैरह संभाल कर अपने पास रख लिए थे.
चलते हुए आशीष को जरा सी ठोकर लगी. मैंने झट से उसे संभाला और उस का हाथ पकड़ कर चलने लगी.
कोवालकी (पीछे से आते हुए) - बी केयरफुल... यहां अक्सर लाइट की प्रॉब्लम रहती है.
मैंने मुस्कुरा कर सहमति में अपना सिर हिला दिया. घर का मेन गेट बहुत ही बड़ा और ऊंचा था. जिसपर एक बड़ा सा नेम प्लेट लगा था 'कोवालकी हाउस'.
मैने एक नजर उसपर डाली और सुनयना मासी के पीछे अंदर की तरफ बढ़ गयी. वो रोशनी दिखाती हुई आगे आगे चल रही थी. अंदर काफी बड़ा गार्डेन था. उसे पार करते हुए हम घर के अंदर पहुंचे. अंदर से घर काफी साफ सुथरा और बड़ा था. मैंने एक नजर हॉल पर डाली. ये इतना भी बुरा नहीं था. सुनयना मासी ने अपने साथ लायी मोमबत्ती को स्टैंड में लगा दिया. कमरे में पर्याप्त रोशनी थी.
"आपकी एक बेटी थी न? वो कहीं नहीं दिख रही?" मैंने इधर उधर देखते हुए पूछा.
मैंने देखा मेरे इस सवाल पर जहां सुनयना मासी का चेहरा मुरझा गया वहीं अंकल कोवालकी का चेहरा एक पल को बेहद सख्त हो गया था. मगर उन्होंने तुरंत चेहरे पर एक स्माइल लाते हुए कहा.
- फिलहाल वो यहां नहीं है. तुम दोनों इतने लंबे सफर से आये हो. आज यहीं आराम करो. कल सुबह मैं तुम दोनों के कमरे तैयार करवा दूंगा.
सुनयना (प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए) - मैं खाना लगाती हूँ.
खाना खाने के बाद उन्होंने एक कमरे में हमारा बिस्तर लगा दिया था. वैसे भी पहले दिन मैं आशीष को अनजान जगह पर अकेले नहीं छोड़ना चाहती थी. घर से यहां तक आने के दौरान आशीष ने न तो मुझसे और न ही किसी और से बात की थी. मैंने कोशिश भी की थी मगर उसने मुझे पूरी तरह इग्नोर कर दिया.
सोने से पहले मैंने आशीष को प्यार से अपने पास बिठाया और उससे पूछा,
"आशु क्या हुआ ? अपनी दी से नाराज हो?"
आशीष (मेरा हाथ झटकते हुए) - हाँ ...
"क्यों?" मैंने हैरानी से पूछा.
आशीष (गुस्से में) - आपने मुझसे झूठ क्यों बोला कि मां पापा कहीं चले गए हैं? जबकि वो तो मर चुके हैं.
मैं हैरानी से उसका मुंह देखती रह गयी.
"तुम्हें ऐसा किसने कहा?"
आशीष - लिया दी ने. उन्होंने ने ही बताया अब माँ पापा कभी वापस नहीं आएंगे.
कहते हुए उसकी आँखों में आंसू आ गए. मैंने जल्दी से उसे आगे बढ़कर गले से लगा लिया. जाने से पहले लिया मुझसे मिलने आई थी. उसे मेरा वहां से जाना अच्छा नहीं लगा था. मगर उसने मुझे रोका भी नहीं. न मैंने और न ही उसने मुझसे ज्यादा कुछ कहा. बस उसने मुझे गले से लगाकर इतना ही कहा , हिम्मत मत हारना बहुत जल्दी सब ठीक हो जायेगा. उसकी आँखों में एक भी आंसू नहीं था. न ही चेहरे पर कोई भाव थे. कभी कभी लिया मुझे बेहद कठोर और पत्थर दिल लगती थी. उसे हर बात सीधे और साफ शब्दों में करने की आदत थी. भावनाओं के लिए शायद उसकी जिंदगी में कोई जगह नहीं थी. मगर कम से कम उसे आशीष को वो सब नहीं बताना चाहिए था.
मैंने सोने से पहले उसे एक कॉल करने की सोच कर अपना फोन निकाला. मगर बैटरी डेड हो चुकी थी. आशीष अब तक सो चुका था. मैंने भी आंखें बंद कर ली और सोने की कोशिश करने लगी.
रात को अचानक कुछ खटपट की आवाज से मेरी नींद खुली और मैं उठकर बैठ गयी. मैं कमरे से बाहर आई और इधर उधर नजर दौड़ाई तो बाहर गलियारे से एक परछाई सी निकलती महसूस हुई.
"कौन है वहां?" मगर जवाब देने के बजाय वो साया फुर्ती से एक कमरे में घुस गया. मैं भी उस तरफ बढ़ी मगर रास्तों और कमरों से अनजान होने के कारण मुझे समझ ही नहीं आ रहा था किस तरफ जाऊं. उसपर से वहां लाइट भी बेहद मद्धम थी. सो मुझे कुछ भी ठीक से दिख नहीं रहा था. एक हल्की सी फुसफुसाती हुई आवाज वहां गूंजी.
- अवनी....
मैं हड़बड़ा कर अपने चारों तरफ देखने लगी.
-अवनी .... एक बार फिर से आवाज आई. इस बार शायद मेरे ठीक पीछे से.
घबरा कर मैंने पीछे देखा मेरे पीछे एक छोटी सी बच्ची खड़ी थी. उसके लंबे बाल कमर तक आ रहे थे. उसने सिर उठाकर मुझे देखा. उसकी आंखें सुर्ख लाल थी और चेहरा सफेद.
-धप्पा..!!
कहते हुए उसने मेरे सीने पर अपने बर्फ जैसे ठंडे हाथ रख दिये.
To be continued...