प्रेम गली अति साँकरी - 44 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 44

44—

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शीला दीदी अम्मा से और मेरे से भी फ़ोन पर बात करती रहतीं | बड़ी दुविधा में थीं, क्या करें ? क्या न करें? एक तरफ़ उनकी व उनके परिवार की छत्रछाया हमारा परिवार था तो दूसरी ओर उन बिना बुलाए रिश्तेदारों की आँखों में वो दोनों बच्चे भी खटक रहे थे | दीदी ने रोते हुए अम्मा को बताया था कि उन रिश्तेदारों की इच्छा है कि उनके बाप के बाद उन्हें गाँव ले जाएँ और उन्हें वैसा ही पालतू बना लें जैसा उनकी माँ रतनी को बनाकर रखा हुआ था | माँ-बाप दोनों के रिश्तेदारों में होड़ लगी हो जैसे---कौन फ़तह करेगा? आजकल सभी जगह मज़दूर और काम करने वाले मिलने कितने मुश्किल हो गए हैं और मिलते भी हैं तो सत्तर नखरे ! गाँव में जाकर सारा टब्बर घर-बाहर का काम करेगा, रोटी और दो जोड़ी कपड़ों में मामला बहुत सस्ता था | पड़े तो कहीं भी रहेंगे सारे, उनके लिए कौनसी उन्हें कोठियाँ चिनवानी थीं? 

डॉली कितनी खूबसूरत थी, उसे तो बिना दहेज़ के किसी को भी ब्याह देंगे और दिव्य की बहू आएगी तो एक और नौकरानी मिल जाएगी | शीला दीदी और रतनी अपने-अपने उन सभी रिश्तेदारों की पोर-पोर से वाकिफ़ थीं | शीला दीदी को तो यहाँ तक शक था कि कहीं इनमें से कोई डॉली का सौदा करने का मन ही न बनाकर बैठा हो !जब मुझे यह घिनौनी बात पता चली.मेरी आँखों में जलजले भर आए थे | 

“ऐसा भी हो सकता है? ”अम्मा ने जब ये सब बातें बताईं थीं, मेरे मुँह से अचानक निकल गया | 

“कुछ भी कर सकते हैं ये लोग, आजकल दुनिया में न जाने क्या-क्या हो रहा है ! यह कौनसी बड़ी बात है, दूसरा -इस छोटे से मकान पर भी तो जगन के भाई की नज़र है | क्या पता सब मिलकर क्या प्लान बनाकर आए हों | ” शीला दीदी चुपके से संस्थान आईं थीं और अम्मा से खुलकर सब कुछ बता गईं थीं | वरना उनके अंदर की बात अम्मा-पापा को कैसे पता चलती? 

अम्मा-पापा घबरा रहे थे, मुझे भी लगा, उनका निर्णय ठीक ही था | ऐसे वे दोनों उस परिवार को छोड़कर इतनी दूर कैसे जा सकते थे? पहले तो उनका बाप ही कसाई था अब उन बच्चों का भविष्य यदि उनके रिश्तेदारों के हाथ में कैद हो गया तो कसाइयों की पूरी जमात ही उनके इर्द-गिर्द घेर बनाकर पसर जाएगी | उस घेरे में से निकलकर छूटना आसान होगा क्या ? जगन के चचेरे भाई ऐसा दिखा रहे थे जैसे अगर वे उनकी परवाह नहीं करेंगे तो बच्चों का जाने क्या होगा? आखिर इससे उन रिश्तेदारों को क्या लाभ हो सकता था? कुछ तो ज़रूर ऐसा था जिसकी मंशा बनाकर वे यहाँ पसरे पड़े थे | शीला परेशान थीं।भाई की मौत की गमी पर रोएँ या उन कसाई रिश्तेदारों की उपस्थिति पर अपना सिर फोड़ लें? 

इंसान इतना भी नीच कैसे हो सकता है? मैं सोच रही थी, जिन्हें कुछ पता ही नहीं था कि आज तक घर-परिवार को कौन और कैसे मैनेज कर रहा है ? आज वे अपना सगापन झाड़ने से बाज नहीं आ रहे थे | स्थिति ऐसी थी कि शीला दीदी उन्हें कुछ कह भी नहीं पा रही थीं | मैंने तो कई बार सोचा कि वे उन्हें निकालकर क्यों नहीं फेंक सकतीं अपने घर से ? और---- मैं कौन? ----मैं खांमाखा----!! जाने उनके मन में कितने काँटे चुभे हुए थे जिन्हें चुनने की बात तो दूर छूना भी महा मुश्किल था | वे काँटे उन सबको टीस ही देते रहते और जैसे उनके मनों में उनकी खेती हो रही थी | 

शीला दीदी, रतनी और बच्चे उस कचर-कचर से परेशान हो गए थे | पापा का होटल से खाना मँगवाने का विचार बड़ा अच्छा था, कम से कम परिवार की स्त्रियों के कंधे पर यह बोझ तो नहीं था कि एक-एक के लिए रोटियाँ थेपनी पड़ें | हर दिन नाश्ता, लंच, डिनर समय पर उनके घर पहुँच जाता | महाराज ने गार्ड से कहकर छोटे को सुबह से शाम वहाँ रखने का इंतज़ाम कर दिया था जिससे वह उन रिश्तेदारों की फ़रमाइश पर चाय-वाय बनाता रहे, बर्तन आदि की सफ़ाई का काम संभाल ले | यह सब भी रिश्तेदारों के लिए बड़ा आश्चर्य में डालने वाला था कि क्या जगन की इतनी कमाई थी कि घर में नौकर भी रख सकता था ? छोटी बुद्धि के लोगों को यह समझ में नहीं आता था कि अगर जगन की इतनी औकात होती तो इस घटिया मुहल्ले और छोटे से दबड़े में क्यों रहता वह !और उन्हें कुछ भी बताना तो बेवकूफी ही थी इसलिए शीला दीदी, रतनी और बच्चे भी चुप ही रहते थे | किसी तरह यह कठिन समय पूरा हो और वे सब अपने-अपने घरों को लौट जाएँ----जो उन्हें इतना आसान तो लगता नहीं था कि वे सब इतनी जल्दी पीछा छोड़ेंगे | 

बीहड़ बन सा लगता मन का आँगन !जैसे मेरा कुछ बहुत मूल्यवान कहीं खो गया था, मुझे लगता था मैं ही खो गई हूँ, मैं खोती जा रही थी, लम्हा-लम्हा, पल-छिन अपनी तलाश में थी और खुद को बेकार ही हलकान कर रही थी | मेरे भीतर के चित्र पहले से ही एकदूसरे में गड्डमड्ड होते रहते थे, जगन के रहने, न रहने पर हमें क्यों फ़र्क पड़ना चाहिए था लेकिन मुझ पर ही क्या पूरे परिवार पर ही इस घटना का प्रभाव बहुत बुरी तरह पड़ा था | पता नहीं, यह एक दुर्घटना थी या केवल एक घटना भर---? आखिर किसी आदमी का हमेशा के लिए दुनिया से चले जाना, कोई काम पीड़ादायक तो होता नहीं | अब जगन को गए हुए तीन दिन बीत चुके थे और अब भी शीला दीदी के घर कोई न कोई हर रोज़ आता दिखाई दे रहा था | छोटे-छोटे दो कमरों के उस कुएँ से घर में लोग ऐसे पड़े थे जैसे किसी प्लेटफ़ॉर्म पर बिना आरक्षण में सफ़र करने वाले मुसाफिर एक-दूसरे से सटे हुए चादरें बिछाए पड़े रहते हैं | 

“गधे कहीं के ---”पापा के मुँह से उनके लिए फूल झरने लगे थे | वो पापा जो किसी से बिना बात ऊँची आवाज़ में बात करने के आदी नहीं थे, बिना बात ही गुस्सा करने लगे थे | 

“कचरे में पड़े रहने वाले को कचरे में रहने की आदत हो जाती है | बेचारी शीला और रतनी वहाँ परेशान हो रहे हैं और यहाँ सारी व्यवस्था के बावज़ूद कोई आने को तैयार नहीं है ---”कितनी बार तो पापा भुनभुन कर चुके थे | मुझे भी वाकई में गुस्सा आने लगा, न लेना, न देना –पापा अपना ब्लडप्रेशर बढ़ाए जा रहे हैं–क्यों भला? 

“आप क्यों अपना बी.पी हाई कर रहे हैं पापा ? ” कितनी बार मैंने पापा से कह दिया था | 

“नहीं बेटा, बी.पी हाई की बात नहीं है ----आखिर कैसे संभालेंगे ये लोग इतने लोगों को? व्यवस्था है तो चुपचाप आकर रहो न, क्यों परेशान करने पर तुले हो उन बेचारों को ---”पापा का कहना बिलकुल ठीक था लेकिन---आदतों से बाज़ कहाँ आते हैं लोग? 

“आप क्या कर लेंगे इसमें वेद ----”अम्मा को पापा की चिंता थी, जो स्वाभाविक ही थी | आज मैंने बड़े दिनों बाद अम्मा के मुँह से पापा का आधा नाम सुना था | सबके सामने तो वे दोनों एक दूसरे को वेदान्त और कालिंदी कहकर ही पुकारते थे, ये नाम तो घर के थे, दादी के दिए हुए जो परिवार के अंतरंग क्षणों में सहसा झाँकने लगते थे | मुझे बहुत अच्छा लगता –बस, ऐसा ही अपनत्व, खुलापन, करीबी अहसास जीवन को भर देता है। उस खालीपन को भर देता है जो न जाने कहाँ से चुपके से आकर कभी भी मन के आँगन में अपनी दीवारें खड़ी करने लगता है | सच, दादी क्या गईं----जीवन ही उनके साथ चला गया | पता नहीं कैसे लोग होते हैं जो बुजुर्गों के बिना ज़िंदगी को अधिक सहज समझते हैं!हमारे यहाँ तो हमें ही क्या, दादी से जुड़े हुए हरेक को ही उनके बिना साँस लेने में दिक्कत आ रही थी | 

दिव्य ने अभी हाल में ही तो नौकरी करनी शुरू की थी, और उसके ऊपर यह मुसीबत आ पड़ी थी | उसकी कंपनी से फ़ोन पर फ़ोन आ रहे थे, उसे अपना टार्गेट पूरा करना था और उस पर बंदिश लगा दी गई थी कि वह घर से बाहर नहीं निकल सकता | धीरे-धीरे आज आठ दिन हो गए थे, शीला दीदी और रतनी का मन तो था कि वे लोग चौथे दिन ही सब कुछ निबटा देंगे लेकिन ये सारे रिश्तेदार ! अरे !क्या फ़र्क पड़ता था अगर चार दिन में उस दुखती कहानी का अंत हो सकता तो लेकिन उन तथाकथित ‘अपनों’ के अनुसार तो जगन की आत्मा की मुक्ति के लिए वे सब पाखंड होने जरूरी थे | 

उनमें से कोई भजन-मंडली को बुक करवा आया था जिसके बंदे आकर रोज़ शाम के चार बजने से पहले ही दरवाज़े पर अपना ढोल-ढमाका लेकर पहुँच जाते | दो घंटे चिल्ला-चिल्लाकर भजन करने पहुँच जाते | ये रिश्तेदार ही पूरे मुहल्ले को आमंत्रण भी दे आए थे। घर के बाहर पंडाल बँधवा दिया गया था और एक स्टेज जैसा बनवाकर उस पर एक छोटी सी मेज़ पर नए मेज़पोश को बिछाकर हर दिन भजन के समय जगन की एक फ़ोटो रख दी जाती, जिसके आगे सुगंधित अगरबत्ती जलती रहती | इसके सामने वह भजन मंडली भजन करती | चाय-नाश्ता खाकर डकारते हुए वे मंडली के लोग 7/8 बजे तक जाते | खाने का समय हो जाता था इसलिए पापा ने हलवाई से कहकर कभी चना-पूरी, कभी दोसा-इडली, कभी इसी प्रकार का कोई न कोई ऐसा नाश्ता भिजवाने की व्यवस्था कर दी थी जो ‘डिनर’ का काम करता | 

सामान आते रहते और बिल शीला दीदी की ओर सरकाए जाते रहते | पापा सब समझते थे इसलिए बिना शीला दीदी से पूछे उन्होंने उनके एकाउंट में अच्छा खासा एमाउंट डाल दिया था | एक बात की तसल्ली थी अम्मा -पापा को कि उन रिश्तेदारों को शीला दीदी के फ़्लैट की कोई जानकारी नहीं थी वरना----