हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 8 Shrishti Kelkar द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 8

अध्यात्म-भावना का पुनरुद्रेक
भगवान्ने जिस कार्य के लिये भाईजी को भेजा था, उसकी ओर आकर्षण बम्बईके भोग–प्रधान व्यापारिक जीवनमें रहते हुए भी होने लगा। यह साधारण नियमका अपवाद कहा जा सकता है। प्रधान रूप से व्यापार करते हुए तथा राजनीतिक एवं सामाजिक कार्योंमें पूरा भाग लेते हुए किसीका जीवन साधनाके सोपानोंपर चढ़ने लगे, और वह भी बम्बई जैसे नगरोंमें रहते हुए तो उसे अवश्य ही भगवत् इच्छा ही कहना पड़ेगा। भाईजी के जीवनमें यही हुआ। बम्बई आने के दस महीने बाद ही छोटी बहिन अन्नपूर्णाके विवाहके लिये भाईजी को बाँकुड़ा जाना पड़ा। इस निमित्तसे श्रीसेठजी का सत्संग भी प्राप्त हुआ। दोनोंमें लगातार कई दिनोंतक साथ रहनेका सुअवसर इसके पहले नहीं आया था। इस बार पावन हृदयोंका मिलन अत्यन्त निकटसे हो रहा था। भाईजीका हृदय कृतज्ञतासे पूर्ण था, क्योंकि श्रीसेठजी इनकी नजरबन्दी के समय जब भी कलकत्ता जाते, तब भाईजी के परिवार से अवश्य मिलते थे। इस मिलन के बाद भाईजी श्रीसेठ जी के प्रति और भी अधिक खिंच गये। बम्बई लौटने पर भी मिलने की इच्छा होती ही रहती। इच्छा होने से, उसके अनुरूप भगवान् व्यवस्था कर देते हैं। थोड़े समय बाद श्रीजमनालाल जी बजाज, श्रीसेठजी से मिलने चक्रधरपुर जा रहे थे। भाईजी भी उनके साथ हो गये। चक्रधरपुरमें श्रीसेठजी के सत्संग का लाभ तो मिला ही, साथ ही उन्होंने अपनी दो पुस्तकें त्याग से भगवत्प्राप्ति' और 'प्रेमभक्ति प्रकाश के भाषा संशोधन का कार्य भाईजी को सौंपा। भाईजी ने केवल उनकी भाषा ही नहीं सुधारी, एक प्रकार से उनका कायाकल्प कर दिया। श्रीसेठजी अपने मूल भावों को अत्यन्त स्पष्ट तथा प्रभावशाली शैलीमें अभिव्यक्त देखकर गद्गद हो गये। उन्हें भाईजी के हृदय के भावों एवं योग्यता का परिचय प्राप्त हो गया। श्रावण सं० 1977 (जुलाई-अगस्त, 1920) में ये पुनः बम्बई लौट आये।
सं० 1978 (सन् 1921) में भिवानी के भक्त श्रीलक्ष्मीनारायण जी का हरिनाम प्रचार के लिये बम्बई आगमन हुआ। ये नवद्वीपवासी गौड़ीय संत श्रीरामकरण जी के अनुगत थे। स्थान-स्थान पर घूमकर, मस्त होकर कीर्तन करते हुए हरिनामका प्रचार करते थे। कीर्तनमें नृत्य करते हुए इन्हें भाईजी ने देखा तो इनकी कीर्तन-निष्ठासे भाईजी बहुत प्रभावित हुए। इनके संगसे भाईजी के मन, प्राण, वाणी, शरीर सब भगवान्‌में डूबने लगे। पुनः वही सत्संग-भजन-कीर्तन का प्रवाह जीवनको जगत् की ओरसे मोड़कर अनन्त की ओर बहा ले चला। लगभग माघ सं० १६७८ (जनवरी, १६२२) से भाईजी की साधना पुनः विशेष तत्परता से प्रारम्भ हुई। उन्हीं दिनों भगवत्कृपा के चमत्कार की कुछ ऐसी घटनाएँ हुई जिन्हें देखकर भाईजी का भगवत्कृपापर अखण्ड विश्वास हो गया। पद-रचना भी इन्हीं दिनों प्रारम्भ हुई।

बहिनका अनोखा विवाह
भाईजी की सबसे छोटी बहिन थी चन्दाबाई। अपनी सभी छोटी बहिनों का भार भी भाईजी के कंधों पर ही था। बम्बई से रामगढ़ (राजस्थान) गये। रामगढ़ के श्रीचिरंजीलाल जी गोयनका से चन्दाबाई का विवाह ज्येष्ठ शु० 6, सं० 1979 को सम्पन्न हुआ। यह विवाह अन्य विवाहों से भिन्न रहा। भाईजी भक्ति-रसमें डूब चुके थे। भाईजी के जीवन का मुख्य लक्ष्य भजन-कीर्तन ही था। अतः इस विवाहमें भी इसी रसकी प्रधानता रही। हिन्दू-संस्कृतिमें विवाहके अवसरपर भिन्न-भिन्न तरहके गीत सदासे गाये जाते हैं। इस विवाहमें वे साधारण गीत न गाये जाकर भक्ति-रस के गीत गाये गये। भाईजी ने स्वयं उन गीतों की सरस भाषामें रचना की थी। ये गीत मारवाड़ी धार्मिक गीत' नाम से एक छोटी पुस्तिका के रूपमें प्रकाशित भी हुए। इन गीतों ने समाज को एक नयी जागृति दी। कई प्रथाओंमें सुधार हुआ।
उस समय के प्रसिद्ध संत लक्ष्मणगढ़ निवासी श्रीरामनाम के आढतियाजी को उस विवाहमें सम्मिलित होने के लिये भाईजी ने आग्रहपूर्वक बुलाया था। उन्होंने विवाह के अवसरों पर भजन-कीर्तन करके समाजमें भक्ति रसकी धारा प्रवाहित की।
विवाह के बाद मिठाई अवश्य बंटी परंतु केवल मिठाई ही नहीं बंटी मिठाई के साथ-साथ भाईजी ने सभी को धार्मिक पुस्तकें बाँटी। उन्हें पढ़कर समाजमें धार्मिक चेतना आयी।

श्रीजयदयालजी गोयन्दका का भाईजी के आग्रह पर बम्बई आगमन
कलकत्ते के समय से ही श्रीज्वालाप्रसाद जी कानोड़िया भाईजी के घनिष्ठ मित्र थे। आजके युगमें श्रीज्वालाप्रसाद जी कानोड़िया की मित्रता को मित्रता की कसौटीपर पूरा खरा उतरता पाते हैं। भाईजी और ये बहुत वर्ष पूर्व मिले थे। इतने वर्षोंमें कानोड़ियाजी के विचार, रहन-सहन, कार्यक्षेत्र सभी समयानुसार बदलते रहे पर एक वस्तु नहीं बदली--वह वस्तु थी भाई जी एवं उनकी मित्रता। मित्रताके प्रथम क्षण से लेकर श्रीकानोड़िया जी के जीवन काल तक दोनों का हृदय एक दूसरे के प्रति भरा रहता था। दोनों ही एक-दूसरे का सुख अपना सुख एवं एक दूसरे का दुःख अपना दुःख मानते थे। श्रीकानोड़िया जी के जीवनमें अनेकों हेर-फेर होने पर भी ये दो बातें अक्षुण्ण बनी रहीं। जब से भाईजी ने श्रीज्वालाप्रसादजी को पूज्य श्रीसेठजी से मिलाया तबसे श्रीज्वालाप्रसादजी का आकर्षण पूज्य श्रीसेठजी के प्रति बढ़ता ही गया। भाईजी का पूज्य श्रीसेठजी के प्रति जितना आकर्षण था, उनसे बहुत अधिक श्रीज्वालाप्रसादजी का था। श्रीज्वालाप्रसादजी की दृष्टिमें पूज्य श्रीसेठ जी कुछ और ही होते चले जाते थे। इनका सत्संग सुनते, इनसे बातें करते, अनेकों आध्यात्मिक प्रश्न करते हुए इनपर पूज्य श्रीसेठजी की पवित्रताका इतना गहरा असर पड़ने लगा कि ये उन पर लुट पड़े। मन-ही-मन अपने आपको पूज्य श्रीसेठ जी के प्रति न्यौछावर कर दिया। कानोड़ियाजी की दृष्टि में उस समय पूज्य श्रीसेठजी से बढ़कर आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न और कोई व्यक्ति नहीं था। इनके चरणों में अपने आपको देकर ये आनन्द में आत्मविस्मृत होने लगे, पर यह आनन्द अकेले अकेले लेना उन्हें खला। आनन्द में सब कुछ भूलते हुए–से भी अपने मित्र श्रीभाई जी को ये न भूल सके। भाईजी इन दिनों बम्बई रहने लगे थे। पूज्य श्रीसेठ जी के सत्संगका आनन्द लेते समय मित्र की बात याद आ ही गयी। पर भाईजी पास थे नहीं। वे कलकत्ता में और भाईजी बम्बई। बम्बई से भाईजी को बुलाना भी उचित प्रतीत नहीं हुआ।
उनके मनमें आया कि भाईजी को बम्बई लिख दिया जाय कि वे आग्रहपूर्वक चेष्टा करके पूज्य श्रीसेठ जी को बम्बई बुलायें। आग्रहपूर्वक चेष्टा की उपेक्षा श्रीसेठ जी नहीं कर सकते। पूज्य श्रीसेठ जी अवश्य बम्बई जायेंगे और इस प्रकार उनके मित्र भाईजी को अवश्य उनके सत्संग का लाभ प्राप्त होगा ही। श्रीकानोडिया को यह भी ध्यान हो गया था कि मेरे मित्र भाईजी अभी बम्बई में अन्य कार्यों में व्यस्त हो रहे हैं। अतः उनको पुनः पूज्य श्रीसेठजी से मिलाना उन्होंने बहुत जरूरी समझा। मित्र के प्रति कर्तव्य की यत्किञ्चित् पूर्ति भी
होगी। विचार आने की देर थी ज्वालाप्रसाद जी ने भाईजीको बम्बई पत्र दिया कि चेष्टा करके पूज्य श्रीसेठजी को सत्संगके लिये बम्बई बुलाओ।
अपने इधर बम्बईमें भाईजी मानो अपने मित्रके पत्रकी प्रतीक्षा कर ही रहे थे। भाईजीने स्वयं तो पूज्य सेठजीको तार एवं पत्र दिये ही मित्रों से भी आग्रहपूर्वक बार-बार तार एवं पत्रों से पूज्य सेठजी को प्रार्थना करायी कि वे सत्संग के लिये बम्बई पधारे ही । सं० १६७६ की (सन् १६२२) शरद-ऋतु में बम्बई नगर जगत् के परमोच्च संत का दर्शन पाकर पवित्र हो गया। भाईजीके उत्साहका क्या कहना। स्टेशनपर सैकड़ों प्रतिष्ठित सज्जनों के साथ उमंगमें भरे हुए ये खड़े हुए थे। गाड़ी आयी पूज्य सेठजी अपने 20-25 मित्रों के साथ उतरे। मिलने के समय सबका रोम-रोम आनन्द से पुलकित हो उठा। आनन्दमें मस्त सभी पैदल ही चल पड़े। यदि श्रीजयदयाल जी गाड़ीमें बैठकर जाते तो अधिक-से-अधिक ४-५ व्यक्ति ही उनके पास बैठकर उनके सुखमय सानिध्य का सौभाग्य पाते। पर सच्चे संतमें विषमता होती ही नहीं। उनकी प्रत्येक क्रियामें ही सबके लिये समान
भाव से प्रेम झरता है। यह नहीं कि उसके लिये वे चेष्टा करते हैं, स्वाभाविक ही उनमें दिव्य समता निरन्तर बनी रहती है। पूज्य श्रीसेठ जी भी सबके थे, उनके सभी अपने थे, सबके प्रति उनके हृदयमें अगाध, अनन्त, असीम प्रेम का सागर लहरा रहा था और उस समय प्रेम सागरमें ऊँची-ऊँची लहरें उठ रही थीं। सभी उसमें अवगाहन कर रहे थे। वे भला किसी को प्रेम-तरंग-दानमें भेद क्यों करते। क्या सागर भी कभी तरंग दानमें भेद करता है ? नहीं तो। अतः पूज्य श्रीसेठजी ने भी पैदल ही चलना पसन्द
किया। अपने आप एक जुलूस बन गया। मान-अपमान से ऊपर उठे हुए संत के लिये जुलूस का किंचित्मात्र भी महत्त्व नहीं था। वे तो स्वाभाविक निजानन्द स्वरूपमें स्थित थे, उनका शरीर मात्र चिन्मय स्वरूपानन्द सागर की लहरियों पर नाचता हुआ प्रारब्धकी निर्धारित गति से आगे बढ़ता जा रहा था। जुलूस सुखानन्दजी की धर्मशालामें पहुँचा।
श्रीसेठ जी दस दिन बम्बई ठहरे। धर्मशालामें पहला व्याख्यान निष्काम कर्मयोगपर हुआ श्रीनर-नारायणजी के मन्दिरमें कीर्तन आरम्भ हुआ। दस दिनमें सत्संग की पवित्र धारामें न जाने कितने व्यक्तियों ने निमज्जन किया। लौटने के दिन सत्संगमें श्रीसेठ जी ने सुन्दर विदाई की याचना की। नम्रता से कहा— मेरे जाने के बाद आपलोग प्रतिदिन नियम से सत्संग करें। उत्तरमें श्रीशिवनारायण जी नेमाणी बोले 'सत्संग अवश्य होना चाहिये। मैं कम-से-कम पाँच साल के लिये अपनी बाड़ीमें स्थान देता हूँ। वक्ता की व्यवस्था आप करें। श्रीसेठ जी ने भाईजी को आदेश दिया कि कुछ देर सत्संग की बातें कहा करें। भाईजी पहले तो कुछ झेंप-से गये पर आदेश के सामने नतमस्तक हो गये। श्रीसेठ जी तो बम्बईसे लौट गये, पर अपनी स्मृतिमें सत्संग की धारा छोड़ गये। यह धारा भाईजी के साथ तेजीसे बह चली। भाईजी विस्तार से गीता पर प्रवचन करने लगे। कई वर्षों तक यह क्रम चालू रहा। गीता की दो आवृत्तियाँ विस्तारपूर्वक समाप्त हुई। अठारहवें अध्याय के 66 वें श्लोक पर एक महीने प्रवचन हुआ। पहले तो सत्संग दिनमें होता था पर कुछ दिनों बाद रात्रिमें होने लगा। सत्संग में मारवाड़ी-मराठी-गुजराती भाषी सभी लोग आते। श्रीजमनालाल जी बजाज जब बम्बईमें रहते, तब बराबर आते। गाँधीजी के अनुयायी श्रीकृष्णदास जाजू नियमित आते। बादमें रामचरितमानस पर भाईजी प्रवचन करने लगे। प्रवचन अत्यन्त भावपूर्ण होता एवं श्रोता मन्त्र-मुग्ध होकर सुनते। बीच-बीचमें साधु महात्मा भी पधारते तो भाईजी उनसे सत्संग कराते। इस नाते भाईजी का परिचय अच्छे-अच्छे महात्माओं से हो गया। इनमें मुख्य थे— स्वामी अच्युत मुनि जी, श्रीभोलेबाबा जी, श्रीउड़ियाबाबा जी, श्रीहरिबाबा जी, स्वामी शिवानन्द जी, श्रीप्रभुदत्त जी ब्रह्मचारी। भाईजी का रामानुज-सम्प्रदाय के आचार्य श्रीअनन्ताचार्य जी महाराज एवं वल्लभ-सम्प्रदाय के आचार्य श्रीगोकुलनाथ जी महाराज से भी स्नेहका सम्बन्ध हो गया। इन्हीं दिनों पं० हरिबक्ष जी जोशी सत्संग में आने लगे। वे भाईजीको संस्कृत के सुन्दर-सुन्दर श्लोक सुनाते। भाईजी से इनकी मित्रता हो गई। प्रसिद्ध गायनाचार्य पं० विष्णुदिगम्बर जी
महाराज से भी परिचय हो गया। वे भी भाईजी पर बड़ा स्नेह रखने लगे। सं० 1980 (सन् 1923) के पुरुषोत्तम (ज्येष्ठ) मास में इनकी कथा प्रातः सातसे नौ बजे तक सत्संग भवन में हुई। कथा के समय रसका श्रोत बहता। कभी-कभी रात्रिमें भी पधारकर कथा कहने लगे। समय-समयपर नगर-संकीर्तन का भी आयोजन होता। रामनवमी, जन्माष्टमी, छारण्डी के दिन बृहद् नगर-संकीर्तन निकलता। हजारों व्यक्ति सम्मिलित होते। भाईजी कभी-कभी कीर्तन में बेसुध हो जाते। इनके प्रवचनों से प्रभावित होकर भाईजी को बालकों को गीता की शिक्षा देने के लिये आग्रह पूर्वक स्थानीय मारवाड़ी विद्यालय में बुलाया। ये बड़े प्रेमसे रोज एक घंटे विद्यार्थियों को गीता का मर्म समझाने लगे। प्रसिद्ध नेता डा० राममनोहर लोहिया उन दिनों इस विद्यालय के विद्यार्थी थे। भाईजी की गीता शिक्षा की बातें उन्हें जीवनभर स्मरण रहीं एवं कई बार अपने व्याख्यानों में इसकी चर्चा की। यह सब श्रीसेठजी की बम्बई यात्रा का ही परिणाम था। भाईजी की साधना भी उद्दीप्त होने लगी।
दादी रामकौर अपने पौत्र की दिनचर्या से परम प्रसन्न थी। संतों के आशीर्वाद से लेकर अभी तक का दृश्य उनके सामने था। अब उनका अभिनय समाप्त हुआ। दादी रामकौर बम्बई में बैसाख शुक्ला 13, सं० 1980, (सन् 29 अप्रैल, 1923) नृसिंह जयन्ती के दिन सूत्रधार के चरणों में जा पहुँचीं। जानेसे पूर्व सभीने देखा, दादी रामकौर प्रसन्न चित्तसे 'सोऽहम्-सोऽहम्' का जप कर रही थीं। ये ही भाईजी के परिवार की कर्णधार थीं, उनके जाने से परिवार एकबार सूना-सा हो गया। भाईजी ने बहुत उदारता से धन व्यय करके इनका श्राद्ध सम्पन्न किया, मानो कोई विशेष आनन्दोत्सव हो।