वीर सावरकर - 14 Veer Savarkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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वीर सावरकर - 14

वीर सावरकर द्वारा हिन्दू महासभा के वार्षिक अधिवेशनों पर दिये गये भाषणों का सार

अहमदाबाद (सन् १९३७ ई०)

प्रारम्भ में आभार प्रदर्शन और स्वतन्त्र हिन्दू साम्रज्य नेपाल का अभिवादन करते हुए वीर सावरकर ने अपना भाषण इस प्रकार प्रारम्भ किया:

हिन्दुस्थान सर्वदा एकरस एवं अविभाज्य ही
रहना चाहिये । वर्त्तमान समय में भारतवर्ष पर जो कृत्रिम एवं राजनैतिक
बलात्कार जनित प्रान्तीय बटवारा लादा गया है उसके विचार को अलग हटाया जाय, तो हम पर यह बात स्पष्ट होगी कि हम सब रक्त, धर्मं तथा देश इन प्रबल, अविभाज्य एवं टिकाऊ बन्धनों के द्वारा परस्पर के साथ जकड़े गये हैं। चाहे जो हो,
हमें अपना ध्येय समझकर इस बात को निश्चित रूप से विघोषित कर देना चाहिये कि कल का हिन्दुस्थान कश्मीर से लेकर रामेश्वर तक और सिन्धु से लेकर आसाम तक केवल संयुक्त होने के नाते से ही नही, अपितु अभिन्न राष्ट्र के नाते से एकरस एवं अविभाज्य ही रहना चाहिये ।

'हिन्दू' शब्द की व्याख्या
हिन्दू महासभा के नियत तथा अधिकृत कार्य की सारी वाह्य सृष्टि 'हिन्दू' शब्द की अचूक व्याख्या पर ही निर्भर है। इसलिये सबसे पहिले हमे 'हिन्दुत्व' के अर्थ ही को प्रकट करना चाहिये। उस शब्द की व्याख्या और व्याप्ति का स्पष्टीकरण हो कर जब वह सुचारू रूप से हृदयसात हो जायेगी, तभी हमारे ग्वकीयों के हृदयों में बार-बार उठने वाली विविध प्रकार की आशंकाओं का निराकरण होगा और हमारे विरोधक हमारे विरोध में जो नाना प्रकार के आक्षेप एवं भ्रम लोगों में प्रसृत करते हैं, उन्हें भी मुंहतोड़ उत्तर मिलकर शान्त किया जा सकेगा। यह हमारा अतीव सद्भाग्य है कि कई जंगलों की राख छान डालने के उपरांत ही क्यों न हो, किन्तु इस प्रकार की
'हिन्दू' शब्द की एक निश्चित व्याख्या पहले ही हमारे हाथ लगी है। ऐतिहासिक तथा तार्किक दृष्टि से इस प्रकार की व्याख्या जहां तक समर्थक की जा सकती है, उतनी समर्थक तो वह है ही; पर उसके अतिरिक्त वह तात्कालिक उपयोगक्षमा भी है। हिन्दू शब्द की वह व्याख्या इस प्रकार है–
आसिन्धुसिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका ।
पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः ॥

अर्थात्: जो कोई भी व्यक्ति सिन्धु से लेकर समुद्र तक फैली हुई इस भारत भूमि को अपनी पितृभू तथा पुण्यभू मानता है और अधिकृत रूप से यह बात कह सकता है, वह प्रत्येक व्यक्ति 'हिन्दू' है। यहां पर मुझे यह बात स्पष्ट कर देनी होगी कि जिन धर्मों का उद्गम भारतवर्षं में हुआ है, ऐसे कुछ अन्य धर्मों के अनुयायी समझे जाने वाले व्यक्तियों को भी हिन्दू कहना प्रायः असम्बद्ध ही होगा। क्योंकि वह तो हिन्दुत्व का एक अंग या लक्षण मात्र है पर यदि हमारी यह आन्तरिक इच्छा हो, कि हमारी उक्त व्याख्या संदिग्ध एवं मिथ्या प्रमाणित न हो, तो हमें
चाहिये कि 'हिन्दुत्व' के अन्तर्गत संकेत में रहे हुए दूसरे और उतने हीं महत्त्व के दूसरे अंश की अवहेलना हम न करें। हिन्दू होने के लिये किसी व्यक्ति को केवल इतना ही कहना पर्याप्त न
होगा, कि वह किसी ऐसे धर्म का अनुगामी है, जिसका उद्गम भारतवर्ष में हुआ है, अर्थात वह भारतवर्ष को 'पुण्यभू तथा स्वतन्त्र लोकसमाज प्रमाणित होता है। उक्त दोनों अंशों
को एकत्र करने पर ही हमारे हिन्दुत्व की सृष्टि होती है और उनके संयोग से ही हम संसार के अन्य किसी भी देश के निवासियों से पृथक् प्रमाणित होते हैं। उदाहरण के लिये जापानी तथा चीनी लोग अपने को हिन्दुओं के साथ सम्पूर्ण रूप से न तो एकात्म मानते ही है और न वे उक्त कारणों से वैसा मान भी सकते हैं। वे दोनों इस भारत भूमि को उनके धर्म के जन्म-स्थान के नाते से केवल अपनी पुण्यभू मानते है, वे न तो उसे अपनी पितृभू मानते हैं और न वे ऐसा मान
सकते हैं। अतः वे हमारे सहधर्मीय तो अवश्य ही हैं, पर न तो वे हमारे स्वदेश बान्धव हैं और न हो ही सकते हैं। परन्तु निस्सन्देह हम सारे हिन्दू परस्पर के केवल सहधर्मीय ही नहीं, अपितु स्वदेश बान्धव भी हैं। चीनी तथा जापानियो को अपनी अपनी निजी और पृथक् स्वरूप की वंश परम्परा भाषा, संस्कृति, इतिहास तथा देश आदि बातें हैं, जो उनका और हमारा जीवन एक राष्ट्रीय बनाने के लिये हमारे साथ पूर्ण अंशों में निबद्ध नहीं हुई है। हिन्दुओं के धार्मिक सम्मेलन में किसी हिन्दू धर्म महासभा में— वे पुण्यभूमि की एकता के कारण हमारे धर्म बान्धवो के नाते से हमारे गले लग सकते हैं। किन्तु समूची हिन्दू जाति को एकत्रित करने वाली और उसके राष्ट्रीय जीवन का प्रतिनिधित्व
प्राप्त करने वाली किसी हिन्दू महासभा के सम्बन्ध में वे समान
स्वरूप की आस्था नहीं दिखायेगे और न वे समानता पूर्वक उसमेंं अपना हाथ बँटायेगे क्योंकि वह ऐसा कर ही न सकेंगे। किसी भी शब्द की व्याख्या ऐसी होनी चाहिये, जो वस्तुस्थिति पर अच्छी तरह चिपक जाये। उक्त व्याख्या के प्रथम अंश की यानी
अनन्य पुण्यभू होने की कसौटी पर कसने के बाद जिस तरह हिन्दुस्थान में वास करने वाले मुसलमान, ज्यू, क्रिश्चियन तथा
पारसी आदि विधर्मी केवल हिन्दुस्थान ही को अपनी पितृभूमि
मानते हुए भी अपने आपको हिन्दू कहलाने के अधिकार से वंचित रहते हैं उसी प्रकार दूसरी ओर उसके 'अनन्य पितृभू होना' इस दूसरे अंश की कसौटी पर कसने के उपरान्त जापानी, चीनी आदि अन्य देशवासियों को भी हमारी और उनकी पुण्यभू एक होते हुए भी हिन्दूगुट्ट के बाहर ही रहना पड़ता है। उक्त व्याख्या का स्वीकार नागपुर, पूना, रत्नागिरि आदि स्थानों की हिन्दू सभाओं के अनुसार अनेक प्रमुख हिन्दू सभाये भी पहिले ही कर चुकी हैं। हिन्दू महासभा के प्रचलित विधिविधान
में 'हिन्दू' शब्द का 'वह कोई भी व्यक्ति जो अपने आपको हिन्दुस्थान में पैदा हुए किसी भी धर्म का अनुगामी कहलाता हो'
इस प्रकार का जो ढीला और असम्बद्ध स्पष्टीकरण किया गया था, उस समय भी उसकी आंखों के सामने उक्त व्याख्या स्पष्ट रूप से उपस्थित थी । पर अब ऐसा समय आ पहुँचा है, कि जब हमें अधिक सुसम्बद्ध बनने की आवश्यकता है। अतः उक्त
एकांगी व्याख्या का त्याग कर उसके स्थान में अधिक व्यवस्थित तथा समर्पक व्याख्या की स्थापना करनी चाहिये और इसलियेेेेमैं आप लोगों के सामने यह प्रस्ताव रखता हूं कि हमारे विधि विधान में उपर्युक्त पूरा श्लोक ज्यों का त्यों उसके उपर्युक्त स्पष्ट तथा निस्सन्दिग्ध अर्थ सहित समाविष्ट किया जाना चाहिये।

हिन्दू स्वयमेव एक राष्ट्र हैं

आगे चलकर आपने बताया कि हिन्दू महासभा के निय कार्यं के सम्बन्ध में जैसी मेरी धारणा है, उस तरह से प्रमुख
रूप से एक राष्ट्रीय सभा ही मानने सम्बन्धी मेरी भूमिका पर कुछ लोग व्यर्थं का दोषारोपण करेंगे और आह्वान पूर्वक मुझ से यह प्रश्न भी पूछ बैठेगे कि जिनके जीवन की प्रत्येक छोटी-मोटी बातों में इतना महदन्तर पाया जाता है, उन हिन्दुओं को हम राष्ट्र के नाम से सम्बोधित कर ही कैसे सकते हैं ? इन लोगों को मेरा स्पष्ट रूप से यही प्रत्युत्तर है कि पृथ्वीतल पर ऐसा कोई देश नही, कि जिसमें भाषा, संस्कृति, वंश तथा धर्म के सम्बन्ध
सम्पूर्ण रूप की एकात्मता दिखाई देती हो। किसी भी देश की
जनता उसमें रहे हुए परसर विसंवादी भेदों के अभाव के कारण राष्ट्रसंज्ञा से सम्बोधित होने के लिये कदापि उतनी पात्र प्रमाणिक नहीं होती, जितनी कि वह परस्पर में रहे हुए भेदो की अपेक्षा अन्य लोगों के साथ रहीं हुई उसकी सुस्पष्ट रूप की भिन्नता के कारण होती है। हिन्दुओं को राष्ट्र के नाम से पुकारने में जो लोग आनाकानी करते हैं, वे ही ग्रेट ब्रिटेन, युनाइटेड स्टेट्स रूस, जर्मनी तथा अन्य देश के निवासियों को राष्ट्र के रूप में मानते ही हैं। उनसे मैं पूछता हूँ कि उन लोगों को भी जो स्वयमेव राष्ट्र के रूप में समझा जाता है, उसकी क्या कसौटी है ?
उदाहरण के लिये ग्रेट ब्रिटेन ही लीजिये। चाहे जो हो उनमें
तीन विभिन्न भाषायें तो हैं ही। गतकाल में उनमें परस्पर के
साथ प्राणघातक युद्ध छिड़ गये हैं। साथ ही साथ यह भी पता
चलता है कि उनमें विभिन्न बीजों का, लहू का औौर जातियों का
संकर भी हो गया है। अर्थात् ऐसी स्थिति होते हुए भी जब
आप लोग उन्हें इस समय एक देश, एक भाषा, एक संस्कृति एवं
अनन्य पुण्यभूमि होने ही के नाते से एक राष्ट्र मानते हैं, तब तो
वे हिन्दू भी इसी प्रकार से समान जीवन तथा समान निवसन के
युगानुयुग व्यतीत होने के कारण परस्पर के साथ समरस बन
बैठे हैं, जिनके लिये हिन्दुस्थान इस स्पष्टार्थ वाचक नाम की
अनन्य पितृभूमि है, जिसमें उनकी उन सारी प्रचलित भाषाओं
का उद्गम हुआ है जो दिनोंदिन परिपुष्ट होती जाती हैं, जिनके
पास संस्कृत नामक ऐसी एक समान भाषा है, जो आज भी उनके धर्मग्रन्थों की तथा साहित्य की सर्वसाधारण भाषा मानी जाती है और प्राचीन धर्म शास्त्रों तथा उनके पूर्वजों की सूफियों के
पवित्रतम संग्रह के नाते जिसका सर्वत्र गौरव किया जाता है।
अनुलोम तथा प्रतिलोम विवाहों के द्वारा जिनका बीज तथा रक्त
मनुजी के समय से लेकर आज दिन तक लगातार परस्पर में
सम्मिश्र होता आया है, जिनके सामाजिक उत्सव तथा संस्कारविधि इंगलैण्ड में दिखाई देने वाले संस्कारों एवं विधियों से समानता में लेशमात्र भी कम नहीं हैं, वैदिक ऋषि जिनके लििए एकसा अभिमान का विषय है, पाणिनि और पतंजलि जिनके व्याकरणकार हैं, भवभूति तथा कालिदास जिनके कविवर हैं, श्रीराम तथा श्रीकृष्ण, शिवाजी तथा राणा प्रताप, गुरु गोविन्द तथा वीरवर वन्दा जिनकी वीर विभूतियां एवं समान स्फूर्तिस्थान हैं,—बुद्ध तथा महावीर, कणाद तथा शंकराचार्य, जिनके ऐसे अवतारी आचार्य है जिनको तत्ववेत्ता होने के नाते से सर्वत्र समानतापूर्वक सम्मानित किया जाता है, अपनी प्राचीन तथा
पवित्र संस्कृत भाषा के अनुसार ही जिनकी अन्यान्य लिपियां
भी उस एकमात्र प्राचीनतम नागरी लिपि में से ही उत्पन्न हुई हैं, जो कि गत कई शताब्दियों से उनके पवित्रतम लेखों की समान साधन बन बैठी हैं, जिनका प्राचीन और अर्वाचीन इतिहास एक
ही है, जिनके मित्र तथा शत्रु भी एक ही हैं, जिन्होंने एक ही सी आपत्तियों का सामना किया है और एक साथ ही उन पर विजय भी पायी है, और जो राष्ट्रीय वैभव में या राष्ट्रीय उत्पात में,
राष्ट्रीय निराशाओं मे या राष्ट्रीय आशा-आकांक्षाओं में भी एक बने रहे हैं । पर इनमे सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि एक समान पितृभू तथा एक समान पुण्यभू के इस प्रियतम, पवित्रतम और सबसे अधिक चिरकालिक दुहरे बन्धनों मे हिन्दू परस्पर के
साथ बँध गये हैं और इसके अतिरिक्त ये दोनों बन्धन– ये दोनो
अधिष्ठान अपनी भारतभूमि – अपना यह हिन्दुस्थान इसी ‌एक-
मात्र देश में एकरूपता प्राप्त करते हैं, इस कारण से हिन्दू जाति
की एकता तथा एक जातीयता द्विगुणित रूप से प्रमाणित होती है । नीग्रो, जर्मन तथा एंग्लो सैक्सन इस परस्पर में हमेशा
झगड़ने वाली जमातों में से बसी हुई और केवल चार-पांच शताब्दियों से अधिक जिसका समान भूतकाल नहीं है ऐसी अमेरिका के संयुक्त संस्थान जब कि एकत्रित रूप से एक राष्ट्र के नाम से सम्बोधित किये जा सकते हैं, तब हिन्दू जाति को भी उसकी अत्युच्च प्रतिष्ठा के कारण ही से राष्ट्र के नाम से उल्लिखित किया जाना आवश्यक है। वास्तव ही में हिन्दू समाज
में रही हुई परस्पर पृथक्ता को छोड़कर यदि एक स्वतन्त्र लोक-
- समाज की दृष्टि से देखा जाये तो वह पृथ्वीतल अन्य किसी भी लोकसमाज से बहुत स्पष्ट व ऊँचे अनुपात में पृथक् प्रतीत होता है। एक देश, एक वंश, एक धर्म, एक भाषा इनमें से जिन जिन कसौटियों पर कसने पर कोई भी लोकसमाज राष्ट्र बनने के लिये पात्र समझा जाता है वे सारी कसौटियां हिन्दू जाति का राष्ट्र के नाते का रहा हुआ अन्य किसी से भी अधिक प्रबल अधिकार
डंके की चोट पर प्रस्थापित करती हैं। इसके साथ ही साथ वे सारे भेदभाव भी कि जो आज तक हिन्दुओं में परस्पर फूट को फैला रहे थे, राष्ट्रीय भावना की पुनर्जागृति एवं वर्तमान समय मे
चलाये जाने वाले संगठन, सामाजिक सुधार आदि जैसे आन्दोलनों के कारण शीघ्र गति से विलीन हो रहे है।
अतएव जबकि इस हिन्दूसभा ने जैसा अपने विधिविधान में स्पष्ट रूप से प्रकट किया है, हिन्दू राष्ट्र की प्रगति तथा वैभवोत्कर्ष की साधना करने के लिये हिन्दू जाति, हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू नागरिकता का पोषण, रक्षण तथा पुरोनयन का कार्य अपने सामने रखा है, तब उस दशा में बह सामवायिक हिन्दू राष्ट्र की प्रतिनिधि भूत एक राष्ट्रीय संस्था ही प्रमुख रूप से प्रमाणित होती है।

हिन्दुस्थान का 'स्वराज्य' या 'स्वातन्त्र्य' इन शब्दों
का वास्तव में क्या अर्थ है ?

अपने भाषण को जारी रखते हुए आगे सावरकर जी ने बताया कि सामान्य संभाषण में 'स्वराज्य' इस शब्द का अर्थ, हमारे देश की–हमारी भूमि की–राजनीतिक मुक्तता, हिन्दुस्थान नाम से पुकारे जाने वाले भौगोलिक परिणाम की स्वाधीनता इसी
प्रकार समझा जाता है। किन्तु अब ऐसा समय आ उपस्थित हुआ है कि जब हमें उपर्युक्त वाक्यों का पूर्ण रूप से पृथक्करण करके उनके अन्दर रहे हुए गूढ़ अर्थ को समुचित रूप से समझ लेना चाहिये । कोई भी देश या भौगोलिक परिणाम कुछ अपने
आप ही राष्ट्र नहीं बन जाता। अपना देश अपनी जाति का, अपने लोगों का अपने प्रियतम तथा निकट सम्बन्धी आप्त
स्वकीयों का निवासस्थान होता है, इसी से वह हमारा प्यारा होता है और इसी दृष्टि से केवल आलंकारिक भाषा ही में हम उसका
'हमारा राष्ट्रीय अस्तित्व' इन शब्दों के द्वारा निर्देश करते हैं। अर्थात् हिन्दुस्थान की स्वाधीनता इसका अर्थ भी हमारे लोगों की, हमारी जातिं की, हमारे राष्ट्र की स्वाधीनता इसी प्रकार
होगा। इसीलिये 'हिन्दी स्वराज्य' अथवा 'हिन्दी' स्वाधीनता' इस शब्द प्रयोग का अर्थ भी हिन्दू राष्ट्र के साथ उसका जहां तक सम्बन्ध है, वहां तक तो भी हिन्दुओं की राजनीतिक स्वाधीनता हिन्दुओं को अपने पूरे विकास एवं उत्कर्ष के लिये समर्थ बनाने वाली वियुक्तता, यही होगा।

मुसलमानों के राष्ट्रीय विचार
सावरकर जी ने मुसलमानों के विचारों के सम्बन्ध में
बोलते हुए कहा कि इसे हिन्दू जाति का सौभाग्य कहिये कि मि० जिन्ना तथा अन्य मुस्लिम लीग वालों ने इस साल मुस्लिम लीग की लखनऊ की बैठक में जान बूझकर ही अपने अन्तःस्थ उद्देश्यों को पहिले से अधिक अधिकृत रूप से, अधिक प्रकट रूप से, तथा अधिक धैर्यपूर्वक कह सुनाये हैं। इसके लिये मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ। साथ रहने में सन्देहजनक मित्र की अपेक्षा
प्रकट शत्रु अधिक होता है। लखनऊ में जो प्रस्ताव स्वीकृत किये
गये वे वास्तव में हम लोगों के लिये कुछ नई बात नहीं है। किन्तु अब तक मुसलमानों की अराष्ट्रीय प्रकृति तथा उनकी सर्व
मुस्लिमीकरण की आकांक्षायें प्रमाणित करने का भार अल्प-अधिक अनुपात में हिन्दुओं पर ही था, सो अनायास ही उतर गया। अब मुसलमानों की वे सब हिन्दू विरोधक, हिन्दी विरोधक
तथा बहिर्देशीय कार्यवाहियां सुस्पष्ट कर दिखलाने के लिये केवल लखनऊ की बैठक में किये गये लीग के अधिकृत भाषणों तथा प्रस्तावों की ओर अंगुली निर्देश कर देने से ही काम हो जायेगा। उससे अधिक कुछ करने-धरने की अब आवश्यकता नहीं रह गई.है। उनकी इच्छा है कि विशुद्ध उर्दू ही हिन्दी राज्य की राष्ट्रभाषा की पदवी को प्राप्त करे। अपनी मातृभाषा के नाते से दो करोड़ से अधिक मुसलमानों वह बोली नहीं जाती, मुसलमानों को भी मिलाकर भारत के लगभग बीस करोड़ लोग उसे समझ नही सकते और जिस हिन्दी भाषा को लगभग सात करोड़ लोग अपनी मातृभाषा मानते हैं और इनके अतिरिक्त दस करोड़ लोग जिसे सुगमता से समझ सकते हैं, उससे साहित्यिक गुण भी उसमें विशेष रूप से पाये नहीं जाते। किन्तु इनमें से किसी एक भी बात की ओर वे ध्यान देना नहीं चाहते। जिसके आधार पर उर्दू परिपुष्ट हुई है, उस प्रत्यक्ष अरबी भाषा को जबकि उधर खिलाकत की साक्षात भूमि में ही कमालपाशा ने तथा तुरको ने बहिष्कृत कर रखा है; तब इधर मुसलमान लोग यह इच्छा कर रहे हैं कि लगभग पच्चीस करोड़ हिन्दू उर्दू सीखें और अपनी राष्ट्रभाषा के रूप में उसको स्वीकार करें। राष्ट्रीय लिपि के सम्बन्ध में भी उनका यही आग्रह है कि उर्दू लिपि ही राष्ट्रलिपि बने, किन्तु इस सम्बन्ध में चाहे जो हो, नागरी लिपि के साथ "उन्हें कोई कर्त्तव्य नहीं ! यह क्यों ? वर्त्तमान राष्ट्रीय आवश्यकता की दृष्टि से अनुपयुक्त होने के कारण कमाल ने चाहे प्रत्यक्ष अरबी लिपि का ही बहिष्कार क्यों न कर दिया हो, नागरी लिपि अधिक शास्त्र शुद्ध तथा अधिक मुद्रणक्षम भी क्यों न रही हो, सीखने के लिये वह कितनी ही अधिक सहज भी क्यों न हो, भारतवर्ष की लगभग पच्चीस करोड़ जनता में वह पहिले ही से प्रचलित क्यों न रही हो और पहिले ही से वह उनकी समझ में भी क्यों न आती हो, किन्तु फिर भी मुसलमान लोग उर्दू को अपनी सांस्कृतिक बपौती मानते हैं, केवल इसी एक गुण के कारण उनका आग्रह है कि उर्दू लिपि ही राष्ट्र की लिपि और उर्दू भाषा ही राष्ट्रभाषा होनी चाहिये और इसके साथ ही साथ उन्हें वह स्थान प्राप्त हो इसलिये भारतवर्षं में रहने वाले हिन्दू तथा अन्य मुसलमानेतर जातियों की संस्कृतियां पाताल में धँस जानी चाहियें। आजकल तो मुसलमानों को 'बन्देमातरम्'.
यह राष्ट्रगीत भी असह्य-सा हो उठा है। बेचारे एकता की चिन्ता
करने वाले हिन्दू ! उन्होंने तुरन्त ही काट पीटकर उसे ओछा करने की त्वरा की। पर आज्ञानुसार काटपीट करने के बाद भी यह बात नहीं कि बचे हुए भाग को वह स्वीकार करेंगे। आप यदि उस सारे गीत को अलग हटाकर केवल 'बन्दे मातरम्'
इतने ही शब्द क्यों न रखें, किन्तु उस पर भी वे लोग यह
हमारा घोर अपमान है, इस प्रकार का हो-हल्ला मचाते हुए दिखाई देंगे। किसी अत्युदार रवीन्द्र के हाथों आप किसी नये गीत की ही रचना क्यों न करा लें, किन्तु फिर भी मुसलमान उसकी ओर ढूंक कर भी न देखेंगे। क्योंकि चाहे कितने ही उदार क्यों न हों, किन्तु रवीन्द्र बाबू अन्त में हिन्दू ही तो ठहरे ! इसलिये 'कौम' के स्थान में 'जाति' अथवा 'पाकस्तान' के स्थान
में 'भारत' वा 'हिन्दुस्थान' इस प्रकार के कुछ संस्कृत शब्दों को उपयोग में लाने का घोरतम अपराध उनके हाथों हो जाना अवश्यम्भावी है। उसका समाधान तब तक नहीं हो सकता, कि जब तक किसी इकबाल या स्वयं जिन्ना का हीं शुद्ध उर्दू में विरचित तथा भारतवर्ष को एक पाकस्तान अर्थात् मुस्लिम अधिराज्य के लिये समर्पित भूमि मानकर उसका जय जयकार करने वाला कोई गीत राष्ट्रगीत माना जाये ।

वास्तविक एकता तो, जब मुसलमानों को उसकी
आवश्यकता होगी, तभी हो सकेगी !

यह बात हिन्दुओं को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये, कि
मुसलमानों की इस कुचाल का कारण केवल यही है कि हिन्दुओं को ही हिन्दू-मुस्लिम एकता रूपी पिशाच दीपिका के पीछे पड़ने की लगन लगी हुई हैं। जिस दिन हमने उनके मन में यह भ्रम
पैदा कर दिया कि हिन्दुओं के साथ सहयोग करने का उपकार
जब तक वे नही करते, तब तक स्वराज्य का मिलना असम्भव है, उसी दिन से हमारे सम्माननीय समझौते को सर्वथाअसम्भव नीय कर बैठे हैं। जब कभी किसी देश की कोई प्रचण्ड बहु-संख्या वाली जाति मुसलमानों जैसी विरोधी अल्पसंख्या वालों के सामने घुटने टेक कर अभ्यर्थना पूर्वक सहायता की याचना करने लगती है और उसे यह विश्वास दिलाती है, उसके अभाव
में अपनी बहुसंख्या वाली जाति निश्चित रूप से मर मिटेगी तो
उस दशा मे यदि वह अल्पसंख्या वाली जाति अपनी उस सहायता को जहां तक हो सके अधिक से अधिक दामों में न
बेचे, उस बहुसंख्या वाली जाति की उक्त निश्चित रूप की मृत्यु
के भवितव्य को शीघ्रतापूर्वक खींचकर वह सन्निकट न लाये और इस प्रकार यदि वह अपना राजनीति वर्चस्व उस देश में
प्रस्थापित न करे तो वह एक महान् आश्चर्य ही होगा। समय-
समय पर मुसलमान हिन्दुओं को परिणाम के सम्बन्ध में जो
धमकियां देते हैं, वह केवल इतनी ही कि उनकी अंतराष्ट्रीय एवं
विक्षिप्त स्वरूप की मांगें तत्काल पूरी हुए बिना वे हिन्दी स्वाधीनता के झगड़े में हिन्दुओं के साथ अपना हाथ न बटायेगे। हिन्दुओं को भी चाहिये कि वे अब उनकी उक्त धमकी के मुँहतोड़ उत्तर में सुस्पष्ट रूप से यह कह डालें, कि दोस्तो! हमें केवल इसी
प्रकार की एकता की आवश्यकता थी, अब भी है, जिसके द्वारा
ऐसे हिन्दी राज्य का निर्माण हो, जिसमें जाति, पन्थ, वंश वा धर्म का विचार न करते हुए सारे नागरिकों के साथ 'एक मनुष्य एक मत' वाले तत्त्व पर सम समान रूप से व्यवहार किया जायेगा | इस देश में यद्यपि हम लोग बहुसंख्या वाले हैं, तो भी हिन्दू जगत्केे लिये हम कोई विशेष अधिकार नहीं मांगते । इतना ही नहीं, अपितु यदि मुसलमान इस प्रकार का अभिवचन दें कि अपने-अपने गृहों में अपने अपने मार्गों का अनुसरण करने के सम्बन्ध में भारतवर्ष की अन्य जातियों को रही हुई समान स्वाधीनता में वे किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करेंगे, तो हमें भी उन्हें इस प्रकार का आश्वासन देना स्वीकार है किि उनकी भाषा, उनकी संस्कृति तथा उनके धर्म को विशेष संरक्षण दिया जायेगा। वे खूब समझ रखें कि इधर कुछ दिन से आक्रमणकारी तथा संरक्षक सन्धियों के द्वारा परस्पर के साथ बॅधे हुए अरबस्तान से लेके अफगानिस्तान तक के मुसलमान राष्ट्रों की शृंखलावद्ध श्रेणी बनाकर 'सर्व इस्लामीकरण' के आन्दोलन का जो हिन्दू विरोधी आन्दोलन हो रहा है और धार्मिक तथा
सांस्कृतिक द्वेष से प्रेरित होकर हिन्दुओं को कुचल देने की जो क्रूरतापूर्ण प्रवृत्ति वायव्य सीमांत प्रदेश की जमायतों में पाई जाती है, उन्हें हम भली भांति जान गये हैं और इसलिये अब
हम आप लोगों का विश्वास कर और कोई कोरे चेक आपको न देंगे। भारत के अन्य सारे अंशों के 'स्वत्वों' के साथ ही साथ
हमारा 'स्वत्व' भी जिसमें सुरक्षित रहेगा, उस प्रकार का स्वराज्य
जीत लेने के लिये हम लोग सन्नद्ध हो गये हैं। इंगलैण्ड के साथ
जूझने के लिये हम इस हेतु से तैयार नहीं हुए हैं कि हमारा एक
मालिक हटाया जाके उसके स्थान पर दूसरा मालिक आ डटे; किन्तु इस हेतु से, हमारे अपने घर के हम स्वयं ही मालिक
बनें। यही हम हिन्दुओं का ध्येय है। हमारे आत्म समर्पण का तथा हिन्दुत्व का मूल्य देकर प्राप्त होने वाला स्वराज्य तो हिन्दुओं के लिये आत्महत्या के समान ही प्रतीत होता है। वास्तव में तो मुसलमानों को इस बात की सत्यता सुस्पष्ट रूप से प्रतीत होगी, कि पराये अधिराज्य से भारत स्वतन्त्र हो न सका, तो भारत-निवासी मुसलमानों के लिये खुद ही गुलाम बनने के बिना दूसरा चारा ही नहीं रह जाता, साथ ही साथ जब वे इस बात
को भी समझ लेंगे कि हिन्दुओं की सहायता तथा सदिच्छा के बिना हमारा चल नहीं सकता, तब स्वयं वे ही एकता की मांग करने के लिये तैयार होंगे और वह भी हिन्दुओं पर उपकार करने के लिये नहीं, अपितु अपनी ही भलाई के लिये ! इस प्रकार जो हिन्दू-मुस्लिम एकता प्रस्थापित होगी, वही कुछ वास्तविक मूल्य तथा महत्त्व रखेगी। बहुत गहरी-गहरी कीमत दे के हिन्दुओं ने इस सम्बन्ध में यही प्रतीति प्राप्त की है कि एकता
प्राप्ति का प्रयत्न करना उसे अपने हाथों से गंवाना मात्र है।
आगे चलकर तो अब हिन्दू-मुस्लिम एकता के सम्बन्ध में हिन्दुओं का यही सूत्र-वाक्य रहेगा कि "आओगे तो तुम्हारे साथ, न आओगे तो तुम्हारे बिना, विरोध करोगे तो तुम्हारे विरुद्ध भी, जैसा बन पड़े, हिन्दू राष्ट्र तो अपना भवितव्य निर्माण
करेगा ही।"

भारत की मुसलमानेतर अन्य अल्पसंख्या वाली जातियां

भारत की अन्य अल्प संख्या वाली जातियों के सम्बन्ध में
हिन्दी राष्ट्र के दृढ़ीकरण के कार्य में कोई विशेष कठिनाइयां
नहीं उपस्थित होने पायेंगी। पारसी लोग तो लगातार अंग्रेजी
अधिराज्य के विरुद्ध हिन्दुओं के कन्धे से कन्धा भिड़ाकर ही
काम करते आये हैं। वे धर्मान्ध या सिर फिरे नहीं हैं। महात्मा
दादा भाई नवरोजी से लेके सुविख्यात क्रान्तिकारक महिला कामाबाई जी तक के पारसियों ने अपने हिन्दी देशभक्तों का हाथ बंटाया है। उनके वंश के वास्तविक तारणहार बने हुए इस हिन्दू राष्ट्र के सम्बन्ध में उन्होंने संदिच्छा के बिना किसी भी प्रकार की वृत्ति प्रकट नहीं की है । सांस्कृतिक दृष्टि से भी वे हमारे सबसे अधिक निकटवर्ती आप्त हैं। हिन्दी क्रिश्चियनों के सम्बन्ध में भी कुछ अल्प अंशों में यही कहा जा सकता है। यद्यपि उन्होंने आज दिन तक चलाये गये राष्ट्रीय झगड़े में बहुत कम हाथ बंटाया है, तो भी उन्होंने कम से कम ऐसा तो व्यवहार नहीं किया है, जिससे वे हमारे गले में भार स्वरूप वन बैठें। वे कुछ कम धर्मान्ध हैं और राजनीतिक तर्क बुद्धि के आगे सिर झुकाने वाले हैं। यू तो बहुत ही छोटी अल्प संख्या वाले हैं और बे हमारी राष्ट्रीय आकांक्षाओं के विरोधी भी नहीं हैं। इससे यह बात निश्चित है कि हमारे ये सारे अल्प संख्या वाले स्वदेश बांधव हिन्दी राज्य में विश्वासपात्र तथा देशाभिमान प्रेरित नागरिक ही बनेगे।
हिन्दुओं पर तथा हिन्दू महासभा पर जो लोग जाति निष्ठता
का अभियोग लगाते हैं, उन्हें इस बात की ओर भली भांति
ध्यान देना चाहिये, कि हिन्दुओं के सम्बन्ध में उन्हें यह बातें
दिखाई न देगी कि उन्होंने उक्त अहिन्दू अल्पसंख्या वालों के
सामने कभी अपने मित्रत्व की भावनाओं के आदान प्रदान के
सम्बन्ध में सौदा ठहराने की मनोवृत्ति प्रकट की हो या स्वदेश-
बांधवों के न्यायसंगत प्राप्तव्य स्वत्वों के विरुद्ध किसी प्रकार की
चींचपड़ भी की हो ।
आंग्ल हिन्दी (ऐंग्लो इण्डियन ) जाति के सम्बन्ध में यह
स्पष्ट है कि उनकी इस समय दिखाई देने वाली घृष्टता तथा
प्रचलित राज्य सुधार-विधान (रिफार्म ऐक्ट) के अनुसार मताघिकार में उन्हें मिला हुआ सिंह का हिस्सा, ये बात इंगलैण्ड के इस देश पर रहे हुए वर्चश्व के नष्ट होते ही पलभर में हवा हो
जायेंगी। उनकी जन्म-जात राजनीतिक शुद्धबुद्धि शीघ्र ही उन्हें अन्य हिन्दी नागरिकों की पांत में ला रखेगी और यदि ऐसा न भी हो तो भी उन्हें ठीक राह पर लाया जा सकेगा।
अपने ओजस्वी भाषण में सबसे अन्त में वीर सावरकर ने ये शब्द कहे— कौन जानता है ? सम्भव है कि कुछ अधिक समय बीत जाने पर भविष्यत् काल में, यदि इस पीढ़ी में नहीं, तो हमारे बाल बच्चों की अगली पीढ़ी में अपनी इसी हिन्दू महासभा का कोई अधिक भाग्यशाली अध्यक्ष उस समय के उस भावी अधिवेशन के सन्मुख इसी स्थान पर खड़ा होके इस तरह की विजय वार्ता उच्च स्वर से घोषित करने में समर्थ होगा कि ‘‘हूण तथा ग्रीक और शक आक्रमणकारियों की गत काल में जो गति हुई थी, उसी प्रकार अब इस देश में ब्रिटिश वर्चस्व का भी कोई चिन्ह नहीं रह गया है। हिन्दू जगत् का ध्वज अत्युच्च हिमाचल के उत्तुंग शिखरों पर ऊंचा उठकर फहरा रहा है और अब हिन्दुस्थान पुनः स्वाधीन तथा हिन्दू जगत् विजयशाली बन गया है "