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वीर सावरकर - 9 - गृहस्थ-जीवन और सावरकर हिन्दू महासभा में

संसार में जो सज्जन होते हैं उनके सब कार्य-कलाप और समस्त जीवन परोपकार के लिये ही होता है। हमारे चरित्रनायक वीर सावरकर का भी सारा जीवन देश सेवा और जेलों में ही कटा । इसीलये इनके जीवन में देश सेवा ही दृष्टिगोचर होती है, गृहस्थ जीवन का कुछ महत्त्व ही नहीं। सावरकर जी के जितने भी जीवन चरित्र आज तक लिखे गये हैं, उनमें इनके गृहस्थ जीवन पर प्रकाश नहीं डाला गया है।

सन् १९०१ में सावरकर जी ने मैट्रिक पास कर लिया तब इनके विवाह का प्रश्न भी उपस्थित हुआ। सावरकर जी पहले तो अपना विवाह कराने से मना करते रहे किन्तु अर्थ-दारिद्रय ने इन्हें विवाह कराने के लिए बाध्य किया। सावरकर जी की इच्छा मैट्रिक पास करके कॉलेज में उच्च शिक्षा प्राप्त करने थी किन्तु उसके लिए व्वय करने का रुपया कहां से आवे। इनके बड़े भाई ने कहा कि चिपलूणकर महाशय की कन्या से यदि तुम विवाह कर लोगे तो तुम्हारी शिक्षा का सब व्यय वे स्वयं ही उठाने को
तैयार हैं। इस पर सावरकर जी ने अपने विवाह की अनुमति दे दी और सन् १९०१ में जवाहर रियासत के उच्च पदाधिकारी श्री भाऊराव चिपलूणकर की कन्या माई के साथ सावरकर जी का विवाह संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न हुआ। सन् १९०५ में सावरकर जी का प्रथम पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम प्रभाकर रखा गया। किन्तु दैवदुर्विपाक से वह अंकुर अभी विकसित भी न होने पाया था कि विधाता ने उसे उसी अवस्था में छीन लिया। एक वर्ष की अवस्था में ही वह स्वर्गवासी हो गया। तदनन्तर सावरकर जी इंगलैण्ड में रहे और फिर कालेपानी की कठोर यातनायें सहने के कारण अपनी धर्मपत्नी से पृथक् ही रहे । सन् १९२७ में जब आप कालेपानी से रत्नागिरि आये तब आपको कुछ स्वतन्त्रता मिली थी। रत्नागिरि आने पर आपके एक कन्या रत्न और एक पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। कन्या का नाम प्रभाबाई और पुत्र का नाम विश्वास सावरकर रखा गया।


हिन्दू महासभा में
जब वीर सावरकर को जेलों के जीवन से विश्राम मिला और रत्नागिरि की जेल से ये स्वतन्त्र हुए तो समस्त देश में
प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। समस्त जनमानस ने इनका हृदय से अभिनन्दन किया। अपने श्रेष्ठ नेता की खोज में सारे देश की आंखें इनकी ही ओर लग गई। इस क्रान्तिकारी नेता का स्वागत करने के लिए कांग्रेस के नेता भी तैयार ही बैठे थे। यदि उस समय सावरकर जी कांग्रेस में सम्मिलित हो जाते तो इस सत्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि वे जिस प्रकार निरन्तर कई वर्षो से हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहे, उसी प्रकार कांग्रेस के अध्यक्ष भी ये ही रहते। देश की सब प्रमुख संस्थाओं ने यह इच्छा और प्रयत्न किये कि सावरकर जी आकर हमारा नेतृत्व करे, किन्तु इस वीर के हृदय में तो बाल्यकाल से हिन्दुत्व के भाव ही भरे हुए थे। हिन्दुत्व के बिना ये स्वराज्य को भी
निकम्मा समझते थे, इसलिये ये कांग्रेस में कैसे सम्मिलित होते ? कांग्रेस में हिन्दुत्व का विनाश किया जाता है और कांग्रेस के नेता अपने को हिन्दू तक कहलाने मे लज्जा और पाप का अनुभव करते हैं। कांग्रेसवादियों का लक्ष्य सदा मुसलमानों को प्रसन्न करना ही रहा है। फिर भला हिन्दुत्व का रक्षक हमारा वीर नेता हिन्दुत्व विरोधी संस्था में कैसे जा सकता था। सावरकर जी ने अपने स्वार्थ, सन्मान और वैयक्तिक लाभ की कुछ भी पर्वाह न करके हिन्दुत्व की सेवा करना ही अपना मुख्य कर्त्तव्य समझा और यही विचार कर आप हिन्दू संगठन का कार्य करने लगे ।
हिन्दूजगत को भी एक चतुर मांझी मिल गया और उसने अपनी हिन्दू नौका का सब भार उसके ऊपर ही सौंप दिया। दिसम्बर १९३७ में अहमदाबाद में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का वार्षिक अधिवेशन होने वाला था। सर्वसम्मति से ये ही उसके सभापति निर्वाचित हुए और सभापति वन कर आपने हिन्दू-जगत् की जो अमूल्य सेवायें कीं उनको हिन्दू इतिहास कभी भी भुला नहीं सकेगा। इन सेवाओं से हिन्दू-जगत् इतना सन्तुष्ट हुआ कि उसके पास सिवाय सावरकर जी के और कोई ऐसा नेता न रहा जिसे वह अपना सभापति बनाता । १९३७ से निरन्तर आप ही हिन्दू महासभा के सभापति निर्वाचित होते आए। सावरकर जी ने अपनी प्रथम सिंह गर्जना अहमदाबाद में सभापति के आसन से कीं। इन्होंने उस समय जो भाषण दिया वह चिरकाल तक स्मरणीय रहेगा और हिन्दू जाति के मुर्दा ढांचे में सदा नवजीवन का संचार करता रहेगा। किसी ने इस अभिभाषण को गीता का उपदेश कहा, किसी ने इसे हिन्दुओं की बाइबिल का नाम दिया। सरांश यह कि इस भाषण ने समस्त हिन्दूजगत् के हृदय में गहरा स्थान बना लिया। इस भाषण में इन्होंने 'हिन्दू' शब्द की ऐसी परिभाषा हिन्दू-जगत् को बताई जिसका समम्त हिदुओं पर बहुत प्रभाव पड़ा और सव सम्प्रदायों के लोग सभी हिन्दुओं को एक समझने लगे ।
अहमदाबाद के अधिवेशन में कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव हुए। एक प्रस्ताव द्वारा गवर्नमेण्ट आफ इण्डिया एक्ट १९३६ को असन्तोषजनक तथा अपूर्ण घोषित किया गया। दूसरे प्रस्ताव द्वारा निजाम व भूपाल की मुसलमान सरकारों को चेतावनी दी कि उनके राज्यों में हिन्दुओं के साथ अन्याय होता है अतः उन्हें चाहिए कि इसका उचित प्रबन्ध करें। बंगाल की मुस्लिम
सरकार वहां खुल्लमखुल्ला हिन्दुओं से विरोध कर रही थी उसको भी सावधान रहने की चेतावनी दी और वहां के हिन्दुओं को संगठित होने की आज्ञा दी गई । सरकार एक हिन्दू प्रान्त आसाम को मुस्लिम प्रान्त बनाने पर तुली हुई थी उसकी भी निन्दा की गई और हिन्दुओं को उसका सामना करने को कहा गया। एक और प्रस्ताव द्वारा सरकार से कहा गया कि वह कोई ऐसा कानून
बनावे कि जिससे हिन्दूसभाओं को अधिकार हो कि वह हिन्दुओं से दान लेने वाली संस्थाओं का हिसाब कमेटी द्वारा जांच करा सके ।
सावरकर जी को हिन्दू महासभा के उद्देश्य से अभी पूर्ण सन्तोष न था, इसलिये अहमदाबाद के अधिवेशन पर इनके आदेशानुसार उसके उद्देश्य में भी परिवर्तन किया गया । हिन्दू-महासभा का उद्देश्य अब से 'पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति' रखा गया।
इसके शब्द ये हैं – हिन्दू महासभा का उद्देश्य हिन्दू जाति, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू नीति जिसका लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य प्राप्ति अर्थात् हिन्दुस्थान को उपयुक्त एवं आर्य-धर्म-संगत, सुनियमित उपायों से पूर्ण स्वराज्य अथवा उसके पूर्ण राजनैतिक अधिकार एवं स्वतन्त्रता प्राप्त कराना तथा सब सामग्री की, जो हिन्दू राष्ट्र के अभ्युत्थान, शक्ति और गौरव-वृद्धि का हेतु है, रक्षा और उन्नति करना है।
रत्नागिरि जिले की जेल से मुक्त होते सावरकर जी ने महाराष्ट्र में दौरे लगाने प्रारम्भ कर दिये। अहमदाबाद अधिवेशन की समाप्ति पर तो आपने समस्त भारत वर्ष का दौरा लगाया और बड़े-बड़े नगरों में जाकर विशाल सभायें कीं और हिन्दू महासभा का सन्देश हिन्दुओं तक स्वयं पहुँचाया। आप जिस स्थान पर भी गये, हजारों-लाखों हिन्दुओं ने आपको सिर आंखों पर लिया। आपके ऐसे भव्य स्वागत हुए और विशाल जुलूस निकले कि कांग्रेस आदि के बड़े बड़े नेताओं के कभी नहीं निकले होंगे। सब स्थानों पर हिन्दू जनता में उत्साह की तरंग दौड़ गई और मरती हुई हिन्दू जाति में फिर से नवीन शक्ति से संचार होने लगा। सावरकर जी के समस्त देश में दौरों के तीन उद्देश्य थे–
(१) हिन्दू-संगठन का सन्देश लाखों-करोड़ों हिन्दुओं
तक पहुँचाना।
(२) हिन्दुओं में क्षात्र धर्म की जागृति तथा वृद्धि करना।
(३) हिन्दुओं के अन्दर से छूतछात आदि बुराइयों को
दूर करना और उनमें शुद्धि आदि का प्रचार करना ।

हिन्दू महासभा की कार्यकारिणी समिति की बैठक ७ फरवरी १९३८ को दिल्ली मे रखी गई । राष्ट्रपति सावरकर ६ फरवरी को प्रातःकाल की गाड़ी से दिल्ली आये। भारत की राजधानी तृषित नेत्रों से अपने राष्ट्रपति का स्वागत करने को उत्सुक बैठी थी।
सारी राजधानी बड़ी सुन्दर विधि से सजाई गई थी। इनका नगर में विराट् जलूस निकाला गया । उस अपूर्व जुलूस में एक लाख नर-नारियों से कम लोग सम्मिलित नहीं थे। सायंकाल सार्वजनिक सभा में कम से कम ५० हजार हिन्दुओं ने अपने नेता का सन्देश सुना। इस प्रकार सावरकर जी ने इस वर्ष समस्त देश के सब प्रान्तों का भ्रमण अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया और हिन्दू-जगत जानता है कि सावरकर जी अपने उद्देश्यों की पूर्ति में कहां तक सफल हुए हैं। इनके आने से हिन्दू महासभा में काफी जान आ गई थी और हिन्दुओं के हृदय में हिन्दू महासभा के लिये दिन प्रतिदिन श्रद्धा बढ़ती ही जा रही थी। अपने दौरो से आपने हिन्दुओं में जागृति उत्पन्न कर दी। इनके आने से हिन्दू महासभा की स्थिति बहुत बढ़ गई और ये भारत की राजनीति में प्रमुख भाग लेने लगे। भारत की सरकार ने देश की
मुख्य संस्थाओं में हिन्दू महासभा की गणना करके इसे हिन्दुओं की प्रतिनिधि संस्था मान लिया। भारत के वायसराय महोदय ने राजनैतिक विषयों पर परामर्श करने के लिये कई बार हिन्दुओं के प्रतिनिधि के रूप में वीर सावरकरजी को आमन्त्रित किया था।