दतिया की बुंदेला क्षत्राणी रानी सीता जू - 10 Ravi Thakur द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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दतिया की बुंदेला क्षत्राणी रानी सीता जू - 10

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इंद्रजीत के राज्याभिषेक के अवसर पर, रामसिंह के सौतेले भाई रघुनाथ सिंह ने मुगल दरबार में दतिया की गद्दी पर अपना दावा प्रस्तुत किया, किंतु एक बार फिर, ओरछा महाराज के हस्तक्षेप से राज्य निष्कंटक हुआ। रघुनाथ सिंह को नदीगांव की जागीर से ही संतुष्ट होना पड़ा।
मराठों ने पूर्व में जो 'कर' दतिया राज्य से मांगा था और न मिलने पर पीला जी ने दतिया पर आक्रमण करके जो क्षति उठाई थी, उससे पेशवा बहुत नाराज था। फलस्वरूप 1738 में पेशवा बाजीराव प्रथम ने सेना सहित सीधे दतिया का घेराव किया तथा नाबालिग राजा एवं विधवा रानी से चार लाख वसूल कर ही वापस गया। आताताई मराठों की दतिया में यह रंगदारी- लूटपाट - चौथ वसूली यहीं समाप्त नहीं हुई, वरन् 1738 से 1804 तक, निरंतर 66 वर्षों तक, झांसी, विठूर, सागर, इंदौर तथा ग्वालियर के मराठों ने दतिया पर बार- बार आक्रमण किये। बार-बार दतिया नगर एवं ग्रामों में लूटपाट की। राज्य के कई पारंपरिक क्षेत्र, गढ़ीं-किले छीने। चौथ वसूली और सैकड़ों-हजारों हत्याएं कीं। अंग्रेजों के आने तथा बुंदेली रियासतों से अंग्रेजी संधि के पश्चात ही मराठों के आतंक पर रोक लगी। देखा जाए तो दतिया राज्य को सबसे ज्यादा मराठों ने ही लूटा और सताया।
मराठा क्षत्रप शिवाजी तथा उनके पुत्रों के सलाहकार-सहयोगी रहे खंडोवल्लाल खैर (कायस्थ) का पुत्र गोविंद बल्लाल खेर जब सागर का सूबेदार बना, तो उसके निर्देशों पर झांसी के मराठा सरदार नारोशंकर ने 1742 में ओरछा तथा दतिया राज्य पर आक्रमण कर, दोनों राज्यों के बहुत सारे भूभाग पर कब्जा कर लिया।
दतिया राज्य के उन्नाव, भांडेर, दबोह, करैरा, दिनारा, एरच, अम्बाबाय क्षेत्रों पर मराठों का कब्जा होने के बाद, रानी सीता जू ने एक भावपूर्ण पत्र लिखकर, विधवा और बेसहारा रानी के रूप में उन्नाव मंदिर पर, नारोशंकर से भेंट की। सीता जू के संघर्ष की सारी तफसील जानकर नारोशंकर ने उन्हें अपनी बहन मान लिया। फिर भी झांसी-करेरा मार्ग के तमाम गांव, इटावा, पनवाड़ी राठ, एवं अम्बाबाय क्षेत्र अपने कब्जे में ही रखे। जबकि दिनारा, करैरा, एरच, दबोह, उनाव तथा भांडेर का कब्जा छोड़ दिया, मगर सागर सूबेदार का हवाला देते हुए नारोशंकर ने सीता जू से नगद 4 लाख, 1हजार रुपये भी वसूले।
इस समय तक, राव रामचंद्र के बाद, दतिया की सैन्य शक्ति भी छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। राजा अवयस्क था। यही कारण था कि कोई भी दतिया को आंख दिखा सकता था।
महाराजा छत्रसाल द्वारा गोद लिए मराठों के कारण बुंंदेला राजाओं में भी आपसी फूट पड़ चुकी थी । इन हालात से शह पाकर 1743 में मालवा के मुगल सूबेदार आजम उल्लाह खाँ ने भी दतिया पर आक्रमण कर दिया। पिछले 100 वर्षों में दतिया पर मुगलों का यह दूसरा आक्रमण था।
सीता जू द्वारा सल्तनत से पुराने संबंधों की दुहाई देने पर, आजम उल्ला 7 लाख रुपये वसूल, करैरा दुर्ग को अपने कब्जे में रख, सैय्यद अब्दुल फरह को किलेदार बना कर करेरा में बैठाया और वापस लौट गया।
दरअसल, राव रामचंद्र के देहांत के बाद ऐसी आपाधापी मची, कि मुगल सल्तनत की नाराजगी या सहमति की तरफ ध्यान देने का, सीता जू को समय ही नहीं मिला। कोई ऐसा कद्दावर सरदार भी साथ नहीं था, जिसे मुगल दरबार भेजा जाता। रघुनाथ सिंह को मुगल समर्थन था, किंतु वे राजा बन नहीं पाये। फिर, इंद्रजीत ने भी राजा बनने से अब तक हाजिरी नहीं लगाई । इसीलिए हालात से अनभिज्ञ मुगल दरबार दतिया से असंतुष्ट था। और आजमउल्ला ने इसी का फायदा उठाया।
इन्द्रजीत का प्रथम विवाह 1744 में सिरोल के धँधेरा किलेदार की पुत्री चित्र कुँवरि से हुआ। बाद में इन्द्रजीत ने दो अन्य शादियाँ भी कीं।
दतिया राज्य की जरूरतों के चलते अब तक सीता जू को सेवढ़ा खटकने लगा था। रानी ने इन्द्रजीत के साथ समथर वाले देवीसिंह गुर्जर की अगुवाई में एक सेना भेज कर उन्होंने सेवढ़ा पर कब्जा कर लिया। यह इन्द्रजीत की पहली सफलता थी।
तब तक सेवढ़ा में अपने पुत्र बहादुर जू को शासन की जिम्मेवारी सौंप कर, भक्ति और साहित्य सेवा में लीन पृथ्वीसिंह रसनिधि को, सेवढ़ा विजय के बाद, दतिया ले आया गया, जबकि बहादुर जू भाग कर झांसी में नारोशंकर की शरण में पहुँच गये। बहादुर जू बहुत पहले से ही मराठों के सम्पर्क में थे, फिर भी नारोशंकर ने उनकी कोई मदद नहीं की। जब झांसी में सुनवाई नहीं हुई तो बहादुर जू, सीधे ही पेशवा की सेवा में पहुंच गये। लेकिन पेशवा ने भी उनके साथ छल ही किया। भविष्य में पृथ्वीसिंह की मृत्यु के पश्चात बहादुर जू को मान्यता देने के लिए, पेशवा ने बहादुर जू से टीका/नजराना के रूप में पहले ही 75000 रुपये तो वसूल लिए, किंतु सेवढ़ा को नारोशंकर के अधिकार में दे दिया। इसके पूर्व भी बहादुर जू से 1735 एवं 1737 में पेशवा ने 'कर' के नाम पर, बाजी भीमराव के माध्यम से दो किश्तों में 75000₹ वसूले थे। लेकिन इस सबके बावजूद नारोशंकर ने सेवढ़ा के संदर्भ में कुछ नहीं किया।
सेवढ़ा विजय के उपलक्ष्य में, सीता जू ने देवीसिंह को समथर के निकट 5 गाँव इनाम में दिये और नारोशंकर की ढील का फायदा उठाते हुए, सेवढ़ा पर कब्जा बनाए रखा।
पेशवा द्वारा दबाव बनाने पर नारोशन्कर ने एक दस्ता भेज कर सेवढ़ा पर सीधे मराठों का कब्जा करवा दिया। लेकिन कुछ ही समय बाद 1745 में ही इंद्रजीत की रानी चित्रकुँवर ने शत्रुजीत को जन्म दिया, जिसके पश्चात, मुगल दरबार से मदद मांग कर, सीता जू द्वारा सेवढ़ा पर दोबारा कब्जा कर लिया गया।
इस अभियान में मुगल सेना के अलावा, देवीसिंह गुर्जर के साथ इंद्रजीत भी शामिल रहे। सीता जू द्वारा रोहिल्ला सरदार अकबर खाँ को सेवड़ा तथा देवीसिंह को समथर का किलेदार नियुक्त कर दिया गया। छोटी सी टुकड़ी के स्थान पर, सेवढ़ा में रुहेलों-गुर्जरों की एक सशक्त सेना तैनात हुई।
सेवढ़ा पर सीता जू द्वारा पुनः कब्जा कर लेने की खबरें पाकर पेशवा बहुत नाराज हुआ। 1746 के आरंभ में पेशवा ने पीला जी जाधव को दतिया से 14 लाख का 'कर' वसूलने भेज दिया। इस समय तक रानी सीता जू पर्याप्त सैन्य शक्ति संचित कर चुकी थीं। दतिया की सेना ने 18 वर्षीय इंद्रजीत के नायकत्व में, पीला जी जाधव को मुंहतोड़ जवाब दिया। चितुवाँ के जंगली मैदान में हुए इस युद्ध में, पीला जी का भतीजा खाण्डेराव मारा गया। इंद्रजीत उसका सिर काट कर पड़ाव में ले आये। खांडेराव के मरते ही, मराठा सैनिक भाग खड़े हुए। आखिरकार, भतीजे का शव प्राप्त करने के लिए, पीला जी को इंद्रजीत से संधि कर के, पीछे लौट जाना पड़ा। तभी से दतिया में यह कहावत प्रचलित है, "दतिया की डाँग में खैर बबूल, पीला जी ढूंढे भतीजे कौ मूल (मूँड़) ।
सीता जू की दीदादिलेरी से असंतुष्ट एवं पीला जी के भतीजे की मौत से क्रुद्ध मराठों ने, दतिया राज्य की चारों सीमाओं पर, ताबड़तोड़ आक्रमण करने के साथ ही, चौतरफा गांवों में भारी लूटपाट शुरू कर दी। 1747 में मराठा सरदार जयप्पा सिंधिया, मल्हार राव होल्कर, विट्ठल शिवराव भाऊ तथा नारोशंकर ने, सम्मिलित रूप से आक्रमण कर, दतिया राज्य के विभिन्न क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया। इनमें उन्नाव के पहूज तक का क्षेत्र, अम्बाबाय क्षेत्र दिनारा क्षेत्र, करेरा क्षेत्र, तथा रेव-रायपुर से धूमेश्वर तक का क्षेत्र मराठों के कब्जे में आ गये। इसी समय, मुगलों द्वारा करेरा पर नियुक्त, किलेदार सैयद परिवार, मराठों के निरंतर हमलों से घबराकर रानी सीता जू की शरण में दतिया आ गया। सीता जू ने बुजुर्ग नवाब सैयद के पौत्र को, इंद्रजीत का पगड़ी बदल भाई बनाकर, दतिया में अलग-अलग स्थानों पर उनके जीवन यापन के लिए जमीनें लगाने के साथ साथ एक हवेली भी उनके आवास के लिए सौंप दी। तब से अब तक इस सैय्यद परिवार तथा दतिया राजवंश के शोर-सूतक के नाते बने हुए हैं।
1747 से 1748 के मध्य दतिया राज्य के पूर्ववर्ती क्षेत्रों को बचाने के लिए, सीता जू ने एक बार फिर नारोशंकर को माध्यम बनाया। पत्र व्यवहार करके, उसे, उसके वचन तथा भाई-बहन के रिश्तों की दुहाई दी। नारूशंकर की मध्यस्थता से, आखिरकार, पेशवा के प्रतिनिधियों के रूप में, होल्कर तथा सिंधिया की उपस्थिति में, कौलनामा हुआ। इस कौलनामे के अनुसार एरच तथा करेरा, दुर्ग सहित इंद्रजीत के अधिपत्य में रहे। दतिया-करेरा तथा दतिया-ओरछा के मध्य स्थित गांवों का बंटवारा, क्रमशः 1/3 तथा 2/3 के अनुपात से हुआ। जो भाग पेशवा के हिस्से में आये उन्हें झांसी में शामिल किया गया। दतिया राज्य पर पूर्व निश्चित, नियमित 'कर' के अतिरिक्त एरच एवं करैरा पर भी अलग से कर लगाया गया। इस प्रकार, यह बड़ा संकट भी रानी सीता जू के ही कारण दतिया के सिर से टला। 'कर' वसूलने के लिए दो मराठा ब्राह्मण, रंगोजी पंत एवं रामोजी पंत स्थाई रूप से दतिया रहने लगे।
इसी बीच मराठों की शह पाकर, बहादुर जू ने भी सेवढ़ा पर कब्जा कर लिया। मराठों की ताजा ताजा संधि के दबाव में, इंद्रजीत ने तत्काल ही सेवड़ा पर कोई कार्यवाही नहीं की। संयुक्त मराठा सरदारों की शक्ति के आगे दतिया बेवश था।
मराठों के इस संयुक्त हमले के साथ ही बुंदेलखंड में मराठों की आक्रामक हलचलें एक बार फिर आरंभ हो गईं। 1748 से 1749 के मध्य समूचा बुंदेलखंड मराठों के हमलों और लूटपाट से त्राहि-त्राहि कर उठा। 1748-49 के बाद अगले 8 वर्षों तक दतिया राज्य पर कोई हमला नहीं हुआ। रानी सीता जू राज्य प्रबंध एवं विकास कार्यों में व्यस्त रहीं , वहीं इंद्रजीत भी राज्य सुरक्षा तथा सैन्य शक्ति वृद्धि में रत रहे।
मराठों और तथा मुगलों का ध्यान, इस समय दिल्ली की ओर देखकर 1756 में, एक बार फिर, जाट सरदार बदनसिंह ने अपनी पुरानी हार का बदला लेने के लिए, दतिया राज्य के 84 गांव क्षेत्र (वर्तमान इंदरगढ़) पर आक्रमण कर, कब्जा कर लिया। बदनसिंह की सेना बड़ी होने की खबर पाकर, रानी सीता जू की योजना के अनुसार, उनकी व्यक्तिगत सेविकाओं के सहयोग से, इंद्रजीत ने, 84 क्षेत्र के गांवों में पूर्व से निवासरत अपने वफादारों के घरों पर, नकली विवाह आयोजित किये। एक ही दिन 80 बारातें अलग-अलग पहुंची। इस तरह, गोपनीय रूप से, बारातियों के रूप में, दतिया के सैनिक प्रत्येक गांव में पहुंच गये। दूसरे दिन विदाई के नाम पर, सभी बारातों के, वर्तमान इंदरगढ़ क्षेत्र के चारों तरफ से, निकट पहुंच जाने के उपरांत, सामने से अचानक ही इंद्रजीत ने अपनी फौज के साथ बदनसिंह पर आक्रमण कर दिया। बदनसिंह के आगे बढ़ते ही, चारों ओर से निकट पहुंच चुके बारातियों ने, उन्हें घेरकर हमला बोल दिया। इस चौतरफा हमले में बदनसिंह की बुरी तरह पराजय हुई। अत्यधिक घायल होकर, बदनसिंह वापस भाग गया, और फिर कभी नहीं आया।
इस युद्ध के तुरंत बाद 1758 में ही इंद्रजीत ने 84 क्षेत्र के मध्य में एक सुदृढ़ किला बनवाया तथा किले के मजबूत परकोटा के मध्य इंदरगढ़ नामक बस्ती बसाई। बड़ी-बड़ी तोपों, भारी-भरकम सेना से सज्जित यह क्षेत्र, फिर कभी किसी आक्रमण का शिकार नहीं हुआ।
1758 के अंत में निसंतान बहादुर जू की मृत्यु हो गई। अपनी मृत्यु से पूर्व बहादुर जू अपने दत्तक पुत्र नारान जू को सेवढ़ा का उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे, परंतु वे सफल नहीं हो सके। बहादुर जू के मरते ही, इंद्रजीत ने फिर से सेवढ़ा पर कब्जा कर लियातथा नारान जू को दतिया लाकर सीता जू की सेवा में दे दिया गया। झांसी के मराठों ने इस मामले में दखल देने की कोशिश तो की परंतु उनकी चली नहीं, क्योंकि उस समय मराठों की सारी शक्ति, दिल्ली की ओर केंद्रित थी। और इस तरह सेवढ़ा का, दतिया में स्थाई रूप से विलय हो गया।
अब तक इंद्रजीत को राजा न मानने वाली मुगल सल्तनत ने, मराठा-बुंदेला-जाट विरोध देखकर, अन्य बुंदेला राजाओं के साथ साथ इंद्रजीत की तरफ भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया। बादशाह की ओर से मुलाकात का आमंत्रण पाकर, अन्य राजाओं की तरह, इंद्रजीत ने भी 1760 की वर्षा ऋतु के मध्य, ओरछा नरेश सावंत सिंह के साथ बांदा पहुंचकर, बादशाह शाहआलम का स्वागत किया। नजराने भेंट किये। बदले में शहंशाह ने इन्द्रजीत को राजा की पदवी तथा एक तलवार, एक तख्ते रेवन नामक सिंहासन, अरबी बाजा तथा दो शाही पताका भेंट कीं।
इंद्रजीत के पुत्र शत्रुजीत का प्रथम विवाह 1761 में नौनेर की परमार कन्या आनंद कुँवरि से हुआ। इनका दूसरा विवाह हुआ नदीगाँव की बखत कुँवरि से। वखत कुँवरि, ब्रजमंडल के संतो तथा भक्त कवियों में प्रिया सखी के नाम से विख्यात हुईं। मात्र 34 वर्ष की आयु में ही सन 1762 में राजा इंद्रजीत की मृत्यु हो गई। और 16 वर्षीय अवयस्क शत्रुजीत को ताज पहना कर, एक बार फिर, रानी सीता जू 82 वर्ष की आयु में, एक और दतिया नरेश की संरक्षिका बनीं।
बाजीराव मस्तानी के पुत्र अली बहादुर के साथ, भाड़े के गिरि-गुसांईंयों की फौज लेकर, अब तक झांसी-विठूर के मराठों की मदद करने वाले सेनानायक, गोसांई हिम्मत बहादुर अनूप गिरी ने 1765 में, मराठों की विच्छिन्न परिस्थितियाँ देखकर, स्वयं झांसी पर कब्जा करने का मन बनाया। हिम्मत बहादुर ने रानी सीता जू से मदद माँगी, और, मराठों से पुरानी टीस के चलते, रानी ने शत्रुजीत को सेना लेकर भेज दिया। हिम्मत बहादुर तथा शत्रुजीत ने झांसी पर कब्जा कर लिया, क्षेत्रों का बंटवारा भी। किंतु 1 वर्ष बाद ही 1766 में सागर के नए-नए सूबेदार रघुनाथराव ने, मल्हार राव होलकर तथा ग्वालियर के मानाजी राव सिंधिया के साथ मिलकर, झांसी तथा दतिया पर आक्रमण करके, दोनों राज्यों पर कब्जा कर लिया।शत्रुजीत बंदी बना लिए गये। इस युद्ध के बाद हिम्मतबहादुर का क्या हुआ पता नहीं चला।
मराठों के इस दूसरे संयुक्त हमले के साथ ही बुंदेलखंड में मराठों का आतंक एक बार फिर गूंज उठा। जबकि पिछले कई वर्षों से बुंदेलखंड में शांति रही आई थी।
दरअसल सतारा में सन 1749 में छत्रपति साहू जी की मृत्यु के बाद से, सन 1761 में पानीपत के तृतीय युद्ध तक, मराठों का संपूर्ण ध्यान, दिल्ली के तख्त पर कब्जा बनाए रखने में रहा। इन 12 वर्षों में, बुंदेलखंड में मराठा उत्पात पूरी तरह शांत रहा। पानीपत युद्ध के बाद पश्त हो चुके सभी मराठा सरदार, स्वयं को पेशवाई तथा सतारा से स्वतंत्र घोषित कर, अपनी-अपनी गद्दी स्थापित करने में व्यस्त हो गये। इस तरह लगभग छिन्न-भिन्न मराठा शक्ति, अलग-अलग, छोटे-बड़े राज्य स्थापना के अंदरूनी संघर्षों में उलझी रही, इस तरह बुंदेलखंड में, शांति के 4 वर्ष फिर गुजर गये।

कभी एक वक्त वह भी आया था, जब छत्रपति शिवाजी राजे का वंश, अत्यधिक कमजोर तथा पेशवा आश्रित हो गया था। जबकि शिवाजी और उनके वंशजों के ही नाम पर राज्य कर रहे पेशवाओं ने, छत्रपति शिवाजी महाराज के खानदान को, तथाकथित शक्ति केंद्र के नाम पर, तत्समय के अत्यंत छोटे कस्बे सतारा मात्र में सिमिटा दिया था। यह वह वक्त था, जब दिल्ली के तख्त पर, पेशवा की कठपुतली मुगल बादशाह बैठा था और समूचा हिंदुस्तान मराठों के कदमों तले था।

मराठों ने अपने शासनकाल में, बुंदेलखंड में कोई विकास कार्य या रचनात्मक- सृजनात्मक कार्य नहीं किये। मराठों ने, यहाँ, लूटपाट, कत्लेआम, दमन, कब्जा तथा रंगदारी वसूली के अलावा कुछ भी नहीं किया। 1765 में टूटे-बिखरे पेशवा ने रघुनाथ हरि निंबालकर को, सागर-झांसी का सूबेदार नियुक्त किया, तो वे, झांसी पर एक कठपुतली बैठाकर, सागर में रहते हुए, छिन्न-भिन्न अपनी शक्ति को तरतीब देने की कोशिश में उलझ गए। इसी समय मौका पाकर, हिम्मत बहादुर ने, खुद को स्वतंत्र रूप से झांसी में स्थापित करना चाहा था।
सीता जू ने, शत्रुजीत को नादान बतलाते हुए, मानाजी सिंधिया के पास संधि प्रस्ताव भेजा। सिंधिया खुद भी कोई लंबा बखेड़ा नहीं चाहते थे। उन्हें, ग्वालियर को अभी मजबूत बनाना था। अंततः समझौते का मसौदा तैयार किया गया। इस मसौदे के अनुसार, करेरा दुर्ग, सिंधिया ने ले लिया, दिनारा तक के गांव तथा एरच, झांसी को मिले। दतिया राज्य पर 15 लाख रुपए सालाना 'कर' निर्धारित हुआ पेशवा के लिए। करैरा दुर्ग बाद में रघुनाथराव ने सिंधिया से 75 हजार रुपये में खरीदकर, झांसी में मिला लिया। सेवढ़ा का 'कर' अलग से निर्धारित हुआ। इस बार सेवढ़ा के, नदी पार के कुछ गांव भी सिंधिया को देने पड़े। इस तरह रानी सीता जू ने शत्रुजीत एवं दतिया को मराठों के चंगुल से बमुश्किल आजाद करा सकीं।
इसके कुछ ही समय बाद, भांडेर में डेरा जमाए मल्हार राव होल्कर की, आलमपुर में अज्ञात कारणों से 20 मई 1766 को मौत हो गई। होल्कर का स्मारक आलमपुर में बना हुआ है। यह गांव वर्तमान में दतिया के बीचोंबीच होते हुए भी, रियासत कालीन संधियों के कारण भिंड जिले में पड़ता है। ग्रामीण किंवदंतियों में यह मौत भी सीता जू के साथ जोड़कर देखी जाती है।
शत्रुजीत 1767 के अंत तक शांत रहे। परंतु जैसे ही मथुरा के जाट सरदार जवाहर सिंह ने, मराठों से गोहद वापस लेने के लिए आक्रमण आरंभ किये, शत्रुजीत ने भी मराठों द्वारा अधिग्रहीत किए गए ग्रामों पर, हमला करके, वापस कब्जा करना शुरू कर दिया। शत्रुजीतने 5 हजार पैदल तथा 2 हजार घुड़सवार लेकर, जवाहर सिंह की मदद की। कुछ समय बाद जवाहर ने यह अभियान बंद कर दिया, लेकिन शत्रुजीत मराठों के लिए समस्या खड़ी करते रहे। मराठों पर लगातार दबाव बढ़ाते हुए, शत्रुजीत ने 1768 में करैरा दुर्ग वापस कब्जा लिया। महाराजा शत्रुजीत कभी मराठों के दबाव में नहीं आये। जीवन पर्यंत मराठों से संघर्ष करते हुए, सन 1801 ईश्वी में, उन्हें, सेवढ़ा में दौलतराव सिंधिया की फ्रांसीसी सेना से युद्ध के दौरान वीरगति प्राप्त हुई।
इस बीच पुराने अहसानों के बदले, रानी सीता जू ने, ओरछा राजवंश का अहसान चुकाते हुए, दो बार, ओरछा में अपने दीवान खेतसिंह के साथ सेना भेजकर, उत्तराधिकार संघर्ष में विक्रमाजीत सिंह दूल्हा जी को मदद दी।
सन 1771 ईस्वी वह वर्ष था, जब दतिया राज्य की संरक्षक, विकास की मसीहा, सत्ता का शक्ति केंद्र, प्रजा वत्सल, महा राजमाता सीता जू ने 92 वर्ष की आयु में, नश्वर देह का त्याग किया।
रानी सीता जू, किसी को याद रहें न रहें, कोई रचनाकार, अपनी कृति में उकेरे न उकेरे, रानी सीता जू की साकार, जीवंत, कृतियाँ आज भी मस्तक उठाये, उनकी महान गाथा का गान करती हैं।

- रवि ठाकुर दतिया
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*संदर्भ*-

*मासिरे आलमगीरी- अनु. यदुनाथ सरकार। मासिर उल उमरा- अनु. ब्रजरत्नदास। तारीखे दिलकुशा- ले.भीमसेन कायस्थ। नुस्खा ई दिलकुशा- अनु. भीमसेन कायस्थ। दलपत रायशो- ले.जोगीदास जशौंदी। गजेटियर्स- ओरछा, झांसी, दतिया, ग्वालियर। दस्तूरात जिल्द रियासत दतिया। शत्रुजीत रासो- किशुनेश कवि, साहिबराय। बुंदेलखण्ड का इतिहास- भगवानदास गुप्त।*